लेख
15-Oct-2025
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सुप्रीम कोर्ट ने देशद्रोह कानून पर जो सख्त रुख अपनाया है, वह भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए यानी राजद्रोह कानून से संबंधित याचिकाओं को पाँच जजों की संविधान पीठ को भेजने का जो निर्णय लिया है, वह केवल एक कानूनी औपचारिकता नहीं, बल्कि नागरिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी की सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा है। राजद्रोह कानून की उत्पत्ति औपनिवेशिक शासन में हुई थी। अंग्रेजों ने 1870 में इसे इसलिए बनाया था ताकि भारत में स्वतंत्रता की आवाज़ उठाने वाले क्रांतिकारियों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को कुचल सके। इस कानून के तहत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक जैसे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी अभियुक्त बनाए गए थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में उम्मीद जागी थी कि इस काले कानून को समाप्त कर दिया जाएगा, लेकिन अफसोस कि यह आज तक जीवित है, और कई बार तो यह उस रूप में भी नजर आया, जो लोकतंत्र की आत्मा के विपरीत है। आज़ादी के बाद से ही यह कानून सरकारों के हाथों में एक ऐसा औज़ार बन गया, जिसका इस्तेमाल विरोधी विचारों को कुचलने में हुआ। चाहे पत्रकार हों, मानवाधिकार कार्यकर्ता या आम नागरिक हों, किसी भी असहमतिपूर्ण आवाज़ को “राष्ट्रविरोधी” कहकर निशाना बनाया जा सकता था। इसी मनमाने इस्तेमाल पर 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाई थी। अदालत ने केंद्र सरकार से पूछा था कि जब यह कानून औपनिवेशिक मानसिकता का प्रतीक है, तो इसे क्यों बनाए रखा जाए। लेकिन सरकार ने अब “भारतीय न्याय संहिता” (बीएनएस) के ज़रिए उसी कानून को नए नाम और थोड़े बदले हुए शब्दों में फिर से पेश कर दिया। अब इसे भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाला अपराध कहा गया है। हालांकि “राजद्रोह” शब्द हटा दिया गया, लेकिन इसकी भावना लगभग वैसी ही बनी हुई है। यानी जो व्यक्ति सत्ता की आलोचना करे या सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए, उसे अब भी आसानी से देशविरोधी करार दिया जा सकता है। मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने अदालत में कहा, कि कानून का दुरुपयोग ऐसा है जैसे किसी को एक लकड़ी काटने की अनुमति देना, और वह धीरे-धीरे पूरा जंगल काट दे। यह टिप्पणी बेहद प्रतीकात्मक है, यह दिखाती है कि यदि नागरिकों की आवाज़ पर नियंत्रण रखने की कानूनी छूट दी जाए, तो धीरे-धीरे लोकतंत्र का पूरा ढांचा खोखला हो जाता है। अदालत ने यह भी साफ किया कि नए कानून आने से पुराने मामलों पर कोई असर नहीं पड़ेगा; यानी उन मामलों में न्यायिक जांच जारी रहेगी। सुप्रीम कोर्ट की यह सख्ती न केवल संविधान के अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) की रक्षा के लिए आवश्यक है, बल्कि यह एक चेतावनी भी है कि लोकतंत्र केवल चुनावों से नहीं, बल्कि असहमति को सम्मान देने से जीवित रहता है। लोकतांत्रिक समाज में असहमति को अपराध नहीं, बल्कि सुधार की प्रक्रिया का हिस्सा माना जाना चाहिए। यह फैसला मोदी सरकार ही नहीं, बल्कि आने वाली सभी सरकारों के लिए भी एक संदेश है, कि नागरिकों की आवाज़ को कुचलने वाले औपनिवेशिक कानूनों की समीक्षा अब टाली नहीं जा सकती। संसद को चाहिए कि वह इस दिशा में गंभीरता से विचार करे और ऐसा ढांचा बनाए जिसमें देश की अखंडता की रक्षा हो, लेकिन नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई खतरा न आए। राजद्रोह कानून पर सुप्रीम कोर्ट का यह रुख लोकतंत्र की आत्मा को बचाने की दिशा में एक निर्णायक कदम है। यह केवल एक कानूनी बहस नहीं, बल्कि उस संघर्ष का हिस्सा है जिसमें नागरिक अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए खड़े हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि सत्ता, कानून और न्यायपालिका, तीनों यह समझें कि असहमति को दबाने से राष्ट्र मजबूत नहीं होता, बल्कि कमजोर होता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह दिखा दिया है कि संविधान की मूल भावना “हम भारत के लोग” आज भी सर्वोपरि है। देशद्रोह कानून पर पुनर्विचार केवल एक कानूनी सुधार नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को सुरक्षित करने की ऐतिहासिक पहल है। यही वह क्षण है जब न्यायपालिका ने साबित किया है कि वह न केवल कानून की व्याख्या करती है, बल्कि स्वतंत्रता और न्याय की मशाल भी जलाए रखती है। एसजे/ 15 अक्टूबर/2025