भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहाँ जनता की इच्छा ही सर्वोपरि मानी जाती है। लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके चुनाव कितने निष्पक्ष, पारदर्शी और नैतिक आधारों पर संचालित होते हैं। चुनाव केवल सत्ता प्राप्ति का माध्यम नहीं, बल्कि जनता के प्रति जवाबदेही की कसौटी भी है। बिहार, जो भारत के राजनीतिक इतिहास में एक अहम स्थान रखता है, यहां के चुनाव हमेशा से देशभर में चर्चा का विषय रहे हैं। ईमानदारी, नैतिकता और सुशासन—ये तीनों शब्द न केवल एक आदर्श शासन प्रणाली के स्तंभ हैं, बल्कि बिहार की राजनीति में परिवर्तन के प्रतीक भी बन चुके हैं। बिहार चुनाव के संदर्भ में इन तीनों मूल्यों की भूमिका, चुनौतियों और संभावनाओं पर विस्तार से प्रकाश डालता है। *बिहार की राजनीतिक पृष्ठभूमि* बिहार की राजनीति ने स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आधुनिक भारत तक अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। जयप्रकाश नारायण के ‘संपूर्ण क्रांति आंदोलन’ से लेकर लालू प्रसाद यादव के सामाजिक न्याय के दौर और नीतीश कुमार के सुशासन के युग तक, बिहार की राजनीति ने हमेशा नई दिशा देने का प्रयास किया है। हालांकि, इन दशकों में जातिगत समीकरण, धनबल, बाहुबल और भ्रष्टाचार ने राजनीति की पवित्रता को कई बार प्रभावित किया। यही कारण है कि आज भी जनता के बीच सबसे बड़ा सवाल यही है।क्या चुनाव में ईमानदारी, नैतिकता और सुशासन को प्राथमिकता दी जा रही है? *ईमानदारी का प्रश्न* ईमानदारी किसी भी लोकतंत्र की आत्मा होती है। यदि जनप्रतिनिधि और प्रशासन ईमानदार हों, तो विकास स्वाभाविक रूप से होता है। लेकिन बिहार की राजनीति में पूर्व की सरकारों में लंबे समय तक यह मूल्य हाशिए पर रहा। कई चुनावों में उम्मीदवारों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज रहे, और धनबल के सहारे चुनाव जीतने की परंपरा ने ईमानदारी की जड़ों को कमजोर किया। हाल के वर्षों में हालांकि एक सकारात्मक बदलाव देखने को मिला है। युवा मतदाताओं में यह जागरूकता बढ़ी है कि ईमानदार उम्मीदवारों को वोट देना ही सच्चा लोकतंत्र है। सोशल मीडिया, जनमंचों और नागरिक संगठनों ने पारदर्शिता की मांग को बल दिया है। दल अब अपने घोषणा पत्रों में अधिक व्यावहारिक और तथ्य आधारित वादे कर रहे हैं। ईमानदारी को चुनावी मुद्दा बनाने में युवाओं और सिविल सोसाइटी की भूमिका अहम रही है।इन प्रयासों के बावजूद यह कहना कठिन है कि ईमानदारी पूरी तरह से बिहार की राजनीति में स्थापित हो चुकी है। लेकिन इसकी मांग अब जनता के एजेंडे का हिस्सा बन चुकी है, जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है।राजनीतिक नैतिकता का अर्थ है कि सत्ता प्राप्ति के लिए नैतिक सीमाओं का पालन करना, सार्वजनिक जीवन में आचरण की शुचिता बनाए रखना, और अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार रहना।बिहार चुनावों में नैतिकता की स्थिति मिश्रित रही है। एक ओर नेताओं ने नैतिकता की बातें कीं, तो दूसरी ओर राजनीतिक गठबंधन और दल-बदल ने उसकी परीक्षा ली है।