ढाका (ईएमएस)। 32 धानमंडी सिर्फ ईंट-गारे का ढांचा नहीं, बल्कि बांग्लादेश के जन्म, उसके संघर्ष और उसकी त्रासदियों का जीवित दस्तावेज़ रहा है। आपकी इस बात में गहरी सच्चाई है कि दीवारें गिर सकती हैं, पर कहानियां नहीं। जब किसी स्थान के साथ राष्ट्र की अस्मिता और मुक्ति संग्राम की भावनाएं जुड़ी हों, तब उसे भौतिक रूप से नष्ट करने के बाद भी जनमानस से मिटाना असंभव होता है। राजनीतिक बदलाव अक्सर प्रतीकों पर प्रहार करते हैं। 1975 में भी कोशिश हुई और अगस्त 2024 में भी वही मंजर दिखा। लेकिन शेख मुजीबुर्रहमान का नाम बंगबंधु (बंगाल के मित्र) केवल एक राजनीतिक पदवी नहीं, बल्कि उस पहचान से जुड़ा है जिसने 1971 में एक नए राष्ट्र को जन्म दिया। सरकारी रिकॉर्ड में हाउस नंबर 32 को हाउस नंबर 10 कर देना एक प्रशासनिक प्रयास हो सकता है, लेकिन इतिहास के पन्नों में और लोगों की यादों में वह हमेशा धानमंडी 32 ही रहेगा। ठीक वैसे ही जैसे दुनिया के कई ऐतिहासिक स्थलों के नाम बदलने के बावजूद उनकी मूल पहचान ही उनकी साख बनी रहती है। वहां 15 अगस्त 1975 की भयावक रात फिर आई 15 अगस्त 1975 की वह रात, इस रात ने पते को हमेशा के लिए बदल दिया। गोलियों की आवाजें, चीखें, भागते कदम और फिर सन्नाटा। इसी घर में शेख मुजीबुर्रहमान और उनके परिवार के अधिकांश सदस्यों की हत्या की गई। यह सिर्फ एक राजनीतिक हत्या नहीं थी। यह बांग्लादेश की आत्मा पर हमला था। उस रात 32 धानमंडी केवल मकान नहीं रहा, वह शोक बन गया। उसके बाद ताले लगे, खामोशी छाई, और इतिहास को जैसे कोठरी में बंद किया गया। सालों बाद बांग्लादेश में समय बदला। शेख मुजीबुर्रहमान की एकमात्र सलामत बची बेटी शेख हसीना के हाथ देश की सत्ता आई। और यह घर फिर खुल गया। बंगबंधु स्मृति संग्रहालय का रूप लेकर। लोग आए, बच्चों ने किताबों से बाहर इतिहास को अपनी आंखों से देखा। तस्वीरें, दस्तावेज, यादें, सब सहज जाने लगी। लगा कि शायद अब यह घर केवल स्मृति रहेगा, निशाना नहीं। लेकिन राजनीति ने फिर वहीं खींच लिया। 1975 वाला स्याह साया फिर इस पते पर छा गया। शेख हसीना के निर्वासन के बाद 32 धानमंडी एक बार फिर गुस्से का शिकार बना। अगस्त 2024 में भीड़ आई, नारे लगे, पत्थर चले। कहीं आग लगी, कहीं हथौड़े चले। हमलों की हर लहर के साथ दीवारें झुलसीं, खिड़कियां टूटीं, और संग्रहालय की स्मृतियां राख होती गईं। क्या यादें खत्म होंगी? किसी भी राष्ट्र के पिता या संस्थापक की यादें उस देश की नींव में होती हैं। वर्तमान आक्रोश तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों (शेख हसीना सरकार के खिलाफ गुस्सा) का परिणाम हो सकता है, लेकिन दीर्घकालिक रूप से बांग्लादेश का अस्तित्व 1971 की लड़ाई और मुजीब के नेतृत्व के बिना अधूरा है। यह विडंबना ही है कि जो घर कभी आजादी का ड्रॉफ्ट तैयार कर रहा था, वह आज खुद की सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है। संग्रहालय का जलना या टूटना केवल एक पार्टी का नुकसान नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए उस विरासत का नुकसान है जिससे वे अपनी जड़ों को पहचानते थे। इतिहास गवाह है कि खंडहर अक्सर इमारतों से ज्यादा शोर करते हैं। 32 धानमंडी का वर्तमान स्वरूप भले ही उदास करने वाला हो, लेकिन वहां की मिट्टी में दफन कहानियां बांग्लादेश के भविष्य के हर मोड़ पर सुनाई देती रहेंगी। आशीष/ईएमएस 22 दिसंबर 2025