उत्तराखंड राज्य के गठन को पच्चीस साल पूरे हो रहे हैं। इस अवसर को उत्तराखंड सरकार ऐतिहासिक और यादगार बनाने की तैयारी में जुटी है। पूरे प्रदेश में बड़े स्तर पर कार्यक्रमों की योजना बन चुकी है और उनका रोडमैप तैयार कर लिया गया है। इस बार राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उत्तराखंड आ रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नौ नवंबर को राज्य स्थापना समारोह में शामिल होंगे। राज्य स्थापना दिवस पर नौ नवंबर को पूरे प्रदेश में भव्य कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान परिसर में इस उपलक्ष्य में भव्य समारोह की तैयारी चल रही है। शासन और प्रशासन दोनों स्तर पर तैयारियां तेज हो गई हैं। हालांकि प्रधानमंत्री के आगमन को लेकर अभी तक कोई आधिकारिक आदेश जारी नहीं हुआ है लेकिन सुरक्षा और प्रोटोकॉल की तैयारियां शुरू कर दी गई हैं। राज्य स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में एक से नौ नवंबर तक प्रदेशभर में कई सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। इस मौके पर राज्य की परंपराओं, लोक संस्कृति और विकास यात्रा को प्रदर्शित किया जाएगा। उत्तराखंड सरकार इस अवसर पर दो दिवसीय विधानसभा का विशेष सत्र भी बुला रही है। तीन नवंबर को सत्र के पहले दिन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू राज्य के विकास की उपलब्धियों पर विधानसभा में अपना संबोधन देंगी। यह आयोजन उत्तराखंड के इतिहास में एक खास अध्याय बनने जा रहा है।जिसमे प्रधानमंत्री का आगमन ओर भी महत्वपूर्ण हो गया है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद, की उपलब्धियो में औद्योगिक विकास, रोजगार सृजन, और पर्यटन के विस्तार जैसी आर्थिक प्रगति हुई है, जबकि विफलताओं में पर्वतीय क्षेत्रों में बागवानी और स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति में गिरावट, और पर्यावरण संबंधी चुनौतियाँ शामिल हैं। राज्य में कई एमएसएमई उद्योगों की स्थापना नारायण दत्त तिवारी सरकार के समय हुई है, जिससे लाखों लोगों को रोजगार मिला है। दूसरी ओर, स्वास्थ्य सेवाएँ, जैसे विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी, और कृषि व बागवानी क्षेत्र की स्थिति संतोषजनक नहीं है। इसके अलावा, पर्यावरण संबंधी चिंताएं और कभी-कभी साइबर हमले जैसी चुनौतियाँ भी रही हैं। उत्तराखंड अपनी स्थापना के 25 वर्षों में कई क्षेत्रों में अग्रसर रहा है, फिर भी कई चुनौतियों का समाधान अभी भी बाकी है। राज्य सरकार ने अपनी योजनाओं में जनसहभागिता को शामिल करते हुए एक समावेशी विकास मॉडल अपनाने की कोशिश की है। आगामी वर्षों में, यदि उत्तराखंड पहाड़ी क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने, पर्यावरण संरक्षण और दीर्घकालिक रोजगार के अवसर बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करता है, तो यह राज्य विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़ेगा और “उत्तराखंड का दशक” कहलाएगा।उत्तराखंड राज्य को बने 25 वर्ष हो गए है ,लेकिन आज तक उत्तराखंड आत्मनिर्भरता नही हो सका है।विकास पुरूष नारायण दत्त तिवारी ने अपने शासनकाल में राज्य के अंदर जो औद्योगिक नगर बसाए थे उनमें से करीब बड़ी संख्या में औद्योगिक इकाइयां बंद हो चुकी है या फिर पलायन कर चुकी है।गत वर्षो में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने विदेशों में निवेश के एमओयू साइन करवा रहे थे।लेकिन विदेशों व मुंबई जैसे महानगरों के निवेशक कब उत्तराखंड आएंगे इसका जवाब किसी के पास नही है। किसानों के बकाया गन्ना मूल्य भुगतान अधर में है। नया गन्ना सत्र शुरू हो जाने पर भी गन्ना मूल्य घोषित न होने से किसान असमंजस में है।राज्य के कर्मचारी पुरानी पेंशन बहाली को लेकर लगातार आंदोलन कर रहे है,लेकिन कोई सुनवाई नही हो पा रही है,ऐसे में राज्य स्थापना दिवस पर उनके मुरझाये चेहरे पर रौनक कैसे आ सकती है?