लेख
01-Aug-2025
...


मालेगांव ब्लास्ट मामले पर न्यायालय का जो फैसला आया है। उसने भारतीय जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली, न्यायाधीशों के निर्णय, न्यायिक व्यवस्था की निष्पक्षता पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं। 2006 और 2008 के दो बड़े धमाकों में महाराष्ट्र में हुए जिसमें सैकड़ों निर्दोष मारे गए और घायल हुए। करीब दो दशक की जांच और न्यायालय की 17 साल की कार्यवाही और सुनवाई के बाद नतीजा आरोपियों की रिहाई के रूप में सामने आया है। इस फैसले के बाद सवाल उठता है। घटना के लिए जिम्मेदार अपराधियों को जांच एजेंसियां क्यों नहीं खोज पाई। यह स्थिति न केवल पीड़ितों के न्याय की आशाओं को तोड़ती है। बल्कि जांच एजेंसियों की जांच और उनके कार्य प्रणाली की साख के लिए गहरा आघात है। 2006 में पहले मुस्लिम युवकों को आतंकवादी बताकर जेल भेजा गया। 2008 में साध्वी प्रज्ञा, लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित और अन्य पर उग्र हिंदुत्व की साजिश के आरोप में आरोपियों को जेल भेजा। दोनों ही मामलों में एटीएस और बाद में एएनआई जाँच एजेंसी की जांच के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला। दोनों जांच एजेंसियां सबूत और जांच के मामले में न्यायालय में असफल साबित हुई। अदालतों के फैसले मे साफ कहा गया अभियोजन पक्ष ठोस सबूत नहीं दे पाया। सवाल उठता है, क्या यह महज जांच एजेंसियों की पेशेवर विफलता थी या जानबूझकर समय-समय पर राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण जांच को कमजोर किया गया है? इस मामले की जाँच पहले महाराष्ट्र एटीएस ने जांच की थी। उसने मामला न्यायालय में प्रस्तुत किया था। आरोपियों को गिरफ्तार किया था। समय-समय पर न्यायालय मामले की सुनवाई करती रही। इसी बीच केंद्र और राज्य में सत्ता बदली। उसके बाद राजनीतिक समीकरण बदल गए। जब मामला न्यायालय में चल रहा था, तब इसकी जांच एनआईए को दी गई। उसके बाद से ही राजनीतिक संरक्षण के आरोप लगने लगे। मुख्य आरोपी साध्वी प्रज्ञा भाजपा की सांसद बन गईं। इसके बाद से ही जाँच एजेन्सी एवं न्यायालयीन प्रक्रिया संदेह के घेरे में आ गई है। पूर्व विशेष लोक अभियोजक रोहिणी सालियान का यह बयान कि एनआईए ने दबाव डालकर रुख नरम करने को कहा, यह संकेत देता है। जांच की निष्पक्षता राजनीति की बलि चढ़ गई। इसका असर न्यायालय की सुनवाई पर पड़ा। देश की शीर्ष जाँच एजेंसियां यदि राजनीति के प्रभाव पर आकर काम करने लगें। तो अपराधियों को पकड़ पाना और उन्हें सजा दिला पाना बहुत मुश्किल है। लोकतंत्र की सबसे बड़ी नींव संविधान लोकतंत्र और न्यायपालिका का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा। इस पूरी प्रक्रिया में अदालतों की भूमिका भी आलोचना से अछूती नहीं रही। यदि जांच में त्रुटियाँ थीं, 20 साल में न्यायालय के सामने कई बार यह मामला पेश हुआ आरोपी गिरफ्तार रहे, उनकी जमानत के आवेदन लगते रहे, जांच एजेंसियां समय पर जांच में क्या मिला है। इससे न्यायालय को अवगत कराती रही। इसके बाद भी न्यायपालिका की भूमिका यदि तमासबीन की तरह रही है। ऐसी स्थिति पर लोग न्यायालय पर कैसे विश्वास करेंगे। न्यायालय ने अपने फैसले में संबंधित अधिकारियों को जवाबदेह क्यों नहीं ठहराया ? क्या अदालतें आरोपियों को बरी करने तक सीमित रहेंगी। न्यायालय 17 साल की जिम्मेदारी से कैसे मुक्त हो सकती है। इस पर भी सवालिया निशान लग रहे हैं। न्यायपालिका को संस्थागत आत्ममंथन करने की जरूरत है। जांच एजेंसियों की स्वतंत्रता, पेशेवर दक्षता और जवाबदेही तय करने की जिम्मेदारी न्यायपालिका पर है। जांच एजेंसियां यदि राजनीतिक प्रभाव में काम कर रही थी। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना चाहिए था। एटीएस जांच के बाद जब एनआईए का प्रवेश हुआ था। पहले की जांच और बात की जांच को लेकर भी न्यायालय ने अपने फैसले में ऐसा कुछ नहीं लिखा। जिससे जाँच अधिकारियों की भूमिका तय हो सके। न्यायालयों को केवल फैसले सुनाने तक सीमित नही रहना चाहिए। सबूत गवाह और विफल जांच पर न्यायालय को दोषी अधिकारियों को दंडित करने का भी काम करना होगा। ताकि वह जिम्मेदारी के साथ अपनी जांच को आगे बढ़ा पाएं। राजनीतिक एवं प्रशासनिक हस्तक्षेप से दूर रहते हुए निष्पक्षता के साथ जांच कार्य करें। महाराष्ट्र की 2 न्यायलयों के फैसलों से 2 विस्फोट में सेकड़ों निर्दोष लोगों की मौत हुई थी। उन अपराधियों को जाँच एजेंसी ओर सरकारें दंडित कराने मे असफल साबित हुई हैं। न्यायालय को अपने फैसले में जाँच एजेन्सी की जिम्मेदारी भी तय करनी चाहिए थी। यदि ऐसा ही चलता रहा तो लोगों का भारतीय संविधान लोकतंत्र कानून व्यवस्था एवं सरकारों के ऊपर से भरोसा उठ जाएगा। कानून के राज को बनाए रखने की जिम्मेदारी अंतिम रूप से न्यायपालिका की है। न्यायपालिका को संरचनात्मक सुधार के लिए पहल करनी चाहिए। वरना, वर्तमान स्थिति को देखते हुए न्याय सपना बनकर रह जाएगा। ईएमएस / 01 अगस्त 25