लेख
14-Oct-2025
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मई से अगस्त 2021 तक, असुरक्षा के बढ़ते स्तर, लक्षित हत्याओं और नागरिकों को लक्षित करने वाले हमलों के बीच, तालिबान ने एक सैन्य आक्रमण के माध्यम से अफगानिस्तान पर नियंत्रण कर लिया, जो देश भर में फैलकर, 15 अगस्त को राजधानी शहर तक पहुंच गया। एक अफगान राजनीतिक और उग्रवादी आंदोलन था, जिसकी विचारधारा में इस्लामी कट्टरवाद के देवबंदी आंदोलन के तत्व शामिल रहा। अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुताकी की प्रेस कांफ्रेंस में महिला पत्रकारों की एंट्री रोक दी गई।विपक्षी दलों,पत्रकारों और सोशल वर्कर्स ने गुस्सा जताया।विवाद में केंद्र सरकार ने पल्ला जाड़ दिया। देवबंद के प्रवक्ता सुहैल शाहीन कहा कि यह अनजाने में हुआ।महिलाओ की भेदभाव की कोई नीति नही है। तकनीकी मामला था।कांग्रेस ने इसको देश की महिलाओ का अपमान करार दिया।जबकि प्रियंका ने भाजपा पर हमला करते हुए कहा कि महिलाओ के अपमान की अनुमति कैसे दी गई?2007 में दारुल उलूम ने आतंक के खिलाफ पहला फतवा जारी किया था।1990 के दशक के मध्य में अफ़ग़ानिस्तान में गृहयुद्ध के दौरान कंधार में तालिबान का उदय हुआ। इसके संस्थापक मुल्ला मोहम्मद उमर ने 1996 में काबुल पर तालिबान के कब्ज़े के बाद भी कंधार को अपनी वास्तविक राजधानी बनाए रखा। अफगानिस्तान में हिंदुओं की आबादी बहुत कम हो गई है, और वर्तमान में यह संख्या गिनती के आंकड़ो तक ही सीमित है। 1970 के दशक में यह संख्या लाखों में थी, लेकिन युद्धों और उत्पीड़न के कारण तेजी से घट गई। हाल के अनुमानों के अनुसार, अफगानिस्तान में अब लगभग 1,350 हिंदू और सिख बचे हैं, जिनमें से 50 से भी कम हिंदू हैं। चीन से लेकर ईरान तक, कई देश पहले से ही तालिबान के साथ बातचीत कर रहे थे। विशेषज्ञों का कहना था कि अगला कदम तालिबान का हो सकता है। रूस, 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को स्वीकार करने वाला पहला देश बन गया था। अफ़गानिस्तान पर अपने पहले शासन के दौरान , तालिबान महिलाओं के प्रति अपने द्वेष और हिंसा के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुख्यात थे । 1996 में महिलाओं को सार्वजनिक रूप से हर समय बुर्का पहनना अनिवार्य कर दिया गया था । महिलाओं को आठ साल की उम्र के बाद काम करने या अपनी शिक्षा जारी रखने की अनुमति नहीं थी। शिक्षा प्राप्त करने की इच्छुक महिलाओं को भूमिगत स्कूलों में जाने के लिए मजबूर किया जाता था, जहाँ पकड़े जाने पर उन्हें और उनके शिक्षकों को फांसी का खतरा होता था।महिलाओं का इलाज पुरुष डॉक्टरों द्वारा नहीं किया जा सकता था। जब तक कि उनके साथ कोई पुरुष संरक्षक न हो, एक ऐसी बाधा जो महिलाओं को स्वास्थ्य सेवा लेने से रोकती थी, जिससे कई लोगों को अनुपचारित बीमारी या आगे की स्वास्थ्य जटिलताएँ होती थीं। तालिबान ने इन कानूनों को सार्वजनिक कोड़े मारने और फांसी के माध्यम से लागू किया। 2021 में अफगानिस्तान पर नियंत्रण वापस लेने के बाद , तालिबान ने शुरुआत में महिलाओं को विश्वविद्यालयों में जाने की अनुमति दी, यद्यपि लिंग-भेद वाली कक्षाओं में, इस शर्त पर कि वे इस्लामी मानकों का पालन करें। हालांकि, कुछ ही समय बाद, समूह ने प्रतिबंध का विस्तार करके लड़कियों को 12 वर्ष की आयु के बाद स्कूल जाने से रोक दिया । दुनिया में अपनी तरह का एकमात्र प्रतिबंध। इसके अतिरिक्त, उन्होंने अफगानिस्तान में महिलाओं को अधिकांश क्षेत्रों में काम करने से प्रतिबंधित कर दिया है।