1855 में जब सिदो-कान्हू, चांद-भैरव, और फुलो-झानो ने ‘दामिन-ए-कोह’ की धरती पर अंग्रेज़ी राज, महाजनों और जमींदारों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका, तो वह सिर्फ हथियारबंद विद्रोह नहीं था, वह एक नई शासन व्यवस्था की माँग थी—जिसमें आदिवासी समाज अपने तरीके से जी सके, अपने नियम बना सके और अपनी ज़मीन, जंगल और संस्कृति की रक्षा कर सके। इसी विचार की एक और कड़ी शिबू सोरेन की चेतना में दिखाई देती थी। शिबू सोरेन का प्रारंभिक संघर्ष भी बिल्कुल वैसा ही था जैसा संथाल विद्रोह का — महाजनों के खिलाफ, ज़मींदारों के शोषण के खिलाफ, और पुलिसिया अत्याचारों के विरुद्ध। उन्होंने ‘धान काटो आंदोलन’, जंगल में समाज सुधार सभाएं, शराबबंदी अभियान, बाल विवाह विरोधी आंदोलन जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम चलाए। शुरुआत में उनका आंदोलन उग्र था — हिंसा भी हुई, पुलिस से टकराव हुआ। लेकिन फिर के.बी. सक्सेना जैसे अधिकारियों के हस्तक्षेप और शिबू सोरेन की वैचारिक परिपक्वता के कारण यह आंदोलन लोकतांत्रिक दिशा में मुड़ा। जहाँ संथाल विद्रोह में राजा की जगह आदिवासी ग्राम प्रमुख की कल्पना थी, वहीं शिबू सोरेन के आंदोलन में भी गांवों की संप्रभुता की मांग थी। जहाँ संथाल विद्रोह में हूल था, वहाँ शिबू सोरेन के आंदोलन में हुंकार थी—लेकिन उद्देश्य एक था-हम अपनी ज़मीन, जंगल और आत्मा पर किसी बाहरी सत्ता को स्वीकार नहीं करेंगे। शिबू सोरेन सिर्फ एक नेता नहीं हैं, वे उस क्रांति का नाम हैं, जो ज़मीन की गंध से उठी थी और संसद तक पहुंची। जब भारत की राजनीति में हाशिए पर खड़े समुदायों की बात होती है, तो झारखंड के आदिवासियों की पीड़ा और प्रतिरोध की गाथा में एक नाम सबसे पहले उभरता है—शिबू सोरेन। वे सिर्फ एक राजनेता नहीं, बल्कि झारखंड के जनांदोलन के प्रतीक हैं। उनका जीवन, उनके विचार और उनके संघर्ष आदिवासी अस्मिता, जमीन, जंगल और जल की रक्षा के लिए खड़े हुए उस विराट आंदोलन का हिस्सा है, जिसने एक राज्य को जन्म दिया और हाशिए पर खड़े लोगों को आवाज़ दी। एक समय नक्सली, फिर जन नेता शिबू सोरेन का शुरुआती जीवन एक तरह से विद्रोही राजनीति की गोद में पला। उन्होंने जमींदारी, महाजनी और बाहरी तत्वों के खिलाफ आवाज़ बुलंद की। उन्होंने आदिवासी किसानों को इकट्ठा कर धनकुबेरों की जमीनों पर हल चलाने की मुहिम शुरू की। यह आंदोलन कई बार हिंसक भी हुआ। सरकारी दस्तावेज़ों में उनका नाम खतरनाक तत्वों की सूची में आ गया। पुलिस उन्हें पकड़ नहीं पा रही थी, लेकिन जनता उन्हें गुरुजी के नाम से जानने लगी थी। कई दस्तावेज बताते हैं कि वे नक्सलपंथी विचारधारा की ओर आकर्षित थे। लेकिन तभी उनकी मुलाकात हुई—के.बी. सक्सेना जैसे ईमानदार और संवेदनशील नौकरशाह से, जो उस वक्त बिहार सरकार में पदस्थ थे और बाद में भारत सरकार में सचिव बने। सक्सेना ने शिबू से कहा—तुम्हारी लड़ाई सही है, लेकिन रास्ता गलत है। अगर तुम्हें वाकई अपने लोगों को न्याय दिलाना है, तो बंदूक नहीं, संसद का रास्ता अपनाओ। यह सलाह शिबू के जीवन का मोड़ बनी। उन्होंने आत्मनिरीक्षण किया और फैसला किया कि वे बंदूक की जगह वोट की ताकत से लड़ाई लड़ेंगे। हूल बनाम हुंकार: दो युग, एक चेतना जब भारत के आदिवासी आंदोलनों का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसमें दो प्रमुख मोड़ हमेशा उभर कर सामने आएंगे,पहला, 1855 का संथाल विद्रोह और दूसरा, 