लेख
14-Sep-2025
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मेरी यह राय है कि नेपाल में जो कुछ घटनाक्रम हुआ उससे ऐसा लगता है कि डेमोक्रेसी भी आम लोगों की समस्याओं को हल करने में सफल नहीं है। यदि हम मानवता का इतिहास देखें तो एक समय ऐसा था जब पूरे समाज में अराजकता थी-मेरी लाठी मेरी भैंस। उसके बाद धीरे-धीरे यह व्यवस्था खत्म हो गई और डायरेक्ट सत्ता राजा के हाथ में आइ गई। सत्ता हाथ में रहते हुए वह जो चाहता था वह करता था। फिर राजसत्ता पूरी दुनिया में थी। इंग्लैंड में थी, फ्रांस में थी, इटली में थी और इन प्रांत के राजाओं का जाल पूरी दुनिया में फैल गया। जैसे इंग्लैंड के बारे में कहा जाता था कि उसका साम्राज्य इतना विस्तृत है कि उसमें सूरज कभी डूबता ही नहीं है। फ्रांस, इटली, अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमरीका के इन देशों में जाल फैला। कई स्थानों पर इन सम्राज्यवादी देशों के विरुद्ध आंदोलन हुए। आम लोगों ने आंदोलन किए। इंग्लैंड में भी आंदोलन हुआ और इंग्लैड की साम्राज्यवादी सत्ता को उखाड़ने में भारतवर्ष का भी योगदान था। भारतवर्ष में जबरदस्त आज़ादी का आंदोलन हुआ। कुछ लोगों ने हिंसक तरीकों को अपनाया परंतु बहुत बड़ा आंदोलन अहिंसक था जो महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुआ था। महात्मा गांधी का नेतृत्व पूरे देश में फैल गया। फ्रांस के विरुद्ध भी आंदोलन हुआ। फ्रांस के भीतर भी आंदोलन हुआ और वहां की रानी ने जब बहुत बड़ी भीड़ पैलेस के सामने देखी तो पूछा कि तुम लोग क्यों आए हो? लोगों ने कहा कि हमें रोटी खाने को नहीं मिल रही है। रानी ने कहा कि रोटी नहीं मिलती है तो केक खाओ। उनका यह उत्तर सुनकर भीड़ हिंसक हो गई और वहां के राजा के हाथ से सत्ता चली गई। धीरे-धीरे दुनिया में चारों तरफ प्रजातंत्र फैल गया। भारत में भी प्रजातंत्र फैल गया। नेहरू जी के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार बनी। फिर इसके चलते पूरी आजादी भारत को दी गई और नेहरू जी के प्रधानमंत्रित्व में हमारे देश ने आजादी की सांस ली। सारी दुनिया में डेमोक्रेसी फैल गई और एक विचारधारा दुनिया में उत्पन्न हुई जिसकी राय थी कि डेमोक्रेसी आम लोगों का शोषण कर रही है। इस विचारधारा का नाम मार्क्सवाद था। मार्क्सवाद में एक सिद्धांत निरूपित किया गया, जिसमें यह कहा गया कि सारी दुनिया में राज करने का अधिकार जनता को होगा। खासकर सोवियत यूनियन में मार्क्सवादी सरकार बनी। बड़े दुख की बात है कि यह सरकार 1917 में बनी परंतु एक शताब्दी भी नहीं टिक पाई और उसकी जड़े उखड़ गईं। इससे महसूस हुआ कि मार्क्सवाद को भी समाप्त किया जा सकता है। अनेक देशों में मार्क्सवादी सरकारे बनीं और धीरे-धीरे उनकी भी जड़ें उखड़ गईं। आज भी कुछ देशों में मार्क्सवादी सरकारें हैं जैसे-क्यूबा में। क्यूबा में जो मार्क्सवादी सरकार है वहां की जनता को जो दैनिक सुविधाएं हैं वह भी प्रदान नहीं की जा रही हैं। आज के टाईम्स ऑफ इंडिया अखबार में छपा है कि पूरा क्यूबा अंधकार में डूबा हुआ है। क्यूबा की सरकार जनता को बिजली भी नहीं दे पा रही है, बाकी साधन तो छोड़िए। चीन में कम्युनिस्ट सरकार बनी पर थोड़े ही दिनों में उसका तख्ता पलट गया और ऐसा लगने लगा कि जैसे पूंजीवादी सरकार हो। वियतनाम में भी सरकार बनी पर उसका तख्ता भी पलट गया। नार्थ कोरिया में इस समय कम्युनिस्ट सरकार