भारत में संघीय व्यवस्था को सबसे बड़ा खतरा 20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संवैधानिक सवालों पर अपनी राय देते हुए यह स्पष्ट कर दिया है, कि राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की कोई समय-सीमा तय नहीं की जा सकती है। अप्रैल 2025 में सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की खंडपीठ ने तीन महीने की अनिवार्य समय-सीमा तय की थी। जिससे विपक्षी राज्यों की सरकारों को उम्मीद बंधी थी, कि केंद्र सरकार के इशारे पर राज्यपालों द्वारा विधेयक रोकने की जो राजनीति की जा रही थी, वह अब खत्म होगी। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में हुई सुनवाई के बाद दो जजों की खंडपीठ का फैसला अब विवादों में आ गया है। सुप्रीम कोर्ट की राय दो जजों वाली खंडपीठ के फैसले के विपरीत है। यहीं से एक बड़ी कानूनी और राजनीतिक बहस शुरू होती है। सुप्रीम कोर्ट की इस राय से एक बार फिर राज्यपालों की शक्तियों को फिर से अनियंत्रित ताकत मिल गई है। इस ताकत मिलने के बाद क्या राज्यपाल ही राज्य के असली संवैधानिक मुखिया होंगे? दिल्ली सरकार और दिल्ली के उपराज्यपाल के रूप में सारे देश ने यह देख लिया है, कि उपराज्यपाल निर्वाचित सरकार के ऊपर भारी पड़े। जो उपराज्यपाल चाहते थे वही काम दिल्ली सरकार को करने पड़े। भारत की संघीय लोकतांत्रिक संरचना तभी संतुलित रह सकती है जब केंद्र और राज्य दोनों संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करें। एक-दूसरे के अधिकारों पर हस्तक्षेप ना करें। पिछले वर्षों में केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों के माध्यम से विपक्षी राज्यों की सरकार और वहां की विधानसभा पर अघोषित रूप से अधिकार में लेने की जो कोशिश की जा रही थी सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से राज्यपाल विधेयकों को मंजूरी देने में अब बिना किसी भय के राज्य सरकारों को केंद्र सरकार के इशारे पर परेशान करेंगे बिना कारण बताये। दिल्ली, तमिलनाडु, केरल, पंजाब और पश्चिम बंगाल इसके उदाहरण हैं। जहां सरकारों को अपने ही राज्य की विधानसभा और निर्वाचित विधायकों द्वारा जो कानून बनाए गए थे उन्हें लागू कराने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा। यही कारण था सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल वाले आदेश से उम्मीद जगी थी। केंद्र एवं राज्य सरकारों के बीच संस्थागत टकराव कम होगा। राज्यपालों की भूमिका स्पष्ट होगी। राज्य सरकार और राज्यपाल अपनी-अपनी भूमिका में काम करेंगे। 20 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने जो राय दी है, उसने स्थिति को एक बार फिर धुंधला बना दिया है। अदालत ने कहा है समय सीमा थोपने से न्यायपालिका, कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करेगी। जो संविधान के प्रावधान हैं उनके खिलाफ है। इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा, कि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयक लंबित नहीं रख सकते हैं। यदि देरी बिना कारण हो, तो अदालत सीमित दायरे में रहकर हस्तक्षेप कर सकती है। यही अनिश्चितता इस मामले को और जटिल बनाता है। राज्यपाल कब तक इंतजार करवा सकते हैं? अनिश्चितकाल नहीं का व्यावहारिक अर्थ क्या है? क्या फिर से हर राज्य को देरी होने पर कोर्ट जाना पड़ेगा? सबसे बड़ा खतरा यही है, यह अस्पष्टता राजनीतिक लाभ लेने वालों के लिए नया अवसर खोलती है। केंद्र सरकार के पास राज्यों से कई गुना ज्यादा अधिकार हैं। केंद्र सरकार राज्यपालों की नियुक्ति करती है। राज्यपाल एक संवैधानिक अधिकारी हैं। राजनीतिक निष्ठा के चलते राज्यपाल के पद पर ऐसे लोगों को नियुक्त किया जाता है जो किसी विशेष विचारधारा तथा किसी विशेष संगठन के रूप में कार्य करते हैं। राज्यपालों के उपर विवेकाधीन-शक्ति बिना समय-सीमा तथा बिना जिम्मेदारी के छोड़ दी जाती है। ऐसी स्थिति में विपक्ष-शासित राज्यों में विधायी प्रक्रिया को रोककर केंद्र में जो राजनीतिक दल बैठा है वह राज्यों में अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए इस तरह की कार्रवाई को बढ़ावा देगा। संघीय ढांचे में केंद्र