आज 25 साल बीतने पर भी उत्तराखंड में न तो स्थाई राजधानी बन पाई और न ही उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों के चिन्हीकरण का काम पूरा हो पाया।उत्तराखंड के मूलभूत सरोकार आज भी ज्यो के त्यों हमारे सामने प्रश्न बने खड़े है। गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी तो घोषित कर दिया था, लेकिन स्थायी राजधानी के मुद़्दे को आज तक भी हल नही किया गया है। हालांकि कांग्रेस एलान कर चुकी है कि गैरसैंण को वह स्थायी राजधानी घोषित करेगी। लेकिन कब,इस पर वह भी मौन है,जवाब में सत्ता पक्ष भाजपा ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करके अपना पल्ला झाड़ लिया।लेकिन स्थायी राजधानी किसी ने नही बनाई।यह राजधानी कब बनाएगी जाएगी ,इसका कोई जवाब सत्ता पक्ष किसी के पास नही है।ग्रीष्म कालीन सत्र भी जरूरी नही सरकार गैरसैंण बुलाये,कई बार ये सत्र भी देहरादून में ही बुला लिए जाते है।जबकि गैरसैंण में राजधानी के नाम पर दो सौ करोड़ से अधिक विधानसभा भवन व अन्य भवनों के नाम पर खर्च हो चुका है। प्रदेश की जनता प्रदेश के राजनीतिक , सामाजिक, आर्थिक और जनसांख्यिकीय परिदृश्य को भी पूरी तरह से पलटने की क्षमता रखती हैं। महान शख्सियत चन्द्रसिंह गढ़वाली का सपना था कि ‘पहाड़ की राजधानी, पहाड़ में ही हो।’ वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ही उन लोगों में थे जिन्होंने सबसे पहले गैरसैंण में प्रदेश की राजधानी की मांग की थी। गैरसैंण चमोली ज़िले का एक ऐसा पहाड़ी शहर है जो गढ़वाल और कुमाऊं की सीमा पर बसा है। सन 1990 के आस पास जब पृथक राज्य की मांग उग्र रूप ले रही थी, तब से ही इस प्रस्तावित राज्य उत्तराखंड की राजधानी के रूप में गैरसैंण को देखा जा रहा था। तभी तो 25 जुलाई सन 1992 के दिन तो ‘उत्तराखंड क्रांति दल’ ने गैरसैंण को अपने दल की ओर से पहाड़ की राजधानी घोषित किया और वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम पर इस शहर का नाम ‘चंद्र नगर’ रखते हुए राजधानी क्षेत्र का शिलान्यास भी किया था।इसके बाद कई आंदोलन हुए और अलग राज्य की स्थापना 9 नवंबर सन 2000 में हो गई। लेकिन देहरादून को अस्थायी राजधानी का नाम देने से स्थायी राजधानी का मुद्दा सुलझने की जगह और भी ज़्यादा उलझता चला गया।यानि अब यह साफ हो गया है कि बिना संसाधनों वाले और आर्थिक रूप से कमजोर उत्तराखंड में अब एक नहीं दो-दो राजधानी का बोझ झेलना पड़ रहा है। तत्कालीन त्रिवेंद्र सरकार ने गैरसैंण को सिर्फ ग्रीष्म कालीन स्वीकार किया। जो उत्तराखंड के लिए एक घाव की तरह बनकर रह गया है। पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता हरीश रावत व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष करन महारा का कहना है कि कांग्रेस सत्ता में आने पर गैरसैंण को पूर्ण राजधानी बनाएगी। ग्रीष्म कालीन राजधानी पर तत्कालीन मुख्यमंत्री व हरिद्वार सांसद त्रिवेंद्र रावत ने कहा था कि यह फैंसला भविष्य के द्वार खोलेगा। उन्होंने कहा था कि यह फैसला इसलिए लिया गया, ताकि उत्तराखंड निर्माण का लाभ दूरस्थ इलाकों को भी मिल सके।तब त्रिवेंद्र बोले थे , गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने के बाद सरकार यहां राजधानी के लिए बुनियादी सुविधाएं जुटाने का काम करेगी। विशेषज्ञों और टाउन प्लानरों के साथ बैठकर यहां के विकास का खाका तैयार होगा। उनका मानना था कि अभी गैरसैंण-भराड़ीसैण क्षेत्र राजधानी का दबाव सहने की स्थिति में नहीं है। इसलिए सरकार का फोकस यहां अवस्थापना सुविधाओं के विकास पर रहेगा। यहां राजधानी की सुविधाएं चरणबद्ध तरीके से जोड़ी जाएंगी, लेकिन हुआ कुछ भी तो नही, सिवाय इसके कि सरकार के निर्णय से प्रदेश में अब दो राजधानियां हो गई है, साथ ही स्थायी राजधानी का मुद्दा पहेली बन गया है।