नई दिल्ली,(ईएमएस)। केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में कई सरकारी भवनों और परिसरों के नाम बदलने के फैसले लिए गए, जिसे लेकर अब राजनीतिक और सामाजिक हलकों में सवाल खड़े किए जा रहे हैं। विपक्ष के साथ ही विशेषज्ञ और आलोचक भी कह रहे हैं, कि नाम बदलने से प्रशासनिक कामकाज, पारदर्शिता या जनता के प्रति उत्तरदायित्व में कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं होता। नाम परिवर्तन को लेकर आयोजित एक कार्यक्रम में वक्ता के तौर पर दिनेश केवरा ने कहा, कि नाम बदलने से काम नहीं बदलते, सरकार को चाहिए कि वह इनसे निकले और असली मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है। केवरा ने प्रधानमंत्री आवास का नाम सेवातीर्थ रखे जाने और राजभवनों को लोकभवन नाम देने पर टिप्पणी करते हुए कहा, कि ये बदलाव केवल चमकदार शब्दों की सजावट हैं। उन्होंने आरोप लगाया, वास्तविकता इन नामों से बिल्कुल अलग है, क्योंकि ये भवन आज भी अत्याधिक सुरक्षा, शानो-शौकत और सत्ता के केन्द्रीयकरण के प्रतीक बने हुए हैं, जिनका जनता से जुड़ाव में जमीन-आसमान का अंतर है। उन्होंने कहा कि यदि किसी जगह को लोकभवन कहा जाए, तो वह जनता के लिए खुला, सुलभ और पारदर्शी होना चाहिए, जबकि राजभवन और राष्ट्रपति भवन जैसे भवन अभी भी भव्यता के ऐसे केंद्र हैं जहां आम नागरिक की पहुंच नाम मात्र की भी नहीं है। उन्होंने आगे कहा, इसी तरह से पीएमओ का सेवातीर्थ नाम रखने से वह तीर्थ स्थल नहीं बन जाता, क्योंकि तीर्थ स्थल हमेशा ईश्वर, आध्यात्मिकता और खुलेपन से जुड़े होते हैं। यहां न तो जनता का प्रवेश है और न ही यहां ईश्वर की भावना, सिर्फ आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित सत्ता का केंद्र है। इस दौरान केवरा ने पीएम मोदी की जीवनशैली और चुनाव प्रचार शैली पर भी प्रश्न उठाए। उन्होंने कहा, नाम तो लोक कल्याण मार्ग है, लेकिन जीवनशैली पूर्णतः विलासितापूर्ण है। महंगी गाड़ियां, आधुनिक विमान, हाईटेक परिसर और करोड़ों रुपये खर्च कर निर्मित प्रधानमंत्री निवास इस बात का उदाहरण है, कि सादगी और सेवा केवल भाषणों और नामों में दिखाई देती है, व्यवहार में कतई नहीं। उन्होंने तंज कसते हुए कहा, यदि ऐसे नाम बदल देने से बदलाव आ जाता, तो देश के कई क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और न्याय व्यवस्था वर्षों पहले ही सुधर चुकी होती। उन्होंने कहा, ऐसे भव्य नामों की चमक के पीछे समस्याएं जस की तस खड़ी रहती हैं। उन्होंने कहा, आध्यात्मिक शब्दों का उपयोग राजनीति में केवल छवि निर्माण का साधन बन गए हैं, जिससे वास्तविक मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। इस मामले में राजनीतिक विश्लेषकों का भी यही मानना है, नाम बदलना केवल प्रतीकात्मक राजनीति का हिस्सा है। इससे न सरकारी कामकाज में पारदर्शिता आती है और न ही जनता की समस्याएं ही सुलझ पाती हैं। असल में लोकतांत्रिक व्यवस्था में बदलाव नामों से नहीं बल्कि नीतियों, व्यवहार और जवाबदेही से आता है। यदि व्यवस्था में पारदर्शिता और नागरिकों की भागीदारी नहीं बढ़ती, तो नाम बदलने का कोई व्यावहारिक असर दिखाई नहीं दे सकता है। इसी के साथ केवरा ने कहा, यदि सरकार वास्तव में लोक कल्याण चाहती है, तो उसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, किसानों की समस्याओं और आर्थिक असमानता पर ध्यान देना होगा। उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा, यदि भविष्य में भी सरकार नाम बदलने को ही मुख्य उपलब्धि बताती रही, तो जनता के बीच निराशा और असंतोष बढ़ना तय है। दरअसल देश की जनता अब ऐसे बदलाव चाहती है जो उनके जीवन को बेहतर स्तर पर ले जाए, न कि नामों को बदलने की राजनीति की जाए। हिदायत/ईएमएस 04दिसंबर25