ज़रा हटके
20-Mar-2025
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नई दिल्ली (ईएमएस)। क्या आप जानते है कि प्राचीन भारत में लोग स्वच्छता और कपड़ों की सफाई के लिए प्राकृतिक तरीकों पर निर्भर थे। भारत में 1888 में पहली बार आधुनिक साबुन का निर्माण हुआ, जबकि डिटर्जेंट का आगमन 20वीं सदी के मध्य में हुआ। वैदिक काल (1500-500 ईसा पूर्व) में नीम, रीठा, शिकाकाई और हल्दी जैसे प्राकृतिक उत्पादों का उपयोग किया जाता था। विशेष रूप से, रीठा को सुपर सोप माना जाता था। इसके छिलकों से झाग उत्पन्न होता था, जिससे कपड़े ना सिर्फ साफ होते बल्कि चमकदार भी बनते थे। राजघरानों में महंगे रेशमी और मलमल के वस्त्रों को सुरक्षित और स्वच्छ रखने के लिए रीठा के पानी से धोया जाता था। साबुन के अभाव में कपड़ों की धुलाई के कई पारंपरिक तरीके थे। आम लोग कपड़ों को गर्म पानी में उबालकर, फिर पत्थरों पर पीटकर साफ करते थे। धोबी समुदाय विशेष रूप से इस काम में निपुण था। बड़े धोबी घाटों में कपड़े धोने की यह पद्धति आज भी देखी जा सकती है। इसके अलावा, ‘रेह’ नामक सफेद खनिज युक्त मिट्टी का भी उपयोग होता था, जो सोडियम सल्फेट, मैग्नीशियम सल्फेट और कैल्शियम सल्फेट से भरपूर थी। यह कपड़ों को न केवल साफ करती थी बल्कि उन्हें कीटाणुमुक्त भी बनाती थी। मिट्टी और राख का भी सफाई में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता था। राख से बर्तन मांजने और शरीर की सफाई करने की परंपरा सदियों तक प्रचलित रही। जैसे-जैसे समय बदला, औद्योगिक क्रांति के बाद डिटर्जेंट और साबुन का प्रचलन बढ़ा। भारत में पहला आधुनिक साबुन ब्रिटिश कंपनी लीवर ब्रदर्स (अब यूनिलीवर) ने बनाया, जबकि 1918 में टाटा ऑयल मिल्स और गोदरेज जैसी भारतीय कंपनियों ने भी इस क्षेत्र में कदम रखा। 1960 के दशक में हिंदुस्तान लीवर ने सर्फ डिटर्जेंट लॉन्च किया, जिसने कपड़े धोने की प्रक्रिया को और सरल बना दिया। सुदामा/ईएमएस 20 मार्च 2025