1970–2000 के झारखंड आंदोलन का उत्कर्ष, जिसका नेतृत्व शिबू सोरेन ने किया। इन दोनों संघर्षों के समय, परिप्रेक्ष्य और रणनीतियाँ भिन्न हो सकती हैं लेकिन मूल चेतना, उद्देश्य और अस्मिता की रक्षा की भावना एक ही थी। संथाल हूल तत्कालीन ब्रिटिश राज, महाजनी शोषण और ज़मींदारी व्यवस्था के खिलाफ आदिवासी समाज की पहली संगठित प्रतिक्रिया थी। संथालों को उनकी ज़मीन से बेदखल किया जा रहा था, उन पर टैक्स थोपा जा रहा था, और महाजन उन्हें सूदखोरी के जाल में फंसा रहे थे। यह केवल अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह नहीं था, बल्कि एक समांतर शासन व्यवस्था की स्थापना का प्रयास भी था। सिदो-कान्हू ने घोषणा की थी कि अब वे ब्रिटिश राज से स्वतंत्र हैं, और संथाल क्षेत्र अब उनके अपने पारंपरिक प्रमुखों के नियंत्रण में रहेगा। उन्होंने ग्रामसभाओं की बैठकें और सामूहिक निर्णय प्रणाली को सक्रिय किया यानी एक वैकल्पिक, लोक-आधारित शासन मॉडल। हूल का प्रमुख लक्ष्य था जमीन की रक्षा। महाजनी और जमींदारी शोषण का प्रतिरोध और सांस्कृतिक और सामाजिक ढांचे की पुनः स्थापना। संथाल विद्रोह ने एक परंपरागत गणराज्य की कल्पना की थी। शिबू सोरेन ने ग्राम सभा की सर्वोच्चता, पेसा अधिनियम, और जनजातीय स्वशासन की धारणा को संवैधानिक पहचान दिलाने का प्रयास किया। 1970 के दशक में शिबू सोरेन के नेतृत्व में झारखंड आंदोलन ने रफ्तार पकड़ी। इस आंदोलन का उद्देश्य था—अलग झारखंड राज्य की स्थापना, ताकि आदिवासी बहुल इलाकों को उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान मिल सके। 1972 में एके राय और बिनोद बिहार महतो के साथ मिलकर उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) की स्थापना की। यह पार्टी आदिवासियों की आवाज़ बनी। शिबू सोरेन ने जेएमएम के बैनर तले भूमि सुधार, वन अधिकार, और आदिवासी स्वशासन की माँग को लेकर आंदोलन चलाया। उनका आंदोलन सिर्फ भाषण नहीं था, वह आम जनता की चेतना का आंदोलन था। ग्रामीण क्षेत्रों में वह घर-घर जाकर लोगों को जगाते, बैठकें करते, और गीतों के ज़रिए लोगों को एकजुट करते। आदिवासी डोंग जैसे परंपरागत वाद्य यंत्रों की ध्वनि और शिबू के नारों की गूंज मिलती तो जंगल भी गवाह बन जाते। ज़मीन और खनिज पर हक हूल और हुंकार दोनों के संघर्ष का केंद्र विंदु रहा। संथालों ने ज़मीन के लिए जान दी। संथाल हूल ने अस्मिता को जमीन से जोड़ा था। शिबू सोरेन ने संविधान के माध्यम से यही बात दोहराई—जंगल, जल, जमीन पर पहला हक़ आदिवासी का है। 1855 में संथालों की जमीन हड़पी जा रही थी। 1970 के बाद झारखंड में खनिज लूट के नाम पर जमीन अधिग्रहण, वन भूमि पर कब्जा, और विस्थापन की प्रक्रिया तेज़ हो गई। शिबू सोरेन ने कहा—झारखंड का खनिज झारखंडी का होना चाहिए। भूमि अधिग्रहण, खनिज लीज और विस्थापन के मुद्दे दोनों कालखंडों में प्रासंगिक रहे। शिबू सोरेन के आंदोलन ने भी आदिवासी भाषा, लिपि, रीति-नीति को सरकारी मान्यता दिलाने का प्रयास किया। शिबू सोरेन का आंदोलन इसके खिलाफ जनाधिकार का प्रतीक बना। एक विद्रोही की जन्मकथा शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को बिहार (अब झारखंड) के हजारीबाग (अभी रामगढ़) जिले के नेमरा गाँव में हुआ था। उनके पिता सोबन सोरेन को महाजनों ने पीट-पीट कर मार डाला, क्योंकि उन्होंने बगैर ब्याज के ऋण लौटाने का साहस किया था। यह घटना शिबू के भीतर गुस्से की ऐसी आग भर गई, जो