लेख
27-Jul-2025
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भारत की ग्रामीण आबादी लगभग 65% है और यह आँकड़ा न केवल जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि भारत के भविष्य की नींव भी है। 2020 के बाद जब कोरोना महामारी ने दुनिया को घरों में कैद कर दिया, तब भारत की शिक्षा व्यवस्था के सामने असाधारण चुनौती आ खड़ी हुई। एक ओर जहाँ महानगरों में डिजिटल तकनीक के सहारे पढ़ाई जारी रही, वहीं दूसरी ओर देश के लाखों गाँवों में स्कूलों के बंद होने से शिक्षा लगभग ठहर-सी गई। यह विरोधाभास ही आज के इस बहस का मूल है — क्या डिजिटल शिक्षा ग्रामीण भारत के लिए वरदान है या फिर पारंपरिक शिक्षा की उपेक्षा का एक नया रूप? भारतीय ग्रामीण समाज में शिक्षा केवल किताबी ज्ञान नहीं होती — वह जीवन मूल्य, सामाजिक व्यवहार, परंपरा और व्यावहारिक समझ का भी आदान-प्रदान होती है। गाँवों की पाठशालाओं में जो गुरुकुल जैसी आत्मीयता थी, वह स्क्रीन के पार के शिक्षक में नहीं पाई जाती। फिर भी, डिजिटल शिक्षा ने कई संभावनाओं के नए द्वार खोले हैं। इंटरनेट के माध्यम से अब गाँवों के छात्र भी उन्हीं व्याख्याताओं की कक्षाएँ सुन पा रहे हैं, जो कभी केवल शहरी छात्रों के लिए आरक्षित माने जाते थे। लेकिन इस स्वर्णिम अवसर के बीच अनेक अंधेरे गलियारे भी हैं, जिनका सामना विशेष रूप से ग्रामीण भारत को करना पड़ रहा है। पारंपरिक शिक्षा की आत्मा और ग्रामीण भारत की वास्तविकता : गाँवों की पाठशालाओं में भले ही डिजिटल स्क्रीन न हों, पर वहाँ शिक्षक और छात्रों के बीच जो आत्मीय संवाद होता है, वह मनोवैज्ञानिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण है। पारंपरिक शिक्षा में शिक्षक बच्चों की पारिवारिक, आर्थिक और मानसिक स्थितियों को जानते हैं, समझते हैं और उसी अनुरूप शिक्षा देने की कोशिश करते हैं। ये शिक्षक बच्चों के माता-पिता, ग्राम पंचायत और समुदाय के साथ मिलकर एक ऐसी शैक्षिक संस्कृति गढ़ते हैं, जो न केवल पुस्तकीय ज्ञान देती है, बल्कि लोकजीवन की समझ भी विकसित करती है। पारंपरिक शिक्षा में ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ का स्वरूप भले बदल गया हो, लेकिन उसका मूल भाव अब भी गाँवों में जीवित है। वहाँ शिक्षक केवल पाठ पढ़ाने वाला नहीं होता, बल्कि वह सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने वाला मार्गदर्शक भी होता है। गाँवों में आज भी छात्रों के स्कूल न आने पर शिक्षक उनके घर जाकर पूछते हैं, परिवारों से संवाद करते हैं। यह समर्पण डिजिटल शिक्षा में संभव नहीं। इसके अतिरिक्त, ग्रामीण भारत में स्कूल शिक्षा केवल औपचारिक ज्ञान का साधन नहीं, बल्कि बच्चों के सामाजिकरण का भी केंद्र है। बच्चे स्कूल में साथ बैठकर खाना खाते हैं, खेलते हैं, संस्कार सीखते हैं — ये सब मिलकर उन्हें एक अच्छा नागरिक बनाते हैं। क्या डिजिटल शिक्षा इस समग्र विकास का विकल्प बन सकती है? डिजिटल शिक्षा की क्रांति : वर्चुअल क्लास से गाँव की क्लास तक : बिना किसी संदेह के, डिजिटल शिक्षा ने शिक्षा की पहुँच को अभूतपूर्व रूप से विस्तारित