नई दिल्ली,(ईएमएस)। बिहार में महागठबंधन की करारी हार के बाद एनडीए लगातार इंडिया ब्लॉक को गहरा सदमा पहुंचने और मनोबल संकट से गुजरने की बात कहता रहा है। ऐसे में जबकि 1 दिसंबर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरु हो रहा है, विपक्ष की एकजुटता को लेकर भी सवाल किए जा रहे हैं। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि विपक्ष के पास एक ही मुद्दा बचा है एसआईआर, जिस पर वह अपनी एकजुटता दिखा सकता है। संसद के शीतकालीन सत्र से पहले एनडीए का आत्मविश्वास नई ऊंचाइयों पर है। चुनावी पराजय और अंदरूनी मतभेदों से जूझ रहे विपक्ष के सामने अब केवल एक ऐसा मुद्दा बचा दिखाई दे रहा है, जिसके सहारे वह संसद में एकजुट उपस्थिति दर्ज करा सकता है, देशभर में जारी स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (एसाआईआर) का मसला। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, कई विपक्षी दलों ने रविवार 30 नवंबर को होने वाली सर्वदलीय बैठक में एसआईआर को जोरदार तरीके से उठाने की रणनीति पर सहमति बना ली है। विपक्ष का तर्क है कि यह अभियान न केवल मतदाता सूची में अनियमितताओं को बढ़ा रहा है, बल्कि कई राज्यों में उनकी राजनीतिक जमीन को भी प्रभावित कर रहा है। ऐसे में, यह मुद्दा उन दलों को भी एक मंच पर ला सकता है जो राज्य स्तर पर एक-दूसरे के खिलाफ़ खड़े होते हैं। हालांकि, विपक्ष का एक वर्ग आशंकित भी है। उन्हें डर है कि अगर पूरा ध्यान एसआईआर के विरोध में ही लगा दिया गया, तो वे सरकार को अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों—अमेरिका से प्रस्तावित ट्रेड डील, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हालिया दावों और दिल्ली में हुए कार बम विस्फोट आदि पर घेरने का मौका खो सकते हैं। पिछले संसद सत्र में भी विपक्ष ने बिहार में हुए एसआईआर को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की थी, लेकिन सरकार ने इसे ‘घुसपैठिया समर्थक अभियान’ बताते हुए विपक्ष की रणनीति को कमजोर कर दिया था। बावजूद इसके, आगामी चुनाव वाले राज्यों में टीएमसी, डीएमके, एसपी, लेफ्ट और कांग्रेस जैसे दलों के लिए एसआईआर की राजनीतिक अहमियत कम नहीं हुई है। विपक्ष के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक, इस बार संसद के शीतकालीन सत्र में एसआईआर का मुद्दा छाया रहेगा, क्योंकि इसका असर कई राज्यों में महसूस किया गया है। बंगाल से केरल तक एसआईआर बना साझा दर्द पश्चिम बंगाल में टीएमसी और कांग्रेस-लेफ्ट के बीच दूरी बनी हुई है, लेकिन संसद में एसआईआर के विरोध के दौरान यह अलगाव कम होता दिख सकता है। इसी तरह, केरल में वामपंथी दल और कांग्रेस, जो राज्य की राजनीति में धुर विरोधी हैं, संसद में एक ही सुर में नज़र आने की संभावना है। कई राज्यों में बूथ लेवल ऑफिसरों की आत्महत्या की घटनाओं ने भी एसआईआर के खिलाफ आवाजों को और तेज कर दिया है। बहरहाल संसद के शीतकालीन सत्र में यह साफ हो ही जाएगा कि क्या बिखरा विपक्ष एसआईआर के मुद्दे को अपनी एकजुटता का आधार बना पाएगा या यह भी पिछली कोशिशों की तरह राजनीतिक शोर तक ही सीमित रह जाएगा। हिदायत/ईएमएस 26नवंबर25