है। पर कम्युनिस्ट सरकार के नाम पर वहां का तानाशाह इतना खराब है कि बुरे से बुरे तानाशाह से उसकी तुलना की जा सकती है। इस तानाशाह का पिता भी उत्तर कोरिया में तानाशाह रहा उसने मार्क्सवाद का चेहरा इस तरह पेश किया कि उसकी भी लोकप्रियता खत्म हो गई। दुनिया के अनेक राष्ट्रों में मार्क्सवादी संगठन बने परंतु वो सत्ता हासिल नहीं कर पाए और उनका भी अधोपतन ऐसा हुआ जिसकी उनको कल्पना भी नहीं थी। हिन्दुस्तान में प्रारंभ में केरल में कम्युनिस्ट सरकार बनी परंतु थोड़े दिनों में कांग्रेस ने कम्युनिस्ट सरकार का तख्ता पलट दिया। एक चुनाव में फिर से कम्युनिस्ट आए। भाग्य से इस समय केरल में कम्युनिस्ट सरकार है जो अच्छा काम कर रही है। अभी कुछ दिन पहले मैंने इंडियन एक्सप्रेस में पढ़ा कि केरल में 1000 नवजात शिशु जन्म लेते हैं जिसमें से सिर्फ 5 की मृत्यु जन्म के समय होती है। मृत्यु दर में यह कमी अमरीका से भी कम है। केरल में शिशु मृत्यु दर 1000 में से 5 है जबकि हमारे देश के दूसरे राज्यों में शिशु मृत्यु दर 24 या 28 है। इसका मतलब है कि केरल में जब भी कम्युनिस्ट सरकार बनती है तो सभी क्षेत्रों में खासकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़ी प्रगति होती है। इस समय पूरे देश में केरल एक ही राज्य है जहां कम्युनिस्ट पार्टी का राज है। कम्युनिस्ट पार्टियों का सहयोग अनेक पार्टियों को मिलता है। परंतु दुर्भाग्य है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी दो भागों में बंट गई है। एक सीपीएम कहलाती है और दूसरी सीपीआई कहलाती है। इनका बंटवारा क्यों हुआ? किस सिद्धांत से हुआ? यह आज तक मेरी समझ में तो नहीं आया। मैं कम्युनिस्ट पार्टी का मेम्बर रहा। पर जब कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हो गया तो मैंने कम्युनिस्ट पार्टी की मेम्बर से त्याग पत्र दे दिया और आज भी मैं इस बात के लिए तैयार हूं कि जिस दिन ये दोनों पार्टी एक हो जाएंगी उस दिन मैं पुनः अपनी मेम्बरशिप रिन्यू कर लूंगा। परंतु अब सवाल यह है कि पूरी दुनिया का क्या होगा? ऐसा लगता है कि डेमोक्रेसी आम जनता की समस्याओं को हल नहीं कर पा रही है। अमरीका में 300 साल से डेमोक्रेसी है और सुना जाता है कि आज भी वहां 20 प्रतिशत लोग सड़कों पर सोते हैं। ब्रिटेन में भी यही स्थिति है। हमारे देश में भी डेमोक्रेसी है परंतु बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर सोते हैं। कभी-कभी इनकी हत्या स्पीड से चलने वाली कारों के द्वारा हो जाती है। मतलब यह कि आज भारत बड़ी संख्या में गरीब लोगों को सहायता नहीं पहुंचा पा रहा है। इसका कारण यही है कि डेमोक्रेसी के माध्यम से भी लोगों को लूटा जा रहा है। अखबारों में छपा है कि एक बड़ी संख्या में धनी लोग उस राशन का उपयोग कर रहे हैं जो गरीबों के लिए है। जिनकी संख्या लाखों में है। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि डेमोक्रेसी भी जनता की समस्याओं को हल नहीं कर पा रही है और इसलिए कई देशों में डेमोक्रेसी संतुलित नहीं है। फ्रांस में तो चंद महीनों में प्रधानमंत्री बदले हैं। जापान में भी प्रधानमंत्री थोड़े समय में बदलते हैं। हमारे देश में भी कांग्रेस यह नारा दे रही है कि सत्ताधारी दल वोटर चोर हैं। यदि इसमें थोड़ी भी सत्यता है तो आप चोरी करके वोट ले सकते हैं और सत्ता में आ सकते हैं। राहुल गांधी का आरोप है कि