किया है। वर्ष 2021 में भारत में 1.2 बिलियन मोबाइल कनेक्शन और लगभग 850 मिलियन इंटरनेट उपयोगकर्ता थे — जिनमें बड़ी संख्या ग्रामीण क्षेत्र से जुड़ी हुई है। भारत सरकार की “डिजिटल इंडिया”, “ई-विद्या”, “स्वयं”, “दीक्षा” जैसी पहलें ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा को सुलभ और सस्ता बनाने की दिशा में प्रयासरत हैं। आज अनेक ग्रामीण छात्र यूट्यूब, बायजूस, खान अकादमी और अनएकेडमी जैसे प्लेटफॉर्म के माध्यम से आईआईटी, नीट, यूपीएससी जैसी कठिन परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं — और सफल भी हो रहे हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि डिजिटल शिक्षा में अवसर हैं, गति है, नवाचार है। एक क्लिक पर पाठ्यपुस्तकें, वीडियो व्याख्यान, क्विज़, ई-लर्निंग एप्लिकेशन — सब उपलब्ध हैं। लेकिन इस चमकती हुई तस्वीर के पीछे एक कठोर सच्चाई भी है — ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल शिक्षा के लिए जो आधारभूत ढांचा चाहिए, वह अभी भी अधूरा है। बिजली की अनियमितता, इंटरनेट कनेक्टिविटी की समस्या, स्मार्टफोन या टैबलेट की अनुपलब्धता जैसे कई अवरोध हैं। इसके अलावा, डिजिटल साक्षरता की कमी और माता-पिता की तकनीकी जानकारी का अभाव भी डिजिटल शिक्षा को सीमित कर देता है। अंतर की खाई : जो आगे बढ़े और जो पीछे छूटे : शहरी और ग्रामीण भारत के बीच पहले से ही शैक्षिक असमानता मौजूद थी, पर डिजिटल शिक्षा ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया है। जहाँ शहरों में बच्चों के पास हाई-स्पीड इंटरनेट, लैपटॉप, वर्चुअल ट्यूटर और अभिभावकों का सहयोग है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों को कई किलोमीटर दूर तक नेटवर्क ढूँढ़ने जाना पड़ता है, मोबाइल साझा करना पड़ता है या शिक्षा को पूरी तरह छोड़ देना पड़ता है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) की 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 60% छात्र डिजिटल शिक्षा तक नियमित पहुँच नहीं बना पा रहे हैं। यह आँकड़ा सिर्फ तकनीकी कमी को ही नहीं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक विषमताओं को भी उजागर करता है। बहुत से परिवारों के पास एक ही मोबाइल होता है, जिसे माँ-बाप अपने काम के लिए उपयोग करते हैं और बच्चा केवल सीमित समय में पढ़ाई कर पाता है। इसके विपरीत, पारंपरिक शिक्षा में स्कूल जाना, शिक्षकों से मिलना, कक्षा में बैठकर पढ़ना — ये सभी गतिविधियाँ सीखने की निरंतरता बनाए रखती हैं। डिजिटल शिक्षा में यह निरंतरता तब टूट जाती है जब बिजली न हो, मोबाइल चार्ज न हो या नेटवर्क डाउन हो। ऐसे में एक बड़े वर्ग के लिए यह शिक्षा अधूरी, अपूर्ण और असंगत साबित होती है। समाधान की तलाश : संतुलन और समावेशिता की ओर : आज भारत को आवश्यकता है एक ऐसे समग्र, संतुलित और समावेशी शैक्षिक दृष्टिकोण की जो न केवल तकनीकी विकास को अपनाए, बल्कि ग्रामीण समाज की सांस्कृतिक और व्यावहारिक वास्तविकताओं को भी सम्मान दे। डिजिटल शिक्षा को ग्रामीण भारत में सफलतापूर्वक लागू करने के लिए सबसे पहला