बिहार में कई बार देखा गया है कि व्यक्तिगत लाभ या सत्ता में बने रहने के लिए राजनीतिक नैतिकता से समझौता किया गया। जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर वोट माँगना आज भी नैतिकता के विपरीत माना जाता है, फिर भी यह एक आम चुनावी रणनीति बन चुकी है। चुनावों के समय जनता से किए गए वादों को पूरा न करना नैतिक पतन का द्योतक है।फिर भी, नैतिकता का पुनर्जागरण धीरे-धीरे हो रहा है। कई युवा नेता और सामाजिक कार्यकर्ता राजनीति में नैतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं।इसके अलावा, मीडिया और नागरिक संगठनों की निगरानी ने भी राजनीतिक दलों को कुछ हद तक जवाबदेह बनाया है। *सुशासन की अवधारणा* “सुशासन” शब्द बिहार की राजनीति में विशेष रूप से चर्चित रहा है। जब 2005 में नीतीश कुमार ने ‘सुशासन बाबू’ की छवि के साथ सरकार बनाई, तो यह नारा केवल राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि एक नई शासन दृष्टि बन गया।सुशासन का अर्थ है—पारदर्शी, जवाबदेह, न्यायसंगत और जनहितकारी प्रशासन। बिहार ने इस दिशा में कई सुधार देखे, जैसे सड़क, बिजली, शिक्षा, कानून-व्यवस्था और महिला सशक्तिकरण में सुधार। सुशासन के प्रमुख स्तम्भ में कानून व्यवस्था में सुधार,पहले जहाँ अपराध राजनीति से गहराई से जुड़ा था, अब कई सुधारात्मक कदम उठाए गए। ग्रामीण सड़कों, पुलों, स्कूलों और अस्पतालों के निर्माण से जनता को राहत मिली।पंचायती चुनावों में महिलाओं को 50% आरक्षण देकर सामाजिक भागीदारी को बढ़ावा दिया गया। ‘साइकिल योजना’ और ‘पोशाक योजना’ जैसे प्रयासों ने शिक्षा को बढ़ावा दिया।महिलाओं के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाओं के तहत लाभ पहुंचाने का कार्य सतारूढ़ सरकार ने किया। लेकिन बिहार में यह चेतना अवश्य आई है कि शासन केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि सेवा का माध्यम होना चाहिए।चुनाव में तीनों मूल्यों का परस्पर संबंध है।ईमानदारी, नैतिकता और सुशासन — ये तीनों एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हैं। ईमानदारी के बिना नैतिकता टिक नहीं सकती, और नैतिकता के बिना सुशासन असंभव है। यदि उम्मीदवार ईमानदार और नैतिक होंगे, तो शासन अपने आप पारदर्शी होगा। इसी प्रकार, यदि शासन ईमानदार और जवाबदेह होगा, तो जनता का विश्वास राजनीति में बढ़ेगा। बिहार के चुनावों में यह त्रिकोण अब धीरे-धीरे मजबूत हो गया । जनता अब केवल वादों पर नहीं, बल्कि उम्मीदवारों के चरित्र और नीतियों पर ध्यान दे रही है। राजनीति में नए चेहरे, युवा ऊर्जा, और सामाजिक जागरूकता इस मजबूत शासन की नींव है। यद्यपि बिहार ने कई सुधारों की दिशा में कदम बढ़ाए हैं, फिर भी कुछ प्रमुख चुनौतियाँ बनी हुई हैं।धनबल और बाहुबल का हिस्सा न बनने दिया जाए। कई बार अपराध और राजनीति के गठजोड़ ने ईमानदारी को कमजोर किया।युवाओं को बेहतर अवसर मिलने से राजनीति में आदर्शवाद का विकास हुआ है। चुनावी घोषणाएँ अक्सर जमीनी हकीकत से दूर होती हैं। राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवार चयन में ईमानदारी और योग्यता को प्राथमिकता देनी चाहिए।