महाराष्ट्र में ऐसा हुआ है। इसमें कितना दम है कहा नहीं जा सकता। परंतु यह स्पष्ट है कि डेमोक्रेसी आम लोगों की समस्याओं को हल नहीं कर पा रही है। एक सूचना के अनुसार भारत में रहने वाले करोड़ों लोगों को राशन दिया जा रहा है जिससे वह अपना जीवनयापन कर सकें। नेपाल में भी यही हुआ। वहां यकायक हिंसा हुई। जनता प्रधानमंत्री के विरुद्ध, राष्ट्रपति के विरुद्ध, मंत्रियों के विरुद्ध हिंसा कर रही है। उसकी शिकायत है कि सत्ता में बैठे लोग अय्याशी का जीवन जीते हैं। फिर अनेक देश आज धर्म पर आधारित अपना शासन चला रहे हैं। इस तरह के देशों में इस्लाम में विश्वास करने वाले देश हैं। सऊदी अरब के पास बहुत धन है पर उनका शासन इस्लामी है। पाकिस्तान का शासन भी इस्लाम पर आधारित है। हमारे देश में इस बात का प्रयास है कि धर्म आधारित राज्य की स्थापना हो। एक पार्टी ऐसी है जो भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहती है। नेपाल में भी हिन्दू राजा था। वहां के हिन्दू राजा द्वारा आम लोगों पर बहुत जुल्म किए जाते थे। वहां पर कम्युनिस्ट पार्टी ने आंदोलन किया और मोनार्की का सिंहासन पलट दिया और हिन्दू साम्राज्य खत्म हुआ और पापुलर सरकार बनी। परंतु वहां भी वही हुआ। वहां के आम लोगों ने मंत्रियों और सत्ताधारी पदों पर बैठे लोगों पर अय्याशी का आरोप लगाया और यह आरोप धीरे-धीरे इतना बढ़ गया कि यकायक वहां के युवकों ने हिंसा को हाथ में ले लिया। बांग्लादेश में भी यही हुआ। वहां की प्रधानमंत्री शेख हसीना थीं। वहां के सबसे बड़े नेता मुजिबुर्रहमान ने सत्ता संभाली, डेमोक्रेटिक सरकार की स्थापना की। परंतु कुछ वर्षों तक तो डेमोक्रेसी चली परंतु बाद में उनकी पुत्री हसीना ने डेमोक्रेसी की जड़ों को खोदना प्रारंभ किया। इससे भी वहां पर हिंसा भड़की, यहां तक कि शेख हसीना को हेलिकाप्टर में बैठकर हिन्दुस्तान में शरण लेनी पड़ी। पाकिस्तान में भी डेमोक्रेसी मजबूत नहीं है। श्रीलंका में भी नहीं है। बर्मा में तो बरसों से मिलेट्री का राज है। वहां की सबसे प्रसिद्ध लीडर को जेल में डालकर रखा गया है। हिन्दुस्तान में भी डेमोक्रेसी की जड़ें बहुत मजबूत नहीं हैं। परंतु मजबूत रहे यह हमारी कामना है। जवाहरलाल नेहरू ने जिन आधारों पर यहां डेमोक्रेसी स्थापित की थी कुछ लोग उसकी बुराई करते हैं। परंतु मेरी राय में जो जड़ें नेहरू जी ने डाली थीं वे आज भी मजबूत हैं और उन्हीं पर चलना चाहिए। नेहरू जी इस देश को साम्प्रदायिकता से दूर रखना चाहते थे। वह इसके विरूद्ध आवाज उठाते थे। हम चाहते हैं कि भारत में धर्म आधारित शासन कभी न आए। क्योंकि भारत में मिलीजुली आबादी है। हिन्दू हैं, मुसलमान हैं, सिक्ख हैं, ईसाई हैं, बुद्धिस्ट, जैन भी हैं। इन सबकी रक्षा उसी समय हो सकेगी जब हमारे देश का राज्य शासन सेक्युलर होगा। परंतु यह भी एक सत्य है कि सेक्युलरिज्म की जड़ें कमजोर हो रही हैं। इसलिए अब ऐसा मौका आ गया है कि हमको शायद कोई नई विचारधारा को लाना पड़ेगा। क्योंकि अकेली डेमोक्रेसी दुनिया के अरबों गरीबों की समस्याओं को हल नहीं कर सकती। नई विचारधारा कौनसी हो, यह कहना मुश्किल है। परंतु ऐसी विचारधारा को खोजना, उसे मजबूत बनाना, आज की आवश्यकता है। मेरी कामना है कि हम इस तरह की विचारधारा को खोजकर उसके माध्यम से हमारे देश में सत्ता स्थापित करेंगे। (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 14 ‎सितम्बर /2025