कदम अवसंरचना (infrastructure) को सुदृढ़ करना है। जब तक प्रत्येक गाँव में सुचारु बिजली आपूर्ति, हाई-स्पीड इंटरनेट कनेक्टिविटी, सस्ते और टिकाऊ डिजिटल उपकरणों की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं होगी, तब तक डिजिटल शिक्षा केवल एक ‘नगरीय कल्पना’ बनी रहेगी। ग्रामीण छात्रों के लिए टैबलेट या स्मार्टफोन खरीदना एक बड़ी आर्थिक चुनौती है; इसलिए सरकार को चाहिए कि वह ज़रूरतमंद छात्रों को शैक्षिक उपकरणों की अनुदान-आधारित व्यवस्था दे — जैसे मध्याह्न भोजन योजना की तरह एक “डिजिटल लर्निंग पैकेज” प्रदान करना। इसके अतिरिक्त, केवल उपकरण देना पर्याप्त नहीं है। डिजिटल साक्षरता — यानी तकनीक का उपयोग करने का प्रशिक्षण — भी उतना ही ज़रूरी है। माता-पिता, शिक्षक और विद्यार्थी — तीनों के लिए डिजिटलीकरण को अपनाना आसान नहीं होता, विशेषकर जब तकनीक उनके जीवन में एकदम नई हो। इस चुनौती का समाधान स्थानीय स्तर पर ‘डिजिटल शिक्षा सहायकों’ की नियुक्ति हो सकता है, जो ग्रामीण विद्यालयों और समुदायों में जाकर लोगों को तकनीक के व्यावहारिक प्रयोग सिखाएं। ग्राम पंचायतों और महिला स्व-सहायता समूहों को भी इसमें जोड़ा जा सकता है ताकि डिजिटल साक्षरता एक सामाजिक अभियान बन जाए, न कि केवल सरकारी घोषणा। नीति-निर्माण में ग्रामीण दृष्टिकोण की अनिवार्यता : भारत में शिक्षा नीति अकसर शहरी संदर्भों में निर्मित होती है और बाद में उसे पूरे देश में लागू कर दिया जाता है, जबकि ग्रामीण भारत की अपनी विशिष्ट आवश्यकताएँ हैं। नई शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020) में डिजिटल शिक्षा को बढ़ावा देने की बात तो की गई है, पर इसकी व्यावहारिक सफलता ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में तब तक नहीं आ सकती जब तक नीति निर्माण के दौरान ग्राम्य समाज, स्थानीय स्कूल व्यवस्थाएं, क्षेत्रीय भाषाएँ और सांस्कृतिक मान्यताएं सम्मिलित न हों। एकरूपता की बजाय विविधता को स्वीकार करना इस दिशा में एक निर्णायक कदम होगा। सरकार को चाहिए कि वह शिक्षा योजनाओं को ‘डिजिटल + स्थानीय’ मॉडल के रूप में लागू करे, जिसमें शैक्षिक ऐप्स और वीडियो स्थानीय भाषाओं में हों, क्षेत्रीय संदर्भों पर आधारित सामग्री हो और शिक्षकों को तकनीकी प्रशिक्षण के साथ-साथ स्थानीय सामाजिक स्थिति को समझने का निर्देश भी मिले। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएं जो उन्हें हाइब्रिड शिक्षण पद्धति अपनाने में सक्षम बनाएं — जहाँ वे आवश्यकता अनुसार कभी डिजिटल माध्यम से तो कभी पारंपरिक पद्धति से पढ़ा सकें। मिश्रित (हाइब्रिड) मॉडल : भविष्य की दिशा : वास्तविकता यह है कि न तो डिजिटल शिक्षा पूरी तरह पारंपरिक शिक्षा का विकल्प बन सकती है और न ही पारंपरिक शिक्षा अकेले आज की जटिल आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है। समाधान मिश्रित मॉडल में है, जिसमें डिजिटल संसाधनों का उपयोग पारंपरिक कक्षा शिक्षण के पूरक के रूप में किया जाए। उदाहरण के लिए, गाँवों के प्राथमिक स्कूलों में यदि सप्ताह में दो दिन ऑनलाइन वीडियो व्याख्यान चलाए जाएं