शिक्षा प्रणाली में नागरिक नैतिकता और राजनीतिक जागरूकता को शामिल किया जाना चाहिए। चुनाव आयोग को अपराधियों और धनबलियों पर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। मीडिया को निष्पक्ष रहकर जनमत निर्माण में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। लोकतंत्र में जनता सबसे बड़ी शक्ति होती है। यदि मतदाता सजग, जागरूक और नैतिकता के पक्षधर होंगे, तो राजनीतिक दल स्वतः सुधार करने को बाध्य होंगे।बिहार की जनता में यह जागरूकता तेजी से बढ़ी है। आज युवा वर्ग सोशल मीडिया के माध्यम से भ्रष्टाचार, अन्याय और प्रशासनिक लापरवाही के खिलाफ आवाज उठा रहा है। ग्रामीण स्तर पर भी पंचायत चुनावों में पारदर्शिता की माँग बढ़ी है, जो लोकतंत्र के परिपक्व होने का संकेत है।बिहार के चुनाव केवल राजनीतिक घटनाएँ नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना के प्रतीक हैं।ईमानदारी, नैतिकता और सुशासन जैसे मूल्य अब केवल आदर्श नहीं, बल्कि जनआकांक्षा बन चुके हैं। यह परिवर्तन धीमा जरूर है, पर स्थायी दिशा में अग्रसर है। यदि राजनीतिक दल और जनता दोनों मिलकर इन मूल्यों को व्यवहार में उतारें, तो बिहार न केवल राजनीतिक रूप से बल्कि सामाजिक और आर्थिक रूप से भी भारत के अग्रणी राज्यों में शामिल हो सकता है। जब राजनीति ईमानदारी से प्रेरित होगी, शासन नैतिकता से संचालित होगा, और जनता सुशासन की प्रहरी बनेगी — तभी बिहार अपने स्वर्णिम भविष्य की ओर कदम बढ़ाएगा। पहले चरण के मतदान में आखिरी दिन महिलाओ के लिए बड़ी घोषणा करने वाले लालू के सुपुत्र तेजस्वी यादव पर जनता भरोसा कर पाएगी ?क्योकि 2005 के पहले लालू के जंगलराज और बिहार में घास चारा घोटाला और केंद्र में मंत्री रहते लालू ने नौकरी के बदले निर्दोष लोगों की जमीन अपने परिवार के नाम करवा दी थी।अब तक के उदाहरण है कि राहुल ने चुनाव के वक्त चुनाव जीतने पर नकद राशि खाते में डालने की घोषणा की थी।लेकिन कांग्रेस को हार ही मिली।उसी तरह बिहार चुनाव में तेजस्वी ने घोषणा तो की है-लेकिन वोटरों के हाथ मे है।जीविका दीदियों को एकमुश्त 30 हजार रुपए देने का वादा लोगो पर असर नही करेगा।अब तक के उदहारण बताते है कि सत्ता में रहते हुए जो रकम केश दी जाती है,उस पर ही महिला वोटरों ने ज्यादा भरोसा किया है।मध्यप्रदेश में लाडली बहन योजना के तहत महिलाओ के खाते में सरकार ने 1250 रूपए डाल रही थी।कांग्रेस ने 2023 में दो हजार देने की घोषणा की गई।2024 में महाराष्ट्र के चुनाव के पहले लाडली बहिन योजना में हर महीने 1500 दे रही थी।अघाड़ी ने तीन हजार रुपए देने का वादा किया।झारखंड में झामुमो सरकार ने प्रतिमाह एक हजार देने का वादा किया।भाजपा ने 21 सौ देने का वादा किया।लेकिन मतदाताओ को जिस सरकार ने पैसे दिए,उस पर भरोसा किया।तेजस्वी ने 30 हजार की घोषणा, सिंचाई के लिए बिजली मुफ्त,धान पर 300 और गेहूं पर 400 बोनस आदि घोषणा पर जनता भरोसा कम ही करती है।क्योंकि महागठबंधन की कथनी और करनी में समानता नही दिखाई दे रही है। (वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार-स्तम्भकार) (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 6 नवम्बर/2025