(सुरक्षा में सेंध: खुफिया एजेंसियों की नाकामी) इंट्रो- हरियाणा के कई जिलों में संदिग्ध व्यक्तियों ने पाकिस्तान जाकर महीनों बिताए, सोशल मीडिया पर तस्वीरें साझा कीं, फिर भी भारतीय खुफिया एजेंसियों को भनक तक नहीं लगी। ज्योति और तारिफ जैसे लोग फर्जी पहचान से पासपोर्ट बनवाकर सीमा पार पहुंचे, पाकिस्तानी अधिकारियों से मिले, और बेधड़क लौट आए। यह मामला न सिर्फ इंटेलिजेंस विफलता को उजागर करता है, बल्कि हमारे साइबर निगरानी तंत्र और पासपोर्ट वेरिफिकेशन की कमजोरी को भी सामने लाता है। जब सोशल मीडिया पर जासूसी खुलेआम हो रही हो, तब खामोश एजेंसियाँ देश की सुरक्षा को संकट में डाल रही हैं। आज जब भारत चंद्रयान-3 की सफलताओं, डिजिटल इंडिया की उड़ानों और वैश्विक मंच पर आत्मविश्वास के साथ खड़ा है, तब एक छोटी सी खबर राष्ट्रीय सुरक्षा की नींव हिला देने वाली बन जाती है। अमर उजाला की रिपोर्ट के अनुसार, हरियाणा के अलग-अलग जिलों में संदिग्ध जासूसी गतिविधियाँ होती रहीं, संदिग्ध व्यक्ति पाकिस्तान भी गए, महीनों तक वहां रहे, सोशल मीडिया पर तस्वीरें साझा कीं—पर खुफिया एजेंसियों को भनक तक नहीं लगी। अगर यह खतरनाक लापरवाही नहीं तो और क्या है? जासूसी की कहानी या एजेंसियों की नींद? चंडीगढ़, अंबाला, हिसार, यमुनानगर और पंचकूला जैसे संवेदनशील जिलों में संदिग्ध लोगों की गतिविधियाँ चलती रहीं। ज्योति और तारिफ जैसे व्यक्तियों के पास तीन-तीन नाम थे, वे पाकिस्तान गए, सोशल मीडिया पर तस्वीरें डालते रहे, वहां के अधिकारियों से मिले, लेकिन भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की नींद नहीं टूटी। यह सिर्फ एक केस नहीं, यह उस सिस्टम पर सवाल है जो कागज़ों में तो मजबूत दिखता है लेकिन जमीनी हकीकत में खामोश रहता है। क्या यह माना जाए कि आज सोशल मीडिया के दौर में भी हमारी एजेंसियाँ उन गतिविधियों को पकड़ नहीं पातीं जो खुल्लमखुल्ला हो रही हैं? क्या सिर्फ पासपोर्ट वीज़ा की जांच पर्याप्त है? और अगर ये लोग सीमा पार गए, पाकिस्तान में पार्टी की, अधिकारियों से मिले और फिर बेधड़क लौट आए, तो यह घटना इंटेलिजेंस की असफलता नहीं तो क्या है? सोशल मीडिया बनाम सुरक्षा आज ज्योति जैसी महिला पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से लेकर मुर्री हिल स्टेशन तक की तस्वीरें इंस्टाग्राम पर पोस्ट करती रही। उसके पोस्ट पर पाकिस्तानी हैंडल से तारीफें आती रहीं। क्या किसी खुफिया एजेंसी ने एक बार भी उसका साइबर प्रोफाइल देखा? क्या अब सोशल मीडिया खुफिया जानकारी का स्रोत नहीं रहा? जिस युग में हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, बिग डेटा और facial recognition की बात करते हैं, उसी युग में एक संदिग्ध महीनों तक पाकिस्तान में रहकर तस्वीरें डालती है और एजेंसियों को पता नहीं चलता, तो यह उस “साइबर सुरक्षा” के दावों की पोल खोल देता है। जासूसी की परंपरा और वर्तमान खतरे जासूसी कोई नई चीज नहीं है। यह तो हमेशा से राष्ट्रों के बीच छाया युद्ध का हिस्सा रही है। लेकिन आज जब टेक्नोलॉजी इतनी उन्नत हो चुकी है कि एक मोबाइल लोकेशन से भी सारा इतिहास खोजा जा सकता है, तब किसी संदिग्ध का पाकिस्तान जाना, वहां रुकना, अधिकारियों से मिलना और फिर भारत लौट आना—यह दर्शाता है कि हमारी आंतरिक निगरानी प्रणाली में गंभीर खामियाँ हैं। पाकिस्तान जैसे देश के संदर्भ में, जहाँ से आतंकवाद और खुफिया नेटवर्क चलाए जाते हैं, वहाँ किसी भी भारतीय नागरिक की उपस्थिति तत्काल संदेह का विषय होनी चाहिए। यदि ज्योति, तारिफ और उनके जैसे लोग बिना निगरानी के वहां रहे और