अंतर्राष्ट्रीय
28-Dec-2025
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काठमांडू (ईएमएस)। नेपाल में मार्च 2026 में प्रस्तावित आम चुनावों से पहले राजनीतिक गतिविधियां रफ्तार पकड़ रही हैं। इसी बीच पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और मौजूदा प्रधानमंत्री सुशीला कार्की की हालिया मुलाकात ने सियासी चर्चाओं को और हवा दी है। नेपाल में एक बार फिर राजशाही और हिंदू राष्ट्र को लेकर राजनीतिक बहस तेज हो गई है। हाल ही में दिल्ली में नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई ने कहा कि राजशाही एक “मृत शरीर” है और नेपाल कभी खुद को हिंदू राष्ट्र घोषित नहीं करेगा। उनके अनुसार 1996 से 2006 तक चले माओवादी संघर्ष और लंबे गृहयुद्ध के बाद बने 2015 के संविधान ने नेपाल को एक धर्मनिरपेक्ष, संघीय और गणतांत्रिक राज्य के रूप में स्थायी रूप से परिभाषित कर दिया है। हालांकि जमीनी हकीकत इससे कहीं अधिक जटिल दिखाई देती है। बीते तीन दशकों में नेपाल ने राजनीतिक अस्थिरता, बार-बार सरकारों के पतन, भ्रष्टाचार और कमजोर आर्थिक प्रदर्शन का लंबा दौर देखा है। कोई भी प्रधानमंत्री अपना पूरा कार्यकाल नहीं कर सका। अवसरवादी गठबंधनों और सत्ता-साझेदारी की राजनीति ने आम जनता का भरोसा राजनीतिक दलों से कमजोर किया है। इस असंतोष का सबसे बड़ा असर युवाओं में दिखता है। बेरोजगारी, सीमित अवसर और चरमराती अर्थव्यवस्था के चलते लाखों युवा रोज़गार के लिए विदेश पलायन कर रहे हैं। युवाओं का मानना है कि संघीय ढांचा और समानुपातिक प्रतिनिधित्व जैसी व्यवस्थाएं लोकतांत्रिक भागीदारी बढ़ाने में अपेक्षित परिणाम नहीं दे सकीं, बल्कि एक नए राजनीतिक अभिजात वर्ग को जन्म दे दिया। इसी मोहभंग के बीच हिंदू राष्ट्र और राजशाही समर्थक आवाजें फिर उभर रही हैं। हिंदू राष्ट्र की मांग करने वाले समूहों का तर्क है कि धर्मनिरपेक्षता जनता की व्यापक सहमति के बिना लागू की गई, जिससे नेपाल की पारंपरिक सांस्कृतिक पहचान कमजोर हुई। वहीं राजशाही समर्थक यह दावा करते हैं कि राजतंत्र के दौर में व्यवस्था और अनुशासन बेहतर थे। विशेषज्ञ मानते हैं कि यह समर्थन अतीत के प्रति नोस्टालजिया से अधिक मौजूदा व्यवस्था से उपजी निराशा का परिणाम है। नेपाल आज राजशाही बनाम गणराज्य या हिंदू राष्ट्र बनाम धर्मनिरपेक्षता से अधिक जनता के विश्वास और अविश्वास के बीच खड़ा है। सुदामा नरवरे/28 दिसंबर 2025