स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा के लिए सीमित अपवाद हैं। हालांकि तालिबान के प्रतिबंध इन क्षेत्रों में कई महिलाओं के लिए निषेधात्मक रूप से बोझिल साबित हुए थे। कुछ प्रांत अभी भी राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध के बावजूद लड़कियों के लिए माध्यमिक शिक्षा की अनुमति देते थे। महिलाओं को सार्वजनिक रूप से चेहरा ढंकना अनिवार्य है और किसी करीबी पुरुष रिश्तेदार के बिना 70 किलोमीटर से अधिक यात्रा करने से रोक दिया गया है । 2022 में, तालिबान के एकांतप्रिय नेता हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा ने अंतरराष्ट्रीय आलोचना और मानवाधिकार प्रतिबंधों को कम करने की माँगों को खारिज कर दिया, तालिबान के शासन पर किसी भी बातचीत या समझौते से इनकार कर दिया। अफ़गानिस्तान पर कब्ज़ा करने के दो साल के भीतर, तालिबान ने ब्यूटी सैलून बंद कर दिए और महिलाओं के जिम और पार्कों में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया। इन प्रतिबंधों की लगभग सार्वभौमिक निंदा हुई है, जिसमें अफ़गानिस्तान के अंदर और बाहर इस्लामी सरकारें और मौलवी भी शामिल थे, जिनका कहना है कि इन प्रतिबंधों का इस्लाम में कोई आधार नहीं है। पाकिस्तान में उतर -पश्चिम सीमा प्रांत को एसेंबली में जब सूबे में शरीअत कानून लागू किए जाने का विधेयक पारित किया तो पाकिस्तान ही नहीं, दुनिया भी स्तब्ध हो उठी।इसे कम-से-कम उन इलाकों में समाज के तालिबानीकरण का सबूत माना गया, जहां मजहबी दलों का समूह मुत्तहिदा मजलिस-ए-अमल अक्तूबर 2002 के चुनावों में अमेरिका विरोधी भावनाएं भुनाकर सत्ता में आया था। एमएमए सरकार इस विधेयक की नैया को इसलिए पार लगा पाई क्योंकि कमजोर विपक्ष ने इस डर से उसका विरोध नहीं किया कि कहीं उस पर इस्लाम विरोधी होने का ठप्पा न लगे। इसके सर्वसम्मति से पारित होने के चलते इस्लामाबाद में जनरल परवेज मुशर्रफ के समर्थन वाली संघीय सरकार और एमएमए सरकार के बीच कड़े टकराव की नौबत पैदा हो गई थी। संघीय गृह मंत्री फैसल सालेह हयात ने चेतावनी दी थी कि इस्लामाबाद पाकिस्तान को प्रबुद्ध और प्रगतिशील मुस्लिम राष्ट्र बनाने की ज़फरुल्ला खान जमाली सरकार की कल्पना से छेड़छाड़ सहन नहीं करेगा, पर साथ ही इस्लामाबाद विवादास्पद लीगल फ्रेमवर्क ऑर्डर (एलएफओ) पर एमएमए से निरंतर बातचीत कर रहा था ताकि मुशर्रफ को अनिश्चित समय तक सेना में बने रहने की छूट मिले ।लेकिन कुछ घटनाओं ने उग्रपंथ में इजाफाहुआ था।शरीअत विधेयक पारित होने के हफ्ते भर पहले मजहबी दलों के कार्यकर्ताओं ने महिलाओं को दिखाते विज्ञापनों को गैर-इस्लामी करार देते हुए उन पर कालिख पोत दी थी।मीडिया में हुई लगातार आलोचना के चलते मुख्यमंत्री अकरम दुर्रानी को इसकी भर्त्सना करनी पड़ी थी, पर उस प्रकरण के बाद तालिबानी अंदाज में फरमान निकलने लगे तो किसी को शक नहीं रहा। (वरिष्ठ पत्रकार साहित्यकार -लेखक) (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 14 अक्टूबर/2025