बिहार में विधानसभा चुनाव है।देश की आजादी के बाद कांग्रेस एक ऐसी पार्टी रही थी, जो चुनावो में गठजोड़ नहीं कर अपने दम पर चुनाव लड़ती आ रही थी।लेकिन भारतीय लोकतंत्र में 1977 के बाद से पार्टी के प्रभुत्व और कई पार्टियो के महा गठजोड़ के बीच झूलता आ रहा है।पहले कांग्रेस का दबदबा हुआ करता था तो मई 2014 के बाद से भारतीय जनता पार्टी इस हैसियत में पहुंच गई ।वैसे ,राज्यो में तो गठबंधन का दौर काफी पहले 1967 में ही आ गया था।जब कांग्रेस विधानसभा चुनावों में से आठ में हार गई थी।कांग्रेस का भ्रष्टाचार देश की आजादी के दो वर्ष के बाद शुरू हो गया था।कांग्रेस धीरे धीरे राज्यो से कटती आ रही है।अचानक कांग्रेस का जनाधार खत्म नही हुआ है।जिस तरह से भ्रष्टाचार के दोषियों का नाम अखबार में उजागर होता था,उस दौर में मतदाता कांग्रेस से मुह मोड़ते गए।उतर के साथ राज्य और तमिलनाडु में गठबंधन सरकारों और वैचारिक रूप से व्यापक गठबन्धन का प्रयोग हुआ था।ये तमाम गठबंधन भले नाजुक,अस्थायी और परेशानी वाले रहे हो,मगर इनमें मतदाताओ का व्यापक प्रतिनिधित्व हुआ करता था।कांग्रेस अब हर राज्य में गठबंधन के साथ चुनाव लड़ रही है।यूपी में समाजवादी के साथ गठबंधन में रही कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा था।बिहार में राजद के साथ गठबंधन में भी गीले शिकवे पैदा हो गए है।कांग्रेस की विचारधारा जनता के अनुरूप नही है।कांग्रेस अपने मन की करती है,उसी का नतीजा है कि कांग्रेस की कथनी करनी में समानता नजर नही आती है।बिहार में जनसुराज पार्टी के 116 प्रत्याशियो का ऐलान की सूचना है,वही जातिगत समीकरण को केंद्र बिंदु रखा है।बिहार में धमाका होगा।पीएम मोदी जननायक कर्पूरी ठाकुर के गांव से विधानसभा चुनाव में प्रचार करेंगे।नीतीश और भाजपा के सीट बंटवारे कर दिए गए है और शांति के साथ चुनाव के लिए कार्यकर्ताओ को जवाबदेही सौंप दी गई है।उधर,कयास लगाया जा रहा है कि महागठबंधन खंड-खंड बंट चुका है।घटक दल अब एक दूसरे के खिलाफ हो चुके है।महागठबंधन नाम का कोई चीज अब शेष नही रहा है।राजद के सुप्रीमो तेजस्वी एक तरफ खींच रहे है तो राहुल दूसरी तरफ खींच रहे है।तब महागठबंधन का क्या औचित्य है?दोनो दलों ने जिस तरह से एकता का दिखावा चुनाव के पहले किया गया था।वो बेनकाब हो चुका है।राजद और कांग्रेस दोनो पार्टियो की दिशा और दशा अलग है।आपसी विश्वास नही पनपा पाए दोनो दल पर मतदाता कया भरोसा कर पायेगा?सहरसा में पप्पू यादव ने कहा कि कांग्रेस अब किसी की खाद नही बनेगी,तेजस्वी पर पप्पू यादव ने जमकर तंज कसा है।ये लड़ने वाले दल के पास सरकार बन जाती है तो विकास के क्या मायने होंगे? 1977 में इंदिरा गांधी की निरंकुश इमरजेंसी और जेपी आंदोलन की परिणीति जनता पार्टी के स्वरूप में एक महागठबंधन में हुई,जिसमे वैचारिक रूप से विपरीत ध्रुव की पार्टियां शामिल थी।क्योंकि ये गठबंधन मजबूरी में बनाये गए थे।चुनाव के बाद जीत की खुशी दोगुनी होती है,लेकिन बीच मे विवाद खड़ा होता है तो मायूस हो जाते है।जनसंघ से लेकर वाममोर्चे तक,जयप्रकाश नारायण कांग्रेस विरोधी विपक्ष के मसीहा बन गए।1977 के इस प्रयोग के आधार पर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1989 में राजीव गांधी की सरकार के खिलाफ गठबंधन बनाने का कामचलाऊ प्रयोग किया, जिसमें बीजेपी और वाम मोर्चे को सहयोग के रूप ने शामिल किया गया।अब का दौर अलग है।उसके बाद 1996 में दो अल्पमत संयुक्त मोर्चा सरकारों के प्रयोग हुए।एक एच-डी देवगौड़ा और दूसरा इंद्रकुमार गुजराल के नेतृत्व में सरकार बनी।अब तो देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा भी गठबंधन का तिलिस्म तोड़ने के लिए राजी नही है।एनडीए गठबंधन में आज भी यह नियम है कि भाजपा बहुमत में है तो भी एनडीए घटक दलों को नही छोड़ते है।यह नीति है।