देश में बहुत सी घटनाएं घट रही हैं। चोर दरवाजे से आई ए एस बनाये जा रहे थे, अब मंत्री तक बनाए जा रहे हैं। गोरख पाण्डेय ने सही लिखा था- ‘समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई।’ दिल्ली से चलकर समाजवाद पटना आता है। पटना में थोड़ी मौज मस्ती कर लेता है। होटल मौर्या या चाणक्य के बाद जिले की ओर चलता है। जनता तक आते-आते समाजवाद थक जाता है। समाजवाद पर लीडर की उम्र का भी असर पड़ता है। अगर आप डॉ लोहिया की किताब ‘ भारत विभाजन के गुनहगार’ पढ़ें तो पता चलेगा कि उन्होंने भारत विभाजन के कई कारणों में से एक कारण उम्र को भी गिनाया है। नेहरू और पटेल हड़बड़ी में थे। लड़ते लड़ते थक गए थे। राजगद्दी के लिए कितना इंतजार करते! जिन्ना और लियाकत खान भी मुंह फाड़े हुए थे। एक देश में सभी को तो मुकम्मल जहां नहीं मिलता, सो देश को ही फ़ाड़ दिया। उन लोगों ने ऐसी-ऐसी थ्योरी दी, लोग हैरत में थे। उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों को दो राष्ट्र का दर्जा दिया। कहां कि दोनों साथ रह ही नहीं सकते। सावरकर तो उस वक्त न तीन में थे, ना तेरह में। अंग्रेजों के तलवे सहलाकर जीवन गुजार रहे थे। हिन्दुओं के नेता बनने के फिराक में रहते थे। आजादी आंदोलन से उन्होंने तौबा कर लिया था। वे भी दो राष्ट्र का सिद्धांत भांज रहे थे। मांस, मदिरा सेवन करने वाले जिन्ना ने जीवन में एक पर्चा भी नहीं लिखा। लेकिन भारत विभाजन के प्रमुख गुनहगारों में उनका भी नाम है। देश को रद - बद कर इधर भी पदधारी हुए, उधर भी। सभी एक एक कर गए, लेकिन देश को आग में झोंक कर गए। एक से दो देश निकला, फिर तीसरा निकला। चौथा अभी गर्भ में है। नेताओं की जिह्वा पर गर्म खून की आदत लग जाय तो देश बचता नहीं है। इन लोगों ने देश को खौलते कराह में डाल दिया है। खैर, मैं भटक गया था। बात समाजवादियों और उनकी लैटरल इंट्री की बात हो रही थी। डॉ लोहिया ने शादी नहीं की। जयप्रकाश नारायण वादों से बंधे थे। सो दोनों समाजवादी नेता संतान से महरूम रहे। उसके बाद जो समाजवादी आये। वे संतानों से लैस थे। राजनीति में उन्होंने लैटरल इंट्री का रिकॉर्ड बना दिया। पति, पत्नी, बेटा, बेटी, समधी, समधन - सभी देश की सेवा के लिए न्यौछावर हो गये। जब समाजवाद इस राह पर चल पड़ा तो दक्षिणपंथ क्यों दक्षिण में रहे। उसने भी जम कर अपने पुत्रों और पुत्रियों से देश की सेवा करवायी। देश इनका कृतज्ञ हैं। वे सेवा किए जा रहे हैं और देश सेवा नहीं ले पा रहा है। देश सेवा के लिए जगह कम है और देश सेवक बहुत हैं। ऐसे देश सेवकों का कहना है कि हमारे लिए देश सेवा परमो धर्म: है। बंदे मातरम गीत गाकर भले क्रांतिकारी शहीद हो गए, मगर परिवारवादी ने जिद ठान ली है कि चाहे जिस पद और जिस तिकड़म से जाना पड़े, वे जायेंगे। मुंह कदापि नहीं मोड़ेंगे। इस स्वर्ण युगीन घटना का नाज़ुक मोड़ यह है कि एक परिवारवादी दूसरे से सिखते हैं और एक-दूसरे पर तर्क मढ़ कर अपने को गांमा पहलवान बनाते हैं। परिवारवादी समर्थकों की तो मौज ही मौज है। उन्हें परिवारवाद के समर्थन में मुकम्मल तर्क मिल जाता है। वे कहते हैं कि हमारे वाले परिवारवादी हैं तो वे क्या हैं? ऐसे तर्कों से दोनों समृद्ध और संतुलित हो जाते हैं। इस तर्कहीन दुनिया में ऐसे तर्क बहुत काम के होते हैं। आनेवाले समय में आपको ऐसे ऐसे महान तर्कों से मुलाकात होगी। जातिवादी छोकड़े तो ऐसे मौकों पर गजब ढाते हैं। वे उनके स्वागत के लिए नयन बिछाए रहते हैं। लगता है कि इनका जन्म ही स्वागत के लिए हुआ है। ईएमएस / 22 नवम्बर 25