लौटे, तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरे की घंटी है। एजेंसियों का भरोसा या बहाना? रिपोर्ट कहती है कि इंटेलिजेंस फेल्योर नहीं, सबका आने-जाने की आज़ादी है। लेकिन यह तर्क उस समय खोखला लगता है जब वही आज़ादी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन जाए। हां, भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जहां नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता है, लेकिन जब यह स्वतंत्रता देशद्रोही ताकतों के हाथों में हथियार बन जाए, तब सिस्टम को आंखें मूंदकर सोना नहीं चाहिए। ये वही सिस्टम है जो आम नागरिक को छोटी सी गलती पर देशद्रोह के तहत जेल में डाल देता है, लेकिन वहीं कोई महीनों तक पाकिस्तान जाकर लौट आए तो उसे पकड़ना मुश्किल है जैसे बयान दिए जाते हैं। क्या यह दोहरा मापदंड नहीं? स्थानीय एजेंसियों की भूमिका हरियाणा जैसे राज्य में, जहां सेना में भर्ती के लिए लाखों युवा लाइन में खड़े रहते हैं, वहीं अगर वहीं की जमीन पर जासूसी के लिए संदिग्ध घूमते रहें, तो स्थानीय पुलिस और खुफिया तंत्र की क्या भूमिका रही? क्या थानों को सूचनाएं नहीं मिलीं? क्या पासपोर्ट की वेरिफिकेशन प्रक्रिया में कोई लापरवाही नहीं हुई? गौरतलब है कि ये संदिग्ध दिल्ली, काशी, असम और हरियाणा के विभिन्न हिस्सों में ठहरे। रिपोर्ट में उल्लेख है कि ज्योति ने वाराणसी में 12 काशी बनाए थे यानी फर्जी पहचान पत्रों और दस्तावेज़ों की पूरी श्रृंखला। यह दिखाता है कि ये कोई सामान्य पर्यटक नहीं, बल्कि एक संगठित नेटवर्क के हिस्से थे। राजनीतिक चुप्पी और मीडिया की मौनता जब भी किसी एक्टर या क्रिकेटर की निजी ज़िंदगी पर कोई खबर आती है, तो मीडिया दिन-रात उसी पर बहस करता है। लेकिन जब मामला देश की सुरक्षा से जुड़ा हो, तब वही मीडिया प्रेस रिलीज़ के भरोसे रहता है। न कोई डिबेट, न कोई रिपोर्टिंग, न कोई संसदीय प्रश्न। राजनीतिक दलों की बात करें तो सत्ता और विपक्ष दोनों इस पर खामोश हैं। ना गृहमंत्री कोई बयान देते हैं, ना संसद में कोई चर्चा होती है। क्या यह चुप्पी इस बात का संकेत नहीं कि या तो उन्हें खुद समझ नहीं, या वे अपनी एजेंसियों की नाकामी छिपा रहे हैं? समाधान की दिशा में क्या करें? 1. साइबर इंटेलिजेंस को मजबूत करें – सोशल मीडिया पर साझा की गई गतिविधियों पर निगरानी के लिए समर्पित टीमें बनाई जाएं। 2. आंतरिक निगरानी तंत्र का विकेंद्रीकरण – हर जिले में स्थानीय इंटेलिजेंस टीम हो जो संदिग्धों की पहचान और ट्रैकिंग करे। 3. फर्जी पहचान की जांच के लिए राष्ट्रीय रजिस्ट्री – Aadhar, PAN, Passport जैसे दस्तावेज़ों की एकीकृत जांच प्रणाली विकसित की जाए। 4. राजनीतिक जवाबदेही तय हो – अगर सुरक्षा चूक होती है, तो जवाबदेह अफसरों पर कार्यवाही हो। 5. मीडिया की भूमिका – राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर मीडिया को निष्पक्ष, सक्रिय और खोजी रुख अपनाना चाहिए। कब जागेगा सिस्टम? जासूसी होती रही, एजेंसियां सोती रहीं—यह वाक्य केवल एक खबर नहीं, बल्कि हमारे सिस्टम की नींव पर तमाचा है। यह हमें याद दिलाता है कि कितनी भी तकनीक आ जाए, जब तक इरादा और निगरानी नहीं होगी, तब तक देश की सुरक्षा कागज़ों तक ही सीमित रहेगी। हमें न केवल खुफिया एजेंसियों की जवाबदेही तय करनी होगी, बल्कि नागरिकों को भी जागरूक बनाना होगा कि आज की दुनिया में सुरक्षा केवल फौजों से नहीं, बल्कि सतर्क नागरिकों से भी सुनिश्चित होती है। जागिए, क्योंकि जासूस सोते नहीं। (रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार) (यह लेखिका के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 22 मई /2025