यह गठबंधन की अच्छाई का नमूना है।उस दौर में क्षेत्रीय और राज्यो के क्षत्रपों की महत्वकांशाओ का उभार इतना हो चुका था कि चुनावी नजरिए से रास्ट्रीय पार्टियों के लिए उन्हें दल नजरअंदाज करना लगभग नामुमकिन हो गया।लिहाजा, दो प्रमुख रास्ट्रीय गठबन्धनो की नींव पड़ी।जो भारतीय राजनीति की नई हकीकत बन गए।कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए गठबंधन और भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए पिछले कई वर्षो से क्षत्रिय दलों ने इन्ही में से किसी एक के साथ अपनी निष्ठाओं और अपने चुनावी भविष्य को बांध रखा है।कांग्रेस ने मोदी को हराने के लिए सभी घटक दलों से मिलकर इंडिया महागठबंधन बनाया गया।यूपीए के विलय इंडिया महागठबंधन के तौर पर देखा जा रहा है।महागठबंधन में बिहार में राजद शामिल है।इनके नेतृत्व में चुनाव लड़ा जा रहा है।उमीदवारों की बदली और उमीदवारों को बदलने का दौर बिहार में चालू है।कांग्रेस और राजद के बीच पेंच फसने के बाद सुलझ नही रहा है।लेकिन अब दिवाली के बाद सहमति बनानी ही पड़ेगी।उसी के अनुरूप प्रत्याशियो के लिए चुनाव प्रचार किया जाएगा।पिछले दौर ये गठबंधन नाजुक रहे और कोई भी सरकार में कार्यकाल पूरा करने में कामयाब नही हो पाया।लेकिन 1998 के बाद कार्यकाल पूरा हुआ।2014 में आम चुनाव में नरेंद मोदी के नेतृत्व में भाजपा को बहुमत मिला लेकिन उसने फिर भी एनडीए की छतरी तले बने रहना पसंद किया और जिन राज्यो में वह सता में नही थी,वहां भी उसने एनडीए के नाम से ही चुनाव लड़ा।यह है मोदी पर क्षेत्रीय पार्टियो की निष्ठा और भरोसा।महागठबंधन तो लड़ाई बिना पार ही नही जाता है ।इस लड़ाई के कारण मतदाता असमंजस की स्थिति में आ जाते है।मतदाता सोचते है कि चुनाव के बाद भी यही रहा तो हम जनता किसके पास जाएगी? एनडीए के गढ़ को रोकना अब आसान नही है।बिहार में लालू और नीतीश ने मिलकर महागठबंधन बनाया था और 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा को कड़ी पटखनी दे दी।लेकिन उस महागठबंधन ने मात खा ली और नीतीश कुमार को फिर एनडीए की सच्चाई और कर्मनिष्ठा की याद आई।अभी नरेंद्र मोदी लोकप्रिय बने हुए है।राहुल की चुनौती कमजोर पड़ी है।राहुल के पास कोई ठोस मुद्दे नही है,जिससे मोदी और नीतीश की टक्कर ले सके।बेहतरीन कामकाज वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार है।इनके नेतृत्व में बिहार में भारी विकास हुआ है।लालू जेपी शिष्य है और नीतीश भी जेपी शिष्य रहे है।लालू ने अपना विजन अलग कर दिया और नीतीश की साख दिन दोगुनी बढ़ती जा रही है।एक की पटरी हिलोरे खा रही है तो एक नैतिकता और ईमानदारी के गुण से बिहार सहित देश मे अपनी पैठ बना चुके है।नीतीश ईमानदार दिग्गज मुख्यमंत्री रहे है।लेकिन राजनौतिक आकस्मिक सम्भावनाओ का खेल है।जिसमे कई सारे आश्चर्य छिपे हुए है।2004 से पहले सारी पार्टियां बिखरी हुई थी।दूर दूर कोई गठबंधन की सम्भावना नजर नही आती थी।अटल बिहारी के नेतृत्व और उनके शाइनिंग इंडिया अभियान के तहत सफलता सूचक गठबंधन था।दरअसल, सोनिया का कमजोर गठबंधन जोड़ तोड़ करके बनाया गया था।उस समय गठबंधन जीत गया और मनमोहनसिहं के नेतृत्व में वाले यूपीए सरकार ने सत्ता में दो कार्यकाल पूरे किए।उस समय अटकलें लगाई जा रही कि सरकार का रिमोट कंट्रोल सोनिया के हाथ मे है।मनमोहन सिंह तो रबर स्टाम्प है।एनडीए के नेता नरेंद्र मोदी सबसे लोकप्रिय नेता है।लेकिन सभी राज्यो के मुख्यमंत्रियों में तीन सबसे लोकप्रिय नेता नीतिश कुमार रहे है और ममता और केजरीवाल आदि गैर एनडीए दलों से नाम चर्चित थे।लेकिन नीतीश को छोड़कर ममता और केजरीवाल की साख में कुछ वृद्वि नही हुई है। (वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार, लेखक) (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 23अक्टूबर/2025