और शेष दिन सीधे शिक्षक शिक्षण करें, तो छात्रों को दोनों तरीकों का लाभ मिल सकता है। इस मिश्रित मॉडल का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि शिक्षक तकनीकी उपकरणों का उपयोग करके अपनी शिक्षण शैली को समृद्ध बना सकेंगे और साथ ही बच्चों की भावनात्मक व सामाजिक आवश्यकताओं को भी संबोधित कर पाएंगे। डिजिटल कंटेंट से विद्यार्थी रोचक तरीके से विषयों को समझ सकेंगे और पारंपरिक कक्षा में वे उन विषयों पर शिक्षक से चर्चा कर सकेंगे। यह मॉडल विशेष रूप से ग्रामीण भारत में प्रभावी हो सकता है, जहाँ संसाधनों की कमी को तकनीक के माध्यम से पूरा किया जा सकता है, पर सामाजिक बंधन और व्यक्तिगत मार्गदर्शन की आवश्यकता अब भी अत्यधिक है। सामाजिक चेतना और समुदाय की भूमिका : डिजिटल शिक्षा की सफलता केवल सरकारों या स्कूलों की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए; समाज की सामूहिक भागीदारी भी उतनी ही जरूरी है। गाँवों में डिजिटल शिक्षा को जनांदोलन बनाने के लिए स्थानीय स्वयंसेवी संगठन, किसान समूह, युवा मंडल और महिला मंडल महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। यदि प्रत्येक गाँव में एक ‘शैक्षिक केंद्र’ स्थापित किया जाए, जहाँ बच्चे शाम को आकर इंटरनेट का उपयोग कर सकें, वीडियो व्याख्यान देख सकें और अपने संदेहों को सुलझा सकें — तो यह एक बड़ा परिवर्तन ला सकता है। इसके साथ ही, हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि शिक्षा का अंतिम उद्देश्य केवल नौकरी पाने लायक बनाना नहीं है, बल्कि एक समझदार, नैतिक और संवेदनशील नागरिक बनाना है। यह उद्देश्य तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक शिक्षा केवल एकपक्षीय डिजिटल उपभोग बनी रहे। ग्रामीण समाज में शिक्षा तब ही सार्थक होगी जब उसमें सामूहिकता, संवाद, व्यावहारिक ज्ञान और स्थानीय मूल्य भी सम्मिलित होंगे। डिजिटल शिक्षा इन मूल्यों को जोड़ने के लिए तभी सक्षम हो पाएगी जब वह ‘आत्मा के साथ तकनीक’ को अपनाए। भारत जैसे देश में, जहाँ परंपरा और नवाचार दोनों साथ-साथ चलते हैं, वहाँ डिजिटल और पारंपरिक शिक्षा के बीच टकराव नहीं, बल्कि सहयोग की आवश्यकता है। ग्रामीण भारत की शिक्षा को इस तरह ढालना होगा कि वह तकनीकी बदलावों से वंचित न रहे और साथ ही अपनी ज़मीन, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति से भी न कटे। तकनीक को शिक्षक का विकल्प नहीं, सहयोगी बनाना होगा। यदि आज हम सही नीतियाँ, मजबूत ढाँचा, सामाजिक भागीदारी और संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाएं, तो डिजिटल शिक्षा न केवल गाँवों में शिक्षा की पहुँच को बढ़ा सकती है, बल्कि एक ऐसे भारत का निर्माण कर सकती है जो ज्ञान में भी समृद्ध हो और मूल्यों में भी। शिक्षा का भविष्य न तो केवल किताबों में है और न ही केवल स्क्रीन पर — वह तो दोनों के बीच पुल बनाने में है। (लेखक गृह मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा राजभाषा गौरव पुरस्कार से सम्मानित एवं वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह) ईएमएस/27/07/2025