प्रकृति के साथ जुड़कर चलने की प्राचीन विधि है प्राकृतिक चिकित्सा। प्रकृति का उद्भव पांच तत्वों से मिलकर हुआ । ये तत्व हैं - आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी । हम सभी जीव प्राणियों में ये पांचो तत्व पाए जाते हैं। मनुष्य इन तत्वों का संतुलन बनाए रखते हुए जीवनशैली अपनाए, यही प्राकृतिक चिकित्सा है। यह सत्य है कि प्रकृति में जब इन पांच महाभूतों का संतुलन बिगड़ता है तो प्राकृतिक आपदाएं आती हैं और इससे जनधन हानि होती है। इसी तरह शरीर में इन पांच तत्वों का जब असंतुलन होता है तो हम बीमार पड़ जाते हैं । आदिकाल से ही भारतवर्ष में प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचलन रहा है। हमारे ऋषि मुनि इसे अपनाते रहे हैं। सात्विक भोजन, व्रत, उपवास, सप्ताह में एक दिन लवणहीन भोजन, राम नाम स्मरण उनकी दिनचर्या में शामिल रहता था। वे कल्पवास और तीर्थ स्थान का भ्रमण करते थे। ध्यान, योग और व्यायाम तथा संयमित जीवनशैली अपनाकर वे दीर्घायु होते थे। प्राकृतिक चिकित्सा में योग आसनों का विशेष महत्व है । अनेक बीमारियों में अलग-अलग आसन बताए गए हैं । ये आसन प्राचीन ऋषि मुनियों द्वारा किए गए सफल प्रयोग का ही प्रतिफल है। देखा जाए तो योग और प्राकृतिक चिकित्सा एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का ध्येय है कि बिना किसी तीव्र औषधि के शरीर को स्वस्थ रखना । योग के आसनों द्वारा शरीर की नाड़ियों में जमा विषैले तत्वों को पिघलाकर मल मूत्र के द्वारा बाहर निकाला जाता है , वहीं प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा इन विजातीय तत्वों को एनिमा और कुंजल क्रिया द्वारा बाहर निकालने की विधि है । योग आसनों में शरीर में प्राण वायु को बढ़ाने और कार्बन को काम किया जाता है , वहीं प्राकृतिक चिकित्सा में संयमित और संतुलित आहार निर्धारण द्वारा शरीर को स्वस्थ रखते हैं। आसन से शरीर में ऊर्जा पैदा होती है और शरीर लचीला बनता है , वहीं प्राकृतिक चिकित्सा से शरीर को पुष्ट बनाया जाता है । इस तरह हम देखते हैं कि योग और प्राकृतिक चिकित्सा से मनुष्य को शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक लाभ मिलता है। प्राकृतिक चिकित्सा की कई विधियां हैं । जैसे आहार चिकित्सा, जल चिकित्सा, मिट्टी चिकित्सा, सूर्य किरण चिकित्सा तथा मालिश चिकित्सा । इस चिकित्सा के माध्यम से लोगों के रहन-सहन की आदतों में थोड़ा बदलाव लाकर उन्हें स्वस्थ रहना सिखाया जाता है। आहार चिकित्सा में अंकुरित अनाज, मौसम अनुसार ताजा फल और पत्तेदार सब्जियां दी जाती हैं। उत्तम स्वास्थ्य के लिए हमारा भोजन 20 फीसदी अम्लीय तथा 80 फीसदी क्षारीय होना चाहिए । जल चिकित्सा में स्वच्छ और शीतल जल से स्नान करना, स्वच्छ जल का सेवन करना तथा शरीर और आयु अनुसार जल की निर्धारित मात्रा लेने की विधि है। मिट्टी चिकित्सा के अंतर्गत शरीर पर मिट्टी के लेप तथा चोट आदि में मिट्टी से उपचार पर महत्व दिया गया है। योगीजन मिट्टी को शरीर पर लेप करते हैं। इससे उन्हें सर्दी गर्मी की अनुभूति न्यूनतम होती है।इसका कारण है मिट्टी में सर्दी गर्मी रोकने की शक्ति होती है। मिट्टी दुर्गंध को रोकती है। मिट्टी से हम शरीर को साफ करते हैं फिर स्वच्छ जल से स्नान करते हैं । महिलाएं बालों को मिट्टी से धोती हैं । मिट्टी पृथ्वी तत्व है। इसमें सबको आत्मसात कर लेने की शक्ति होती है। मिट्टी में अनेक रोगों को दूर करने की शक्ति है। जैसे हिरण जब किसी हिंसक जीव से घायल हो जाता है, तो वह जल के पास कीचड़ में लेट जाता है। वह कीचड़ चोट स्थान पर लगा रहता है । बाद में वह जल में जाकर उसे मिट्टी को धो लेता है। ऐसा करके वह स्वयं शरीर की चिकित्सा कर लेता है । अन्य जीव प्राणी भी इसी तरह प्राकृतिक तरीके अपनाकर अपने शरीर को स्वस्थ रखते हैं। वायु चिकित्सा में हम विभिन्न योग के आसनों द्वारा श्वांस ग्रहण करते हैं । यह प्राणवायु है जो हमें जीवन देती है । शुद्ध और स्वच्छ वायु से मनुष्य स्वस्थ रहता है , वहीं प्रदूषित वायु हमें बीमार कर देती है। आकाश तत्व चिकित्सा के अंतर्गत हम उपवास करके शरीर को स्वस्थ रखते हैं । आकाश तत्व महतत्त्व ही है। यह ईश्वरीय शक्ति है, जो निराकार है। आकाश को ब्रह्मांड का आधार कहा गया है। आकाश तत्व के संतुलन से मनुष्य को संजीवनी शक्ति मिलती है। ब्रह्मचर्य और संयम इसी तत्व की देन है। प्राकृतिक चिकित्सा का महत्व देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर अनेक स्थानों पर केंद्र संचालित हैं। इसके बावजूद इस क्षेत्र में प्रचार और जागरूकता की जरूरत है। आम आदमी को इससे जोड़ने के लिए शासन और समुदाय दोनों स्तर पर ठोस प्रयास करने की आवश्यकता है। ( लेखक मानव जीवन और ध्यान पुस्तक के लेखक हैं )। ईएमएस/17/11/2025