रावण को श्रीरामकथा में अनेक पात्रों जैसे मारीच, मन्दोदरी, शुक सारण, कुम्भकर्ण तथा विभीषण आदि ने श्रीराम से वैर न लेने की सम्मति (सलाह) एक बार नहीं वरन् अनेक बार दी। अन्त में रावण को इन सबकी सम्मति को न मानने एवं अहंकार में अंधा होने से श्रीराम के द्वारा युद्ध में पराजित होना पड़ा। इसी क्रम में वाल्मीकिरामायण में विभीषण श्रीराम को अजेय बताकर उनके पास सीताजी को लौटा देने की सम्मति दी। यदि रावण विभीषण की बात मान लेता तो सम्भवतरू रावण एवं लंका का विनाश नहीं होता किन्तु श्रीराम लीला अनोखी है अतरू जो होना था वही हुआ। राक्षसराज रावण के समक्ष कुम्भकर्ण की गर्जना सुनकर विभीषण ने रावण को बड़े ही सार्थक एवं हितकारी वचनों से इस प्रकार समझाया- राजन! सीता नामधारी विशालकाय महान सर्प को किसने आपके गले में बाँध दिया है? उसके हृदय का भाग ही उस सर्प का शरीर है, चिन्ता ही विष है, सुन्दर मुस्कान ही तीखी दाढ़ है और प्रत्येक हाथ की पाँच-पाँच अँगुलियाँ ही इस सर्प के पाँच सिर हैं। जब तक पर्वत शिखर के समान पूरे ऊँचे वानर जिनके दाँत और नख उनके आयुध हैं। लंका पर आक्रमण नहीं करते, तभी तक आप श्रीराम के हाथ में सीताजी को सौंप दीजिए। जब तक श्रीरामचन्द्रजी के चलाए हुए वायु के समान तीव्र वेगशाली तथा वज्रतुल्य बाण राक्षस शिरोमणियों के सिर नहीं काट रहे हैं तभी तक आप श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में सीताजी को समर्पित कर दीजिए। राजन्! ये कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत, महापाश्र्व, महोदर, निकुम्भ, कुम्भ और अतिकाय- कोई भी रणक्षेत्र में श्रीरामचन्द्रजी के समुख नहीं ठहर सकते। यदि सूर्य या वायु आपकी रक्षा करें, इन्द्र या यम आपको गोद में छिपा ले अथवा आप आकाश या पाताल में प्रवेश (घुस) कर जाए तो भी श्रीराम के हाथों से जीवित नहीं रह सकते। विभीषण की यह बात सुनकर प्रहस्त ने कहा हम देवताओं अथवा दानवों से कभी नहीं डरते। भय क्या वस्तु है? यह हम जानते ही नहीं हैं। हमें युद्धों में यक्षों, गन्धर्वों, बड़े-बड़े नागों, पक्षियों और सर्पों से भी भय नहीं होता है फिर युद्ध के मैदान में राजकुमार राम से हमें कभी भी कैसे भय होगा? विभीषण राजा रावण के सच्चे हितेषी थे। उनकी बुद्धि का धर्म, अर्थ और काम में अच्छा प्रवेश था। उन्होंने प्रहस्त के अहितकर वचन सुनकर बड़ी अर्थयुक्त बात कही। प्रहस्त! श्रीराम अर्थ विशारद हैं- समस्त कार्यों के साधन में कुशल हैं। जिस प्रकार बिना जहाज या नौका के कोई महासागर को पार नहीं कर सकता है उसी प्रकार मुझ से, तुमसे अथवा समस्त राक्षसों से भी श्रीराम का वध कैसे सम्भव है? तीक्ष्णा न तावत तव कङ्कपत्रा दुरासदा राघवविप्रमुक्तारू। भित्वा शरीरं प्रविशन्ति बाणारू प्रहस्त तेनैव विकत्थसे त्वम।। वाल्मीकिरामायण युद्धकाण्ड सर्ग १४-१३ प्रहस्त! अभी तक श्रीराम