एक बार बजट सत्र के दौरान जिस प्रकार गैरसैण विधानसभा बर्फ से ढक गई थी ,उसे देखकर यही लगता है कि सरकार मौसम की बेरुखी के कारण स्थाई राजधानी के निर्णय तक नही पहुंच सकेगी। राज्य की जनता भी सरकार के ग्रीष्मकालीन शगूफे को पचा नही पा रही है।राज्य के 70 प्रतिशत लोग स्थाई राजधानी के पक्ष में है।तत्कालीन भाजपा की त्रिवेंद्र सरकार ने यह फैसला लेकर एक विवाद को तो जन्म दे दिया,लेकिन उसका हल उनके बाद के मुख्यमंत्री भी नही खोज पाए।दरअसल उत्तराखंड में राजधानी का मुद्दा जनभावनाओं से जुड़ा है। राज्य गठन के बाद से ही प्रदेश में गैरसैण में राजधानी बनाए जाने को लेकर आवाज उठती रही हैं। राज्य आंदोलन के समय से ही गैरसैंण को जनाकांक्षाओं की राजधानी का प्रतीक माना गया है। यही वजह है कि कांग्रेस और भाजपा की सरकारें गैरसैंण को कभी खारिज नहीं कर पाई। हरीश रावत सरकार ने जब गैरसैंण में विधानमंडल भवन बनाया, तब उन पर भी राजधानी घोषित करने का दबाव बना था। राजनीतिक आंदोलन से जुड़ा एक वर्ग गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाए जाने की वकालत करता रहा है। राज्य गठन से पहले उत्तर प्रदेश की मुलायम सरकार की गठित कौशिक समिति ने अपनी रिपोर्ट में 70 प्रतिशत लोगो की पसंद गैरसैण को कहा था। वही उक्रांद ने 28 साल पहले गैरसैंण में राजधानी का शिलान्यास किया था। राज्य आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाने वाले पूर्व मंत्री दिवाकर भट्ट ने कहा कि राज्य गठन के बाद भी जनभावनाओं की अनदेखी हुई है। दिवाकर भट्ट ने कहा कि राज्य गठन आंदोलन के दौरान ही आंदोलनकारियों ने यह तय कर लिया था कि अलग राज्य बनेगा और उसकी राजधानी गैरसैंण होगी। राज्य के लिए कई आंदोलनकारियों ने अपनी शहादत दी। नवंबर 2000 में अलग राज्य बना, लेकिन 25 साल बाद भी गैरसैंण स्थायी राजधानी नहीं बन सकी। पुष्कर सिंह धामी सरकार स्पष्ट करे कि किस कारण से वह दो राजधानी बनाना चाहती है? वर्ष 2012 में कांग्रेस सरकार द्वारा पहली बार गैरसैंण में कैबिनेट बैठक आयोजित की गई थी। तब उम्मीद जगी थी कि क्षेत्र में सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा, संचार, सुरक्षा, बैंक जैसी मूलभूत सुविधाएं बेहतर होंगी, लेकिन 11 वर्ष बीत जाने के बाद भी गैरसैंण-भराड़ीसैंण में विधान सभा भवन निर्माण के अलावा अवस्थापना विकास के नाम पर कोई भी कार्य नहीं हुआ है। गैरसैंण और भराड़ीसैंण की प्यास बुझाने के लिए पिंडर नदी से पानी लिफ्ट करने की योजना धरातल पर नहीं उतर पाई । यहां के जलस्रोतों का भी बेहतर संरक्षण नहीं किया जा सका है। दिवालीखाल से भराड़ीसैंण की राह आसान बनाने के लिए सड़क का चौड़ीकरण समय की आवश्यकता है। स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर यहां एकमात्र सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है, जो बिना विशेषज्ञ डॉक्टरों के संचालित हो रहा है। यह यक्ष प्रश्न आज भी मौजूद है कि। जब कोई पहाड़ में रहना ही नही चाहता,तो कैसे पहाड़ का भला होगा।आज भी नेता ,अधिकारी और कर्मचारी देहरादून छोड़ना ही नही चाहते।तभी तो स्थाई के बजाए ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर अपनी सुख सुविधाओं को सरकार के स्तर से तरजीह दी गई। उत्तराखंड आत्मनिर्भर बने इसके लिए नए सिरे से विकास नीति यहां की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार तय होनी चाहिए ,साथ ही उत्तराखंड को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में भी सार्थक पहल हो।उत्तराखंड मूल के स्वतंत्रता सेनानी परिवारो,राज्य आंदोलन कारियो व पूर्व सैनिकों की मूलभूत समस्याओं का निराकरण हो तथा स्वतंत्रता सेनानियों व पूर्व सैनिकों को राष्ट्रीय परिवार तथा राज्य आंदोलन कारियो को राज्य परिवार घोषित करने से उत्तराखंड राज्य के शहीदों के सपनो का उत्तराखंड बनाया जा सकता है। (लेखक राजनीतिक चिंतक व वरिष्ठ साहित्यकार है) (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 8 नवम्बर/2025