- हाथ नहीं बदल सका हालात लोकसभा चुनाव और उसके बाद हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, दिल्ली से लेकर बिहार तक कांग्रेस के हालात नहीं बदल सके। कांग्रेस का ही नारा था.... हाथ बदलेगा हालात। लोकसभा चुनाव में जिन दलों के साथ कांग्रेस गलबहियां कर रही थीं बाद में उन्हीं दलों के साथ मतभेद उभरकर सामने आ गए, बतौर उदाहरण आप। बिहार में कांग्रेस ने जिन दलों के साथ गठबंधन किया वो भी फिस्सडी निकले। यहां हम थोड़ा वक्त पहले चलें जब 2023 में दो दर्जन से भी ज्यादा विपक्षी दलों ने इंडिया गठबंधन बनाया था तो एकजुटता के दावे किए गए थे। ये नारा भी दिया गया था कि जुड़ेगा भारत, जीतेगा इंडिया, लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान ही फूट उजागर हो गई। लोस चुनाव के बाद तो पूरा का पूरा गठबंधन ही बिखर गया। लोकसभा चुनाव में भी बंगाल, केरल और पंजाब में मित्र दल एक दूसरे के खिलाफ लड़ रहे थे। यानि ये माना जा सकता है कि जब देश में यूपीए की सरकार थी तब के कांग्रेसनीत गठबंधन को कांग्रेस बरकरार नहीं रख पाई। देश की सत्ता पर दशकों तक राज करने वाली कांग्रेस आज अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है। तमिलनाडु, बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्रप्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, जम्मूकश्मीर से लेकर मध्यप्रदेश तक कांग्रेस की जड़ें कमजोर हो गईं हैं। सच ये भी है कि कांग्रेस की ये स्थिति अचानक से नहीं हुई है। कांग्रेस नेतृत्व इतना आत्ममुग्ध हो गया कि संगठन कब और कितना खोखला हो गया इसका एहसास ही नेताओं को नहीं हुआ। संगठन के पदों से लेकर टिकट वितरण तक में काबिल लोगों की अनदेखी हुई। कांग्रेस से अलग होकर जो क्षेत्रीय दल बने वो ज्यादा मजबूत होते गए। या यूं कहा जाए कि कांग्रेस के बिखरे वोटों को बटोरने वाले क्षेत्रीय दलों की स्थिति आज कांग्रेस से बेहतर है। बतौर उदाहरण, सन 2013 में आप ने दिल्ली की सत्ता से कांग्रेस को बेदखल कर दिया था। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कभी सपा से गठबंधन करती रही, तो कभी बसपा से। राहुल गांधी कभी अखिलेश यादव की सरकार को कोसते दिखते हैं तो कभी उन्हीं से गठजोड़ कर लेते हैं। ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ कांग्रेस या राहुल ने ही किया हो भाजपा भी वक्त दर वक्त अपने राजनीतिक मित्र बदलते रही है। लेकिन, असल धर्म संकट उन कार्यकर्ताओं के साथ होता है जो अपनी पार्टी के प्रति समर्पित भाव से काम करते हैं। जिसके खिलाफ राजनीतिक विरोध हो उसी के साथ मतदाताओं के बीच जाकर वोट मांगना इन कार्यकर्ताओं के लिए मुश्किल हो जाता है। लोकसभा और फिर लगातार विभिन्न राज्यों में विधानसभा चुनाव हार के बाद कांग्रेस के सामने फिर नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठ रही है, पार्टी का थिंक टैंक खामियों को ढूंढने और दूर करने की बात कह रहा है। विपक्षी दलों को कांग्रेस को घेरने का मौका मिल गया है और इनमें से कुछ तो उसके अस्तित्व पर ही सवाल उठा रहे हैं। आज कांग्रेस की जो हालत है उससे क्या ये माना जाए कि कांग्रेस अब राजनीतिक पटल से बाहर हो जाएगी ?, इस पर पुराने कांग्रेसियों का तर्क है कि ऐससा नहीं है। एक वक्त में तो भाजपा की भी देश भर में दो ही संसदीय सीटें थी और फिर वो तीन सौ से ज्यादा सीटों पर पहुंच गई। कांग्रेस को भी अपने अहम और वहम से बाहर निकलना होगा, संगठन को मजबूत बनाना होगा, कार्यकर्ताओं में जोश भरना होगा, वोटरों का भरोसा जीतना होगा। क्षेत्रीय दलों के भरोसे सत्ता तक पहुंचने की कोशिश की छोड़नी होगी तो हाथ के हालात बदलने में वक्त नहीं लगेगा। ------ मध्यप्रदेश: ................ जो बोया वही काट रहे कमलनाथ-दिग्विजय मध्यप्रदेश कांग्रेस में भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। कुछ महीनों पहले ही पूर्व सीएम और पार्टी के कद्दावर नेता कमलनाथ ने अपना दर्द बयां किया था। उनकी टीस थी कि उन्हें पार्टी की बैठक की जानकारी नहीं दी जाती। नियुक्तियों तक में उनसे रायमशविरा नहीं किया जाता। वैसे, कमलनाथ वही काट रहे हैं जो उन्होंने बोया था। एक वक्त था जब नाथ की सत्ता और संगठन दोनों में तूती बोलती थी, तब भी होता वही था जो नाथ चाहते थे। यही हाल दिग्विजय सिंह के सीएम रहते था। तब दिग्विजय गुट था उनके बाद जब नाथ के हाथ संगठन और सत्ता आई तब नाथ गुट हो गया और ये सिलसिला चलता आ रहा है। अब चाहे दिग्विजय सिंह हो या फिर कमलनाथ और कोई और बड़ा नेता सभी गुटबाजी में पिस रहे हैं। बड़े नेता चाहते हैं कि पटवारी हर काम उनसे पूछ कर करें और पटवारी ऐसा कर नहीं रहे हैं, ये भी एक वजह है नाथ-दिग्विजय की टीस की। कांग्रेस की गुटबाजी किसी छिपी नहीं है लेकिन जिस तरह से जीतू पटवारी अलग-थलग पड़ गए हैं उससे यही लगता है। वैसे पार्टी के ही एक खेमे का कहना है कि पटवारी खुद ही सीनियर्स को किनारे करके एकला चलो वाली नीति के तहत काम कर रहे हैं। मध्यप्रदेश कांग्रेस उस वक्त से लगातार कमजोर हो रही है जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामा था। इसके बाद कमलनाथ सरकार गिर गई थी। बाद में तो कमलनाथ के अपने पुत्र के साथ कांग्रेस छोड़ भाजपा में जाने की अटकलें हवा में तैरते रहीं थी, ये और बात है कि वे गए नहीं या फिर लिए नहीं गए। वैसे एक वक्त था जब कमलनाथ ही सर्वेसर्वा हुआ करते थे। मुख्यमंत्री रहते हुए भी पीसीसी चीफ पद नहीं छोड़ा था। अब, कमलनाथ हो या फिर दिग्विजय सिंह सभी हासिये पर आ गए हैं। कांग्रेस के भीतर क्या चल रह रहा है इसकी बानगी वक्त वक्त पर सामने आते रहती है। महू में जय भीम, जय बापू, जय संविधान रैली की तैयारियों को लेकर मध्यप्रदेश कांग्रेस की पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी की वर्चुअल मीटिंग में पीसीसी चीफ जीतू पटवारी, पूर्व सीएम कमलनाथ, पूर्व सीएम दिग्विजय सिंह, नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार समेत कमेटी के तमाम सदस्य जुड़े थे। वर्चुअल मीटिंग में पूर्व सीएम कमलनाथ ने अपना दर्द बयां किया था। उनका कहना था कि आजकल ऐसा चल रहा है कि नियुक्तियों में मुझसे पूछा तक नहीं जाता। चाहे नियुक्ति किसी के कहने से हो न हो लेकिन सीनियर्स से रायमशविरा करनी चाहिए। नाथ का कहना था कि बैठकों की मुझे कोई सूचना नहीं दी जाती। अखबारों से पता चलता है कि कांग्रेस की बैठक थी। इसी तरह दिग्विजय सिंह ने भी कहा कि मैं भी कमलनाथ जी की बात से सहमत हूं। बिना एजेंडे के बैठकें बुला ली जाती हैं। पूर्व सांसद मीनाक्षी नटराजन ने भी कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की बात का समर्थन किया था। दिलचस्प बात ये भी है कि इस मीटिंग में बड़े नेता अपनी-अपनी बात कहकर लेफ्ट होते रहे। मध्य प्रदेश कांग्रेस में गुटबाजी और आपसी सामंजस्य की कमी खुलकर सामने आते रही है। अंतर्कलह को दूर करने के लिए पार्टी ने युवा नेताओं को आगे किया, लेकिन हालात नहीं बदले। जिला अध्यक्षों की नियुक्ति के दौरान भी काफी हो-हल्ला मचा था। