लेख
10-Nov-2025
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(राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्’ की 150वीं वर्षगाँठ) भारत के राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्’ की 150वीं वर्षगाँठ प्रधानमंत्री ने 7 नवंबर, 2025 को वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में एक वर्ष तक चलने वाले समारोहों का उद्घाटन किया। भारत का राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्’, जिसे बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने रचा था, ऐसा माना जाता है कि यह 7 नवंबर, 1875 को अक्षय नवमी के दिन लिखा गया था। बंकिम चंद्र चटर्जी (1838-94) 19वीं सदी के एक अग्रणी बंगाली लेखक थे जिनके उपन्यासों, कविताओं और निबंधों ने आधुनिक बंगाली गद्य और प्रारंभिक भारतीय राष्ट्रवाद को आकार दिया।उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं आनंदमठ, दुर्गेशनंदिनी, कपालकुंडला और देवी चौधुरानी, जिनमें उपनिवेशित समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक संघर्षों को दर्शाया गया है।वंदे मातरम्: इसे ‘बंदे मातरम्’ भी उच्चारित किया जाता है। इसकी रचना बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने की थी। वंदे मातरम् पहली बार 7 नवंबर, 1875 को साहित्यिक पत्रिका बंगदर्शन में प्रकाशित हुआ था और बाद में उनकी अमर कृति आनंदमठ (1882) में शामिल किया गया।रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा इसे संगीतबद्ध किया गया, जिसके बाद यह भारत की सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान का एक शक्तिशाली प्रतीक बन गया, जो एकता, त्याग एवं भक्ति की भावना को अभिव्यक्त करता है।राष्ट्रीय गीत का दर्जा: वंदे मातरम् के पहले दो पदों को वर्ष 1937 में कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा भारत के राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया गया।24 जनवरी, 1950 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की कि जबकि जन गण मन को राष्ट्रीय गान के रूप में स्वीकार किया जाएगा, स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका के कारण वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गीत के रूप में समान सम्मान दिया जाएगा।हालाँकि, अनुच्छेद 51A(a) के तहत नागरिकों से संविधान, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान का सम्मान करने का कर्त्तव्य अपेक्षित है। वंदे मातरम् पुनर्जाग्रत् राष्ट्रवाद का प्रबल उद्घोष बनकर उभरा, जो मातृभूमि के प्रति अटूट निष्ठा और औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध संघर्ष का प्रतीक बन गया।अंग्रेज़ों ने लोगों को एकजुट करने की इसकी क्षमता को पहचाना और कई स्थानों पर इसके सार्वजनिक गायन या प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया।कांग्रेस द्वारा स्वीकृति: वर्ष 1896 में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में वंदे मातरम् गाया। जल्द ही, इसके पहले दो पद कांग्रेस की सभाओं का एक नियमित हिस्सा बन गए।यह आज़ाद हिंद की अंतरिम सरकार की उद्घोषणा के समय भी गाया गया था।वर्ष 1905 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वाराणसी अधिवेशन में ‘वंदे मातरम्’ को सर्व-भारतीय आयोजनों के लिये अपनाया गया।बंदे मातरम् संप्रदाय: मातृभूमि के प्रति समर्पण को बढ़ावा देने के लिये अक्तूबर, 1905 में उत्तरी कलकत्ता में स्थापित।सदस्य हर रविवार को प्रभात फेरी लगाते थे, वंदे मातरम् गाते थे और स्वैच्छिक दान एकत्र करते थे।बंदे मातरम्-अ इंग्लिश डेली: अगस्त 1906 में बिपिन चंद्र पाल के नेतृत्व में इंग्लिश डेली बंदे मातरम् की शुरुआत हुई, जिसमें बाद में श्री अरविंद संयुक्त संपादक के रूप में शामिल हुए। यह एक प्रमुख राष्ट्रवादी आवाज़ बन गया, जिसने आत्मनिर्भरता, एकता और औपनिवेशिक शासन के प्रतिरोध के विचारों का प्रसार किया।श्री अरबिंदो जैसे विचारकों का मानना था कि वंदे मातरम् में आध्यात्मिक शक्ति होती है और यह सामूहिक चेतना को जाग्रत् करता है, जिससे इसका पाठ एक राजनीतिक और आध्यात्मिक दोनों कार्य बन गया।