हमारे देश में मौजूदा संविधान को लागू हुए पचहत्तर साल पूरे होने जा रहे है, किंतु सवा सौ संशोधनों के तीरों से इसे घायल कर देने के बावजूद इसकी दुरावस्था पर आज भी विवाद जारी है, पन्द्रह अगस्त 1947 को देश आजाद होने के करीब सवा दो साल बाद 26 जनवरी 1950 को हमारा संविधान लागू हुआ था, इसके बाद से अब तक सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों ने अपनी सुविधानुसार इसमें सवा सौ से अधिक संशोधन किए और इसी कारण अब हमारे मूल संविधान के दर्शन दुर्लभ है, किंतु अन्य बहस से पहले इस प्रश्न पर विचार-मंथन जरूरी है कि क्या हमारा देश हमारे संविधान के अनुरूप चलाया जा रहा है, इस प्रश्न का एक ही जवाब ‘‘नही’’। हर सत्तारूढ़ राजनीतिक दल अपने देश को देश के संविधान से नही अपनी पार्टी के संविधान के अनुरूप चलाना चाहता आया है। ....और अपने राजनीतिक स्वार्थ सिद्धी के लिए इसमें इतने संशोधन के घाव किए है, जिसके कारण आज हमारा संविधान मृत्यु शैया पर पड़ा कराहता नजर आ रहा है और यह प्रक्रिया आज भी जारी है और अब यह ‘संग्राम’ हमारे प्रजातंत्र के प्रमुख अंगों विधायिका (संसद-विधानसभा) और न्याय पालिका के बीच छिड़ गया है, संसद द्वारा पारित संविधान संशोधन को लागू करने की समय सीमा पर यह संघर्ष है, जिसमें राज्यपालों द्वारा विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूर करने को लेर विवाद है, पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने राज्यपाल की शक्तियों को स्पष्ट किया है, इसका कहना है कि विधेयकों को लागू करने की समय सीमा कोई तय नही कर सकता, पर साथ ही राज्यपाल बिल को लटकाकर नही रख सकते, उनके सामने बिल को लेकर तीन ही विकल्प है, मंजूर करें, ना मंजूर करें, या पुनर्विचार हेतु लौटा दें और इन तीनों विकल्पों पर राज्यपाल को तय समय सीमा में निर्णय लेना पड़ेगा। यह विवाद गहरा और तब हो गया जब इस मसले पर राष्ट्रपति ने चैदह सवाल खड़े कर दिए, पिछली मई मंे राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने एक सवाल पर सुप्रीम कोर्ट को एडवाईजरी ओपिनियन मांगने के लिए संविधान के आर्टिकल 141(1) का इस्तेमाल करते हुए दी थी, जिसमें राज्यपालों को समय सीमा के बारे में पूछा गया था, उनका यह फैसला तमिलनाडु के एक मामले के फैसले के रूप में सामने आया, जिसमें जजों की बैंच ने इस बारे में विस्तृत गाईड लाईंस बनाई थी कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को बिलों पर कितनी अवधि में फैसला लेना चाहिए और एक अनोखे कदम में आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करके तमिलनाडु के दस बिलों को गवर्नर ने लम्बे समय तक कोई एक्शन न लेने के बाद लौटा दिया था, इसी संदर्भ में राष्ट्रपति ने 14 सवाल रखे, जिसमें आर्टिकल 200 और 201 के तहत महामहिम की शक्तियों को लेकर पूछ गया था। राज्यपालों के संवैधानिक अधिकारों को लेकर इसी संदर्भ में नई बहस शुरू हो गई है, अब यह मुद्दा राष्ट्रपति व संसद के अधिकारों के बीच झूल रहा है और सरकार संविधान विशेषज्ञों की मद्द से इसे सुलझाने में व्यस्त है। इस प्रकार हमारा संविधान चाहे ‘बूढ़ा’ हो गया हो, किंतु इसे सजाने-संवारने और अपनी आवश्यक्ता के अनुरूप बनाने के प्रयास अभी भी जारी है। (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 23 नवम्बर/2025