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर जीतू पटवारी पर अपने लोगों को उपकृत करने के आरोप लगे थे। आधा दर्जन से ज्यादा जगहों पर नियुक्तियों को लेकर हुए विरोध के बीच पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरूण यादव ने भी प्रदेश नेतृत्व पर तंज कसा था। कुल मिलाकर, ये कहा जा सकता है कि जीतू पटवारी जैसे तेज तर्रार नेता के साथ सीनियर्स की पटरी नहीं बैठ रही है। पटवारी को पार्टी की कमान इसलिए दी गई थी कि वे युवा है उन्हें सड़क से लेकर विधानसभा तक का खासा अनुभव है। लेकिन जिस तरह से सीनियर्स ने पल्ला झाड़ लिया या सीनियर्स को किनारे कर दिया गया उससे कांग्रेस की और ज्यादा फजीहत ही हो रही है। सन 2023 में विधानसभा में पराजय और इसके बाद वर्ष 2024 में हुए लोकसभा चुनाव में सभी 29 सीटें हारने के बाद भी पार्टी नेताओं का इगो खत्म नहीं हुआ। हालात ये हैं कि पूर्व अध्यक्ष अरूण यादव, पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह सहित ऐसे ही कई नेताओं ने पार्टी से दूरी बनाए रखी हुई है। महिला कांग्रेस, युवा कांग्रेस, एनएसयूआई, कर्मचारी कांग्रेस, अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ सहित पार्टी के अन्य अनुशांगिक संगठनों का कोई अता-पता नहीं है। कांग्रेस के बेपटरी होने का सारा ठीकरा जीतू पटवारी पर फोड़ा जा रहा है लेकिन क्या वो अकेले ही जिम्मेदार हैं ? ------- बिहार: वोट चोरी का मुद्दा उलटा पड़ा हरियाणा, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के बाद अब बिहार में बीजेपी के एनडीए गठबंधन ने बड़ी जीत हासिल की है। बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश कुमार ने 20 नवंबर को 10वीं मर्तबा शपथ ले ली है। शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी मौजूद रहे। बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल यूनाइडेड और भारतीय जनता पार्टी दोनों के लिए ये जीत खासी मायने रखती है। बीजेपी की 89 और जेडीयू की 85 सीटों वाले गठबंधन के किसी भी फैसले को राजनीतिक तौर पर चुनौती देना विपक्षी दलों के लिए आसान नहीं होगा। 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में इसी बहुमत में नीतीश कुमार के लिए राह इतनी भी आसान नहीं होगी। बिहार के वोटरों ने जिन वादों के आधार पर नीतीश पर भरोसा जताया है, उसे पूरा करना होगा। खासकर नौकरी, रोजगार, उद्योग, पेंशन, मुफ्त बिजली जैसे कई वादे हैं, जिन्हें पूरा करना नीतीश कुमार के लिए अग्नि परीक्षा जैसा होगा। हिन्दी भाषी राज्यों में बिहार ही एकमात्र राज्य है, जहाँ बीजेपी अब तक अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई है। इस बार भी सबसे बड़ी पार्टी होकर बीजेपी, नीतीश कुमार के सहयोगी की भूमिका में है। जानकारों की मानें तो भविष्य में भाजपा ही नीतीश के लिए चुनौती बन सकती है। बिहार विधानसभा चुनाव से पहले एनडीए ने गरीबों को मुफ्त राशन, 125 यूनिट मुफ्त बिजली, पांच लाख तक के मुफ्त इलाज की सुविधा, 50 लाख नए पक्के मकान और सामाजिक सुरक्षा पेंशन आदि जैसे वादे किए थे। इन वादों को पूरा करने के लिए नीतीश सरकार को राजस्व जुटाना होगा। बिहार को अपराधमुक्त बनाना और सूबे के मजदूरों, युवाओं का पलायन रोकना भी नीतीश के चुनौती होगी। दो दशक तक सीएम रहने के बाद भी बिहार की गिनती बीमारू या गरीब राज्यों में होती है। नीतीश कुमार को बिहार को आर्थिक रूप से मजबूत बनाना होगा, यहां निवेश लाना होगा और औद्योगिक तरक्की तेज करनी होगी। नीतीश कुमार ने जब पहली बार अपने पूरे कार्यकाल के लिए बिहार की सत्ता संभाली थी, तब केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार थी। बिहार में साल 2006 में साइकिल योजना, साल 2006 के अधिनियम के तहत पंचायत में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण और 2007 में जीविका योजना शुरू हुई। इन तमाम योजनाओं का लाभ नीतीश को मिला। नीतीश की पार्टी जेडीयू ने साल 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत हासिल की। इस बार के चुनाव के बाद ये अटकलें लगाईं जा रही हैं कि ये चुनाव नीतीश का आखिरी चुनाव हो सकता है। बढ़ती उम्र और सेहत को इसकी वजह बताया जा रहा है। नीतीश की सेहत का मसला चुनाव प्रचार के दौरान भी उठा था। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा खुद अपनी पार्टी का सीएम तय कर सकती है। एनडीए ने बिहार में 243 में से 202 सीटें जीतकर ऐतिहासिक बहुमत हासिल किया है। राष्ट्रीय जनता दल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अन्य पार्टियों के महागठबंधन को बड़ी और अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा। कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन तो निराशाजनक रहा है। 61 सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाली कांग्रेस ने सिर्फ छह सीटें जीत पाई। इस बार कांग्रेस का बिहार विधानसभा चुनावों में वोट शेयर 8.71 प्रतिशत रहा है। 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर 9.6 प्रतिशत था। हालांकि तब कांग्रेस ने 70 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। पिछले चुनाव में कांग्रेस ने 19 सीटें जीती थीं। सन 2015 में पार्टी ने 27 सीटें जीतीं थीं. वहीं, 2010 में सिर्फ चार सीटें जीत सकी थी। इस बार कांग्रेस के खाते में सिर्फ छह सीटें आई हैं। सन 1990 के बाद से बिहार में कांग्रेस का मुख्यमंत्री नहीं है। पिछले दो दशकों में कांग्रेस ने संगठन को मजबूत बनाने, कार्यकर्ताओं में जान फूंकने, वोटरों को जोड़ने और अपनी कमजोरी तलाशने का कोई काम नहीं किया। बिहार में कांग्रेस की इतनी बड़ी हार की वजह संगठनात्मक कमजोरी, नेताओं के बीच तालमेल का अभाव, प्रत्याशी चयन में लापरवाही, कार्यकर्ताओं की कमी, मतदाताओं के बीच पार्टी की कमजोर पकड़ को माना जा रहा है। कांग्रेस ने बेरोजगारी, सामाजिक न्याय, आरक्षण, मुफ्त बिजली, गरीब कल्याण, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दों को अपने घोषणापत्र में शामिल तो किया लेकिन मीडिया ओर सोशल मीडिया में वोट चोरी जैसे मुद्दे ही हावी रहे। एसआईआर और वोट चोरी के मुद्दे कांग्रेस के लिए उलटे पड़ते नजर आए। कांग्रेस ऐसे किसी मुददे को मजबूती से नहीं उठा पाई जो उसे चुनाव में फायदा पहुंचाता। वोटरों को ना तो कांग्रेस की रणनीति समझ आई और ना कोई चुनावी मुददा या कोई वादा। सूबे में कांग्रेस को ना तो उच्च जातियों के वोट मिले और ना पिछड़ी जातियों के। पार्टी अल्पसंख्यक वोटरों को भी जोड़कर नहीं रख पाई। भाजपा के हिन्दुत्व एजेंडे के विरोध में कांग्रेस के पास कोई एजेंडा नहीं था। बिहार को लेकर कांग्रेस के विजन और संकल्प पत्र को कार्यकर्ता, मतदाताओं तक नहीं पहुंचा सके। इसके अलावा जिन दलों से गठबंधन किया था वो भी फिस्सड़ी साबित हुए। दूसरी तरफ एनडीए गठबंधन ने अपने शासनकाल की खामियों को सामने ही नहीं आने दिया। कभी वोट चोरी और एसआईआर को ही कांग्रेस के खिलाफ उछाल दिया तो कभी लालू यादव के कार्यकाल की कमियां उजागर कर दी। चुनाव के पहले और चुनाव के दौरान कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के बीच तालमेल का अभाव दिखा। कांग्रेस में संगठन के भीतर भी तालमेल की कमी तो दिखी ही साथ ही कार्यकर्ताओं का अभाव भी नजर आया। कुल मिलाकर, कांग्रेस और उसके सहयोगी दल बिहार चुनाव में एनडीए गठबंधन के खिलाफ कोई ठोस चुनावी मुद्दा सेट नहीं कर पाए इसके विपरीत जेडीयू-बीजेपी ने अपने खिलाफ माहौल ही नहीं बनने दिया। (अधिवक्ता एवं लेखक- भोपाल) ईएमएस / 23 नवम्बर 25