बंगाल विभाजन के दौरान वंदे मातरम्: 7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता के टाउन हॉल में विद्यार्थियों के जुलूसों के दौरान पहली बार वंदे मातरम् का प्रयोग राजनीतिक नारे के रूप में किया गया। यही घटना बंगाल में स्वदेशी आंदोलन और विभाजन-विरोधी आंदोलन की प्रेरणा बनी।वर्ष 1905 में बंगाल के विभाजन-विरोधी आंदोलनों के दौरान लगभग 40,000 लोग कोलकाता टाउन हॉल में एकत्र हुए और विरोधस्वरूप वंदे मातरम् गाया।इसके प्रभाव की तीव्रता इतनी अधिक थी कि लॉर्ड कर्ज़न ने इसे गाने वाले किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया, जो इसके राजनीतिक प्रभाव को दर्शाता है।गुलबर्गा का वंदे मातरम् आंदोलन: यह हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र में विद्यार्थियों के नेतृत्व में चलाया गया एक प्रमुख विरोध आंदोलन था। नवंबर 1938 में ब्रिटिश सरकार द्वारा वंदे मातरम् पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद उस्मानिया विश्वविद्यालय और गुलबर्गा विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों के छात्रों ने इसे खुलकर गाकर विरोध दर्ज कराया। परिणामस्वरूप, कई छात्रों को गृह नज़रबंदी और निष्कासन का सामना करना पड़ा। आंदोलन को रोकने के लिये अंग्रेज़ों ने परिसरों में पुलिस तैनात कर दी। विदेशों में भारतीय क्रांतिकारियों पर प्रभाव: वर्ष 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने बर्लिन के स्टटगार्ट में भारत के बाहर पहली बार तिरंगा झंडा फहराया। इस झंडे पर वंदे मातरम् लिखा था। अगस्त 1909 में जब मदन लाल ढींगरा को इंग्लैंड में फाँसी दी गई, तो फाँसी पर चढ़ने से पहले उनके आखिरी शब्द थे बंदे मातरम्। वर्ष 1909 में पेरिस में रहने वाले भारतीय देशभक्तों ने जिनेवा से बंदे मातरम् नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। अक्तूबर 1912 में गोपाल कृष्ण गोखले का केप टाउन में “वंदे मातरम्” के नारे के साथ एक भव्य जुलूस के साथ स्वागत किया गया। वंदे मातरम की रचना ने उस समय एक सांस्कृतिक जागृति को चिह्नित किया जब ब्रिटिश शासन भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को दबाने का प्रयास कर रहा था।साहित्य में एकीकरण: बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने इस गीत को अपने उपन्यास आनंदमठ में शामिल किया, जहाँ भिक्षुओं ने इसे स्वतंत्रता के लिए एक पवित्र आह्वान के रूप में इस्तेमाल किया।क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा: स्वदेशी आंदोलन (1905) और बाद की क्रांतिकारी गतिविधियों के दौरान, यह गीत कई स्वतंत्रता सेनानियों का अंतिम मंत्र बन गया, जब वे मृत्यु का सामना कर रहे थे।जब रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे सार्वजनिक रूप से गाया, तो इसे एक आध्यात्मिक अनुभव के रूप में वर्णित किया गया जिसने भक्ति, कर्तव्य और देशभक्ति को एक किया।वर्तमान विमर्श में, आलोचकों का एक वर्ग इस गीत को विभाजनकारी या सांप्रदायिक बताता है। यह भारतीयों में गर्व और श्रद्धा का भाव जगाता है, जो सभ्यतागत निरंतरता और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। ऐतिहासिक स्मृतिलोप: इस तरह की आलोचना इसकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक प्रासंगिकता की समझ की कमी के कारण होती है।यह गीत भारत के विकास और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने के साथ एकता और सामूहिक शक्ति के संदेश को पुष्ट करता है।कर्म के माध्यम से अभिव्यक्ति: वंदे मातरम की भावना किसानों, सैनिकों, शिक्षकों और नवप्रवर्तकों के योगदान में निहित है जो निस्वार्थ भाव से राष्ट्र की सेवा करते हैं।भावना पर कर्तव्य: यह गीत सिखाता है कि देशभक्ति कभी-कभार का उत्साह नहीं, बल्कि मातृभूमि के प्रति आजीवन प्रतिबद्धता है।वंदे मातरम एक राष्ट्रीय कविता से एकीकृत राष्ट्रीय नारे के रूप में विकसित हुआ जो देशभक्ति को भावना से कर्म में बदल देता है, जिससे राष्ट्र की सेवा भक्ति की सर्वोच्च अभिव्यक्ति बन जाती है। ईएमएस / 10 नवम्बर 25