आगे चलकर जन आंदोलन की चिंगारी बन गई। यहीं से उनकी चेतना का रूपांतरण हुआ—एक बालक जो खेती करता था, जो जंगलों में महुआ बीनता था, धीरे-धीरे एक सामाजिक कार्यकर्ता और फिर विद्रोही बन गया। उस समय संथाल परगना और आसपास के इलाकों में महाजन और जमींदार आदिवासियों का शोषण कर रहे थे। जमीनों पर कब्जा हो रहा था, और आदिवासी अपने ही जंगल में परदेसी बनते जा रहे थे। संघर्ष से सत्ता तक शिबू सोरेन ने 1980 में पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। उन्होंने दुमका से लोकसभा सांसद बनकर संसद में प्रवेश किया। यह एक ऐतिहासिक क्षण था—एक ऐसा व्यक्ति जो कभी सरकारी फाइलों में अपराधी लिखा जाता था, अब संसद में अपनी जनता की बात रखने वाला जननायक बन गया। इसके बाद 1989, 1991, 1996, 2002, 2004 और 2009 में भी वे सांसद बने। केंद्र सरकारों में उन्हें कोयला मंत्री और जनजातीय मामलों के मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद मिले। उनके प्रयासों से कई जनजातीय क्षेत्रों में योजनाएं लागू हुईं, स्कूल खुले, सड़कें बनीं और वन अधिकार कानून की दिशा में भी माहौल बना। लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी—झारखंड राज्य का निर्माण। विवाद और संकट शिबू सोरेन का राजनीतिक जीवन विवादों से अछूता नहीं रहा। 1994 में शशि नाथ झा हत्याकांड, 2004 में कोयला घोटाले और 2005 में राज्यसभा चुनाव में कैश फॉर वोट जैसे विवादों में उनका नाम आया। कुछ मामलों में वे दोषमुक्त हुए, तो कुछ में उन्हें इस्तीफा भी देना पड़ा। लेकिन इन संकटों ने उनकी लोकप्रियता को कभी पूरी तरह समाप्त नहीं किया। उनकी सादगी, धरातल से जुड़ाव और आदिवासी हितों के लिए संघर्ष करने की पहचान ने उन्हें बार-बार पुनः स्थापित किया। एक प्रतीक, एक प्रेरणा झारखंडी समाज उन्हें गुरुजी कहता है। वे सिर्फ एक नेता नहीं रहे, बल्कि एक संस्कृति, एक भावना और एक चेतना बन गए हैं। वे जंगल के हैं, पर संसद को जंगल की आवाज़ देना जानते हैं। वे मिट्टी के हैं, पर मिट्टी को संविधान से जोड़ने की ताकत रखते हैं। उनका जीवन आदिवासी युवाओं को सिखाता है कि संघर्ष करें, पर रास्ता सोच-समझ कर चुनें। वह यह भी बताते हैं कि सत्ता में आकर भी मूल सवालों को न भूलें—जमीन, भाषा, संस्कृति, स्वशासन और आत्मसम्मान। जंगल की राजनीति से जनतंत्र की यात्रा शिबू सोरेन का जीवन एक दार्शनिक पाठ की तरह है। यह बताता है कि राजनीति केवल कुर्सी का खेल नहीं, बल्कि संघर्षों से उपजा जनविश्वास है। उन्होंने जंगलों से निकलकर संसद का रास्ता तय किया, लेकिन जंगल की खुशबू कभी नहीं छोड़ी।उनकी कहानी हमें सिखाती है कि राजनीति तब तक जीवित है जब तक उसमें समाज की पीड़ा के प्रति संवेदना हो। एक विचारधारा की लंबी यात्रा संथाल विद्रोह और शिबू सोरेन का आंदोलन एक ही श्रृंखला की दो कड़ियाँ हैं। एक चेतना जो हम अपने मालिक खुद हैं के विश्वास से जन्मी थी। फर्क केवल समय, भाषा, राजनीति और रणनीति का है। 1855 में वह चेतना हूल थी, 1970 में हक़ बन गई, और आज वह संवैधानिक अधिकारों की मांग के रूप में खड़ी है। पर सवाल वही है— • क्या झारखंड के आदिवासी अब भी मालिक हैं? • क्या उनकी ग्राम सभाएं अब भी निर्णय लेने में स्वतंत्र हैं? • क्या खनिज सम्पदा से उन्हें कोई लाभ मिल रहा है? अगर इन सवालों के जवाब ‘ना’ हैं, तो हमें फिर से हूल की आत्मा और गुरुजी की रणनीति को याद करना होगा। ईएमएस / 04 अगस्त 25