सरकार की अलग शक्तियां हैं तथा राज्य सरकारों को उनके राज्य के लिए अलग शक्तियां प्राप्त हैं। चुनी हुई सरकारों की शक्ति कानून बनाने और कानून का पालन कराने में निहित है। यदि राज्यपाल राजनीतिक कारणों से इस प्रक्रिया को महीनों, वर्षों तक रोक कर रखते हैं तब यह संविधान एवं लोकतांत्रिक जनादेश का घोर अपमान है। सवाल यह है, केंद्र एवं राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें हैं। मतदाताओं की केंद्र के लिए अलग दृष्टि है और राज्य के लिए अलग दृष्टि है। वह मतदान के जरिए अपनी राय व्यक्त करता है और अपने प्रतिनिधियों का निर्वाचन करता है। सवाल यह है, क्या राज्य सरकारें अपना वैधानिक काम अपने राज्य के मतदाताओं के लिए समय पर कर पाएंगी या वह लगातार अदालतों के चक्कर काटती रहेंगी? सुप्रीम कोर्ट की राय ने एक खिड़की खोली है और एक खिड़की को बंद भी कर दिया है। अधखुली खिड़की से भारत की संघीय व्यवस्था में ठंडी हवा नहीं, बल्कि एक नया राजनीतिक तूफ़ान आना तय है। यह तूफान दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सरकार और उपराज्यपाल के बीच में पहले ही देखने को मिल चुका है। अब यह सारे देश में देखने को मिलेगा। यह आशंका बन गई है। सुप्रीम कोर्ट ने जो राय राष्ट्रपति को भेजी है उसके बाद केंद्र एवं राज्य सरकारों के बीच एक नई बहस और सत्ता संतुलन के लिए नया संघर्ष शुरू होगा। राज्यपालों को जवाबदेह बनाए बिना देश का संघीय ढांचा सुरक्षित नहीं रह सकता। राज्यपालों के जरिए केंद्र सरकार द्वारा राज्यों की सत्ता पर नियंत्रण करने का जो काम पिछले 10 वर्षों से कर रही थी सुप्रीम कोर्ट द्वारा जो राय व्यक्त की गई है उसके बाद देश में अधिकारों को लेकर एक नया संघर्ष केंद्र एवं राज्यों के बीच बनना तय है। भारत में अभी तक जो संघीय व्यवस्था चल रही थी, अब उसमें टकराव बढ़ना तय है। दक्षिण के राज्य पहले भी इस तरह के टकराव के बारे में अपने बयान दे चुके हैं। पश्चिम बंगाल में पिछले 10 साल से राज्यपालों की जो भूमिका रही है उसके बाद पूर्वोत्तर के राज्यों में भी इसी तरह से टकराव सामने आ सकता है। यह स्थिति कहीं से कहीं तक अच्छी नहीं मानी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने सभी राज्यों और केंद्र की राय सुनवाई करने के बाद जो राय दी है वह आधी-अधूरी है। इससे केंद्र एवं राज्यों के संबंध और भी ज्यादा खराब होंगे। न्यायपालिका ने दो बंदरों की लड़ाई में अपने आप को एक ऐसी भूमिका में रख लिया है जो समय-समय पर इस तरह के निर्णय दे जिससे न्यायपालिका अपने आप को भी सुरक्षित रख पाए। इस राय से यही प्रतीत हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीश सरकार के दबाव में हैं। सरकार का न्यायपालिका पर हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। इस तरह के आरोप पिछले वर्षों में कई बार लग चुके हैं। पहले भी जो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय आए हैं, सुप्रीम कोर्ट में जो मामले कई वर्षों से लंबित हैं और सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जिस तरह से मामलों को तारीख पर तारीख देकर टाला जाता है। महाराष्ट्र की सरकार जिस तरह से राज्यपाल के हस्तक्षेप से गिरा दी गई थी, उस मामले को सुप्रीम कोर्ट ने अस्ंवैधानिक बताया था। उसके बाद भी उस सरकार ने अपना पूरा कार्यकाल किया। राज्यपाल के ऊपर असंवैधानिक काम करने के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं की गई थी। इतने सारे उदाहरण विभिन्न राज्यों में पिछले वर्षों में देखने को मिल चुके हैं। उस दृष्टि से सुप्रीम कोर्ट की यह राय जो उन्होंने राष्ट्रपति के पत्र पर दी है, उसको देखते हुए यही कहा जा सकता है कि उन्होंने इस राय के जरिए बिना किसी विवाद में पड़े अपने आपको बचाने का काम किया है। जो संविधान और लोकतंत्र के लिए कहीं से भी उचित प्रतीत नहीं होता है। जिस तरह से न्यायपालिका के प्रति विश्वास बढ़ता चला जा रहा है, इस तरह की राय और फैसले से सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट का जो सम्मान है वह आगे बना रहेगा या लोग उस पर विश्वास करेंगे इस पर भी अब प्रश्न चिन्ह लगना शुरू हो गए हैं। एसजे/ 21 नवम्बर/2025