भारतीय संस्कृति में भगवान शिव केवल एक देवता नहीं , बल्कि एक ऐसे आदर्श गृहस्थ हैं।जिनके जीवन से परिवार, समाज देश काल और सृष्टि के संबंधों की गूढ़ शिक्षाएँ मिलती हैं। उनके परिवार को “शिव परिवार” के नाम से जाना जाता है। जिसमें देवी पार्वती, भगवान गणेश, भगवान कार्तिकेय, नंदी, भृंगी, और यहां तक कि नाग-वंश से वासुकी तक के सभी सदस्य शामिल हैं। यह परिवार की विविधता ,एकता, समर्पण, सहिष्णुता और और सृष्टि के सभी जीवो के प्रति समानता का प्रतीक है। प्रत्येक जीव की सोच अलग होती है। सभी में श्रेष्ठता का भाव है।परिवार में मतभेद होना सामान्य है। भगवान शिव सिखाते हैं, विचारों में मतभेद के बावजूद सभी का महत्व बराबर है। शिव के दोनों पुत्र – गणेश और कार्तिकेय – स्वभाव और रुचियों में भिन्न हैं, फिर भी उन्हें समान सम्मान और स्नेह मिलता है। एक युद्धप्रिय सेनापति है, तो दूसरा बुद्धि का देवता। शिव परिवार की सबसे बड़ी शिक्षा यही है – कि गुणों और कमियों के बावजूद हर सदस्य का अपना स्थान और महत्व है। भिन्नताओं में समानता भगवान शिव का वाहन नंदी है – एक शांत बैल, जबकि उनकी पत्नी पार्वती का वाहन सिंह है, गणेश का वाहन मूषक और कार्तिकेय का वाहन मयूर। ये वाहन प्रतीक हैं। विविधता को अपनाना और उसका सम्मान करना ही कर्म और भाग्य की सही पहचान है। यहां तक कि शिव के गले में सर्प है ,जो आमतौर पर भय और विष का प्रतीक माना जाता है। भगवान शिव उसे भी स्नेहपूर्वक कंठ मे स्थान देते हैं। यह दर्शाता है किसी जीव की पहचान या भूमिका के कारण उसे कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। समता और न्याय की मिसाल एक लोकप्रिय कथा है, जब गणेश और कार्तिकेय दोनों को पृथ्वी की परिक्रमा करने की चुनौती दी जाती है। कार्तिकेय अपने तेज मयूर पर निकल पड़ते हैं। जबकि गणेश अपने माता-पिता की परिक्रमा करते हैं, और कहते हैं, मेरे लिए पूरा ब्रह्मांड आप दोनों हैं। शिव और पार्वती ने गणेश की इस भावना को समझते हैं। उन्हें विजेता घोषित कर देवताओं की पूजा में अग्रणी स्थान दिया। यहां भगवान शिव सिखाते हैं,परिवार की भावनाओं और सोच की गहराई को समझना महत्वपूर्ण है। विचारों में परिवर्तन श्रेष्ठ का आधार नहीं है। आलोचना से ऊपर उठने की सीख शिव एक ऐसे भगवान हैं। जो समाज के तथाकथित अस्वीकृत या तिरस्कृत प्राणियों को भी समान अवसर और अधिकार देते हैं। सृष्टि के 84 लाख योनियों में जन्म लेने वाले सभी जीवो के प्रति भगवान शिव समान भाव रखते हैं। भगवान शिव की जब बारात निकली तब सारे सृष्टि के जीव उसमें शामिल हुए उनके गणों में कोई भेदभाव नहीं,श्रेष्ठता या हीनता का भाव नहीं। कर्म का फल बिना किसी भेदभाव के भगवान शिव ने दिये। यही एक कारण है, राक्षसों को सबसे ज्यादा वरदान भगवान शिव से मिले हैं। भगवान शिव की यह प्रेरणा अत्यंत महत्वपूर्ण है। किसी की कमज़ोरी या कर्म फल के सिद्धांत की स्थिति को लेकर उन्होंने कभी भी किसी जीव के साथ भेदभाव नहीं किया। वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता कलयुग के आधुनिक समाज में जब विज्ञान अपनी सर्वोच्चता में है। ज्ञान और विज्ञान के बल पर वर्तमान मानव जीवन अहंकार और भौतिक सुख सुविधाओं के सहारे होकर अकेले ही सब कुछ पा लेना चाहता है। जिसके कारण परिवार एवं समाज मैं विघटन बढ़ता जा रहा है। सामाजिक विकास के स्थान पर सामूहिक विध्वंस की ओर मानव समाज बढ़ रहा है। भौतिक संसाधनों की चाह और अहंकार ने संवादहीनता बढा दी है। भाई-भाई के बीच संपत्ति या विचारों को लेकर विवाद हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में भगवान शिव और उनका परिवार हमें सृष्टि में सभी के सह-अस्तित्व, समर्पण और समानता की प्रेरणा देता है। शिव हमें सिखाते हैं, कर्म फल और भाग्य फल सृष्टि का विधान है। कोई भी केवल इसलिए बुरा नहीं हो जाता है। क्योंकि वह दीन-हीन है।वह अलग सोचता है,या सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन में असफल हो गया है। ब्रह्मांड एक ऐसा वटवृक्ष है, जिसमें 84 लाख योनियों के जीवों का कर्म और भाग्यफल अलग-अलग हैं। सभी जीव एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। सभी जीव एक दूसरे का भौजन है। एक दूसरे के बिना ब्रह्मांड की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जन्म की अलग दिशा हो सकती है। भाग्यफल अलग-अलग हो सकता है। सभी की जड़ एक ही होती है। सभी जीवो को एक दूसरे के प्रति प्रेम और सम्मान का भाव ही कर्म को बेहतर बनाते हैं। निष्कर्ष भगवान शिव का परिवार सृष्टि के सह अस्तित्व का सबसे बड़ा उदाहरण है। मानव जाति को जिस कर्म का अधिकार है। उसे यह अमूल्य सीख देता है। ब्रह्मांड में कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं होता है। यह सीख केवल धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि प्रक्रति के सभी जीवों के लिए व्यावहारिक मार्गदर्शन मनुष्यों के लिए है। वर्तमान में यदि हम इस दृष्टिकोण को अपनाएं,तभी सच्चा सुख, स्थिरता शान्ति और विश्वास बना रहेगा। ईएमएस / 04 अगस्त 25