भारत जैसे विशाल और विविधताओं से परिपूर्ण देश में भोजन महज पोषण का स्रोत नहीं, बल्कि संस्कृति और परंपरा का आधार भी है। यहां खास तरह के खान-पान लोगों की पहचान भी होती हैं, जो कि आस्था से भी जुड़ जाते हैं। बावजूद इसके आज इस मजबूत आधार को लगातार नुक्सान पहुंचाने का कार्य किया जा रहा है। यह कहते हुए अफसोस होता है कि आज खाद्य पदार्थों में मिलावट एक गंभीर और भयावह महामारी का रूप ले चुकी है। दूध, मसाले, मिठाइयाँ, तेल और यहां तक कि रोजमर्रा के उपयोग में आने वाली सामान्य वस्तुएँ भी मिलावट से मुक्त नहीं रहीं। दुर्भाग्य की बात यह है कि अब भुना हुआ चना, जो सदियों से पौष्टिक और सस्ता स्नैक माना जाता रहा है भी इस जहरीले खेल का शिकार हो गया है। हाल ही में यह तथ्य सामने आया है, कि बाजार में बिकने वाले चमकीले पीले भुने हुए चनों में औरामाइन नामक घातक इंडस्ट्रियल केमिकल की मिलावट की जा रही है। यह खुलासा न केवल चौंकाने वाला है बल्कि हमारे खाद्य सुरक्षा ढांचे की कमजोरियों को भी उजागर करता है। दरअसल औरामाइन वह रसायन है जिसका प्रयोग कपड़ा, चमड़ा और कागज जैसे उद्योगों में किया जाता है, पर खाद्य पदार्थों में इसका उपयोग पूरी तरह प्रतिबंधित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की कैंसर रिसर्च एजेंसी (आईएआरसी) इसे संभावित कार्सिनोजन के रूप में वर्गीकृत कर चुकी है। लगातार सेवन करने पर यह लिवर, किडनी और ब्लैडर में कैंसर होने का खतरा कई गुना बढ़ा देता है, साथ ही नर्वस सिस्टम और अन्य अंगों पर भी गंभीर दुष्प्रभाव डालता है। यह स्थिति इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि मिलावट करने वाले इसका इस्तेमाल चने को आकर्षक दिखाने एवं मुनाफाखोरी के लिए कर रहे हैं। इसमें दो-राय नहीं कि चने का चमकीला रंग और कुरकुरेपन का अहसास उपभोक्ताओं को लुभाता है। वे नहीं जानते कि वो खाने के लिए क्या ले जा रहे हैं, अनजाने में ज़हर को खाद्य पदार्थ समझकर खुद भी खाते हैं और औरों को भी परोसते हैं। चने में हो रही मिलावट को सिद्ध करने के लिए सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो में दिखाया गया है, कि गर्म पानी में चने डालते ही पानी पूरी तरह पीला हो जाता है। इस दावे में यदि थोड़ी भी सच्चाई है तो यह वाकई बहुत ज्यादा चिंता की बात है, क्योंकि भुने चने का सेवन सभी वर्ग के अधिकांश लोग करते हैं। इस संबंध में राज्यसभा सांसद प्रियंका चतुर्वेदी द्वारा स्वास्थ्य मंत्री और खाद्य प्रसंस्करण मंत्री को लिखी गई चिट्ठी इस समस्या की गंभीरता को रेखांकित करती है। उन्होंने राष्ट्रीय हेल्थ अलर्ट जारी करने, व्यापक जांच अभियान चलाने और दोषियों को कठोर दंड देने की मांग भी की है। यहां यह समझ लिया जाना चाहिए कि यह मिलावट केवल फूड सेफ्टी एक्ट का उल्लंघन नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों के स्वास्थ्य के साथ सीधा खिलवाड़ है। ऐसे अपराध को किसी भी स्थिति में क्षम्य नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसे में सवाल यही उठता है कि मिलावट रुपी इस समस्या की जड़ कहाँ है, और इससे छुटकारा कैसे मिलेगा? दरअसल पहले तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि खाद्य सुरक्षा केवल सरकार या किसी एजेंसी विशेष की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति व समूह का दायित्व है। जहां तक सरकार और संबंधित विभागों की जिम्मेदारी की बात है तो इसके लिए उन्हें ज्यादा सजग होने की आवश्यकता है। सरकार के साथ ही एफएसएसएआई और राज्य स्तरीय खाद्य सुरक्षा विभागों को अचानक निरीक्षण, नमूना परीक्षण और दोषियों पर त्वरित कानूनी कार्रवाई को और अधिक सख्ती से लागू करना होगा। यह भी सच है कि आज भी देश में खाद्य सुरक्षा अधिकारियों की कमी है, जिससे बड़े पैमाने पर निगरानी करना कठिन हो जाता है। इस दिशा में संसाधनों और जनशक्ति में वृद्धि अत्यावश्यक है। इसमें उपभोक्ताओं की जागरूकता सबसे बड़ा हथियार है। लोगों को यह समझना होगा कि अत्याधिक चमकीले रंग, तेज गंध या असामान्य रूप–रूपांतर रखने वाले खाद्य पदार्थों से सतर्क रहें। इसके अलावा हमें शिकायत प्रणाली को मजबूत और सरल बनाना होगा। हर नागरिक को यह अधिकार और आत्मविश्वास होना चाहिए कि वह संदिग्ध खाद्य पदार्थों की शिकायत एफएसएसएआई, स्थानीय प्रशासन या उपभोक्ता फोरम में दर्ज करा सके। मिलावटखोरी के खिलाफ लड़ाई केवल कानून और दंड से नहीं जीती जा सकती है, बल्कि मिलावट रुपी राक्षस को नैतिकता और जिम्मेदारी के दम पर हराया जा सकता है। जब तक समाज में ईमानदारी और उपभोक्ता स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशीलता विकसित नहीं होगी, तब तक कोई भी कानून पूर्ण प्रभावी सिद्ध नहीं हो सकेगा। अब वाकई वह समय आ गया है, जबकि मिलावट को सामान्य मानने की प्रवृत्ति से बाहर निकलना होगा। भोजन में जहर की अनुमति नहीं दी जा सकती, न बाजार में, न नीतियों में और न ही हमारी उदासीनता में। मानव स्वास्थ्य के साथ किया जाने वाला यह खिलवाड़ का खेल अब बंद होना ही चाहिए। ईएमएस / 27 नवम्बर 25