तेजी से डिजिटल होती दुनिया में मोबाइल फोन अब केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि हर व्यक्ति की निजी जरुरत बन चुका है। इसी वजह से फोन से जुड़ी किसी भी सरकारी नीति को लेकर नागरिकों की चिंता स्वाभाविक है। विशेषकर तब, जब सरकार की दूरसंचार नीति सीधे तौर पर लोगों के व्यक्तिगत डेटा, लोकेशन, गैलरी या संदेशों, उनकी पसंद ना पसंद और निजी संबंधों तक की पहुंच पर प्रश्न खड़ा करती हो। भारतीय संविधान में निजता का अधिकार केवल एक कानूनी प्रावधान नहीं, बल्कि एक लोकतांत्रिक एवं सभ्य समाज की आत्मा है। निजता को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा माना गया है। सुप्रीम कोर्ट ने भी स्पष्ट किया है। नागरिक अपनी व्यक्तिगत जानकारी, गतिविधियों और संचार पर नियंत्रण रखने का अधिकार रखते हैं। जब किसी सरकारी ऐप को अनिवार्य रूप से फोन में इंस्टॉल करने की बात सामने आती है। वह भी बिना हटाने के विकल्प के साथ तो सरकार की यह कार्यवाही सीधे लोगों के निजी अधिकार के साथ-साथ उनकी स्वतंत्रता को भी बाधित करती है। सरकार का यह निर्णय सीधे सवालों के घेरे में आ जाता है। विपक्ष के बढ़ते दबाव और विरोध के बीच सरकार को कहना पड़ा है, कि इसे फोन में रखना जरूरी नहीं है। इस ऐप को यूजर डिलीट भी कर सकते हैं। ऐप पद विवाद के बाद केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इसकी जानकारी दी है। बहरहाल सरकारी ऐप को लेकर अब नागरिकों को लगने लगा है, सरकार नागरिकों की पल-पल की जासूसी करके बंधुआ बनाना चाह्ती है। वहीं दूसरी तरफ सरकार का तर्क है, ये सरकारी ऐप साइबर सुरक्षा को मजबूत करेंगे। चोरी, साईबर फ्रॉड को रोकने और मोबाइल के सभी संव्यवहार को सुरक्षित बनाएंगे। नि:स्संदेह, उद्देश्य महत्वपूर्ण हैं। दरअसल साइबर अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। डिजिटल सुरक्षा वर्तमान समय की सबसे बड़ी चुनौती है। नागरिकों की सुरक्षा सरकार की जिम्मेदारी भी है। तकनीकी को लागू करने के पूर्व सरकार को उस नागरिकों की सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए, नागरिकों को उसके लिए प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए। भारत में तकनीकी को पहले लाया जाता है, उसके बाद सुरक्षा और खतरों को लेकर सरकार सजग होती है। जिसके कारण नागरिकों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। सुरक्षा का नाम लेकर सरकार द्वारा अनिवार्य निगरानी प्रणाली स्थापित करना कितना उचित है। यह गंभीर बहस एवं चिंता का विषय बन गया है। सुरक्षा और निगरानी, दोनों के बीच की दीवार बेहद पतली है। यदि किसी ऐप को कैमरा, माइक्रोफोन, लोकेशन, गैलरी और एसएमएस तक स्थायी पहुंच सतत मिलती है, तो यह केवल सुरक्षा नहीं, वरन व्यापक नियंत्रण का साधन बन सकता है। लोकतंत्र में राज्य को नागरिकों पर इतनी व्यापक दृष्टि रखने की अनुमति देने से पहले पारदर्शिता, सामाजिक सहमति और मजबूत कानूनी सुरक्षा बहुत आवश्यक है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में नागरिकों के पास स्वयं यह अधिकार होना चाहिए, कि जो व्यक्ति चाहे इस ऐप को इंस्टॉल करे, ना चाहे तो ना करे। यह स्वतंत्रता उसकी निजता का हिस्सा और एक संवैधानिक अधिकार भी है। सरकार की नीतियां नागरिकों के भरोसे का प्रतीक होनी चाहिए, भय अथवा शक का कोई स्थान नहीं होना चाहिये। आधुनिक तकनीक का उद्देश्य जनता को सशक्त बनाना है। नाकि उनकी निजी ज़िंदगी में अनियंत्रित हस्तक्षेप का साधन बने। सुरक्षा के नाम पर निजता का हनन अब सामान्य बात हो गई है। इससे लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं भी कमजोर होती चली जा रही हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है, क्या मोबाइल सुरक्षा के बहाने नागरिक अपनी निजता की अंतिम दीवार को गिरने देंगे? यदि ऐसा हो गया तो परिवार और निजी संबंध जिसमें सामाजिक आर्थिक और अन्य गतिविधियां सरकार के नियंत्रण में होंगी। ऐसी स्थिति में हमारी स्वतंत्रता खतरे में पडना तय है। इसे लेकर नागरिकों में एक अनजाना भय व्याप्त होने लगा है, जिसके चलते आक्रोष भी पनपने लगा है। दरअसल नागरिकों को लग रहा, सरकार जिस तरह से हमारे ऊपर नियम-कानून लागू करना चाहेगी, जैसे भी रखना चाहेगी, उसका हम कभी पूरी तरह से विरोध भी नहीं कर पाएंगे और सरकार के ऊपर निर्भर होकर रह जाएंगे। लोकतंत्र में नागरिकों की जागरूकता ही वास्तविक नागरिक अधिकार और संवैधानिक अधिकार की शक्ति है। इसे बनाए रखने के लिए सभी को सजग रहने की जरूरत है। एसजे/ 2 दिसम्बर /2025