के चलाए हुए कङ्कपत्रयुक्त, दुर्जय एवं तीखे बाण तुम्हारे शरीर को विदीर्ण करके भीतर नहीं घुसे हैं इसलिए तुम बहुत बढ़-बढ़कर बोल रहे हो। प्रहस्त! श्रीराम के बाण वज्र के समान वेगशाली होते हैं। वे प्राणों का अन्त करके ही छोड़ते हैं। श्रीरामचन्द्रजी के धनुष से छूटे हुए वे तीखे बाण तुम्हारे शरीर को भेदकर अन्दर नहीं घुसे हैं, इसलिए तुम इतनी शेखी बघारते हो। रावण! महाबलीत्रिशिरा, कुम्भकर्ण, निकुम्भ और इन्द्र विजयी मेघनाद तो रणक्षेत्र में इन्द्रतुल्य तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का वेग सहन करने में समर्थ नहीं हैं। देवान्तक, नरान्तक, अतिकाय, महाकाय, अतिरथ तथा पर्वत के समान शक्तिशाली अकम्पन भी युद्धभूमि में श्रीरामचन्द्रजी के सामने नहीं ठहर सकते हैं। अयं च राजा व्यसनभिमूतो मित्रैरमित्रप्रतिमैर्भवद्गिरू अन्वास्यते राक्षसनाशनार्थे तीक्ष्ण प्रकृत्या ह्यमीक्षकारी।। वाल्मीकिरामायण युद्धकाण्ड सर्ग १४-१७ ये महाराज रावण तो व्यसनों (राजाओं में सात व्यसन माने गए हैं, जैसे वाणी और दण्ड की कठोरता, धन का अपव्यय, मद्यमान, स्त्री, मृगया और द्यूत) के वशीभूत है अतरू सोच विचारकर काम नहीं करते हैं। इसके अतिरिक्त ये स्वभाव से ही कठोर है तथा राक्षसों के सत्यानाश के लिए तुम जैसे शत्रुतुल्य मित्र को सेवा में उपस्थित रहते हैं। अनन्त शारीरिक बल से परिपूर्ण, सहस्त्र फनवाले और महान बलशाली भयंकर नाग ने इस राजा को बलपूर्वक अपने शरीर से आवेष्टित कर रखा है। तुम सब लोग मिलकर इसे बन्धन से बाहर करके, प्राणसंकट से बचाओ। (अर्थात् श्रीरामचन्द्रजी के साथ वैर बाँधना महान सर्प के शरीर से आवेष्टित होने के समान है। इस भाव को व्यक्त करने के कारण यहाँ निदर्शना अलंकार में ना व्यंग्य है।) उत्तम चरित्ररूपी जल से परिपूर्ण श्रीरघुनाथजी समुद्र इसे डूबो रहा है अथवा यो समझो कि यह श्रीरामजी पाताल के गहरे गर्त में गिर रहा है। ऐसी दशा में तुम सब लोगों को मिलकर इसका उद्धार करना चाहिए। मैं तो राक्षसों सहित इस सारे नगर के और मित्रों सहित स्वयं महाराज के हित के लिए अपनी यही उत्तम सम्मति देता हूँ कि ये राजकुमार श्रीराम के हाथों में मिथलेश कुमारी सीताजी को सौंप दे। परस्य वीर्यं स्वबलं च बुद्ध्वा स्थानं क्षयं चैव तथैव वृद्धिम्। तथा स्वपक्षेऽप्यनुमृश्य बुद्धया वदेत क्षमं स्वामिहित स मन्त्री।। वाल्मीकिरामायण युद्धकाण्ड सर्ग १४-२२ वास्तव में सच्चा मंत्री वही है जो अपने और शत्रुपक्ष के बल पराक्रम को सोच समझकर तथा दोनों पक्षों की स्थिति हानि और वृद्धिका अपने बुद्धि के द्वारा विचार करके जो स्वामी के लिए हितकर और अचेत हो वही बात करें। रावण ने विभीषण की सम्मति स्वीकार नहीं की, उसका परिणाम लंका एवं रावण सहित राक्षसों का विनाश का कारण बना। डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता/01 दिसंबर2025