धर्मेंद्र: वह सूरज, जो ढ़लकर भी पीढ़ियों को रोशन करता रहेगा हिन्दी फिल्म उद्योग का वह चमकता सूरज, जिसने पीढ़ियों के सपनों को रोशन किया, जिसने कठिनाई में हिम्मत दी और जिसने अपने सहज व्यक्तित्व से अभिनय को जन-जन के जीवन से जोड़ दिया, वह धर्मेंद्र हमसे सदा के लिए विदा हो गए। यह क्षति केवल एक परिवार, एक पीढ़ी या एक उद्योग की नहीं बल्कि उस युग की विदाई है, जिसने भारतीय सिनेमा को स्वर्णकाल दिया। धर्मेंद्र सिर्फ अभिनेता नहीं थे, वे एक भावनात्मक धड़कन, एक सांस्कृतिक अनुभूति और करोड़ों भारतीयों की यादों में दर्ज वह ताकत थे, जो पर्दे पर आते ही कहानी को सजीव बना देती थी। पंजाब के साहनेवाल गांव में 8 दिसंबर 1935 को जन्मा यह बालक शायद स्वयं भी नहीं जानता था कि एक दिन उसका नाम भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमिट अक्षरों में दर्ज होने वाला है। गांव की मिट्टी, खेती की महक और सादगी से भरे जीवन ने उन्हें वह सहजता दी, जो आगे चलकर उनके अभिनय की सबसे बड़ी ताकत बनी। उनके भीतर का कलाकार किसी कोने में सोया हुआ था पर दिल में एक स्वप्न जलता था कुछ कर दिखाने का, कुछ बनने का, कुछ ऐसा छोड़ जाने का जिसे पीढ़ियां याद रखें। 1954 में जब मात्र 19 वर्ष की उम्र में उन्होंने प्रकाश कौर से विवाह किया, उस समय उन्हें यह कल्पना भी नहीं थी कि दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग एक दिन उनके कदमों में होगा। जीवन संघर्षों से भरा था पर भीतर ऐसी ईमानदारी और अनुशासन था, जो किसी भी कलाकार को महान बना देता है। भाग्य ने उन्हें 1960 में वह क्षण दिया, जब निर्देशक अर्जुन हिंगोरानी ने उन्हें फिल्म ‘दिल भी तेरा हम भी तेरे’ में मौका दिया। मेहनताना सिर्फ 51 रुपये, पर इस मामूली सी रकम ने भारतीय फिल्मों को वह धरोहर दी, जिसकी कीमत किसी मुद्रा में आंकी नहीं जा सकती। यह शुरुआत थी पर यात्रा लंबी और संघर्षपूर्ण होने वाली थी। शुरुआती फिल्मों में उन्होंने साधारण, आम आदमी के किरदार निभाए, अनपढ़, बंदिनी, अनुपमा, आया सावन झूम के, इन फिल्मों में उनकी मासूमियत, उनकी आंखों की भाषा और उनके संवादों की सरलता इतनी वास्तविक थी कि दर्शकों को लगा, मानो वे किसी काल्पनिक नायक को नहीं बल्कि अपने जैसे इंसान को पर्दे पर देख रहे हों। धर्मेंद्र में किसी तरह का दिखावा नहीं था, वे अभिनय नहीं करते थे, वे जीते थे। शायद यही कारण था कि जनता ने उन्हें अभिनेता नहीं, अपने दिल का एक हिस्सा मान लिया। 1960 के दशक के अंत में जब हिन्दी सिनेमा एक बड़े परिवर्तन की ओर बढ़ रहा था, धर्मेंद्र ने उसी दौर में अपने भीतर छिपे ‘ही-मैन’ को पहचाना। वे एक्शन फिल्मों के सबसे बड़े सितारे बने पर इस चमक के साथ भी उनकी विनम्रता कभी नहीं बदली। फूल और पत्थर, आई मिलन की बेला, आए दिन बहार के, इन फिल्मों ने उन्हें रातों-रात स्टार बनाया, पर असल चमत्कार अभी बाकी था। जब 1975 में शोले आई तो धर्मेंद्र का ‘वीरू’ सिर्फ एक किरदार नहीं रहा, वह भारतीय संस्कृति का प्रतीक बन गया। वीरू की दोस्ती, उसका हास्य, उसका गुस्सा, उसका प्रेम, धर्मेंद्र की सहज अदाकारी ने उसे अमर कर दिया। आज भी कोई जब ‘बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना’ सुनता है तो वह संवाद नहीं बल्कि धर्मेंद्र की आवाज का जादू महसूस करता है। उनका प्रतिभा-क्षेत्र केवल एक्शन और रोमांस तक सीमित नहीं था। चुपके चुपके जैसी फिल्में, जो हिंदी सिनेमा में हास्य की उत्कृष्ट कृति मानी जाती हैं, यह सिद्ध करती हैं कि धर्मेंद्र का अभिनय केवल मांसपेशियों नहीं बल्कि दिमाग, दिल और संवेदना से भी जन्म लेता था। वे जितने सशक्त एक्शन हीरो थे, उतने ही बेहतरीन कॉमेडियन और उतने ही भावपूर्ण रोमांटिक कलाकार थे। दिलचस्प बात यह है कि धर्मेंद्र ने तीन पीढ़ियों का मनोरंजन किया। जहां वे बलराज साहनी, राज कपूर, संजीव कुमार और अमिताभ बच्चन जैसे दिग्गजों के साथ काम कर चुके थे, वहीं वे रणवीर सिंह, शाहिद कपूर और आलिया भट्ट जैसे आज के सितारों के साथ भी पर्दे पर उतरते हुए दिखे। 65 साल का करियर किसी कलाकार को किंवदंती बना देता है पर धर्मेंद्र की निरंतर सक्रियता उन्हें उससे भी कहीं ऊपर ले जाती है, वह एक जीवित विश्वविद्यालय थे अभिनय का, सहजता का, विनम्रता का। अपने परिवार के प्रति उनका प्रेम भी असाधारण था। सनी देओल और बॉबी देओल के प्रति उनका भावनात्मक रिश्ता, हेमा मालिनी के साथ उनके जीवन का अध्याय, उनकी बेटियां ईशा और अहाना, उनकी व्यक्तिगत कहानी किसी उपन्यास से कम नहीं। 13 नाती-पोते, बड़ी विरासत, जीवन की आखिरी सांसें उन्होंने अपने फार्म हाउस में बिताई। लाखों लोगों द्वारा पूजा जाने वाला यह कलाकार अंत में लौट गया अपने मूल की ओर, धरती, सादगी, प्रकृति। 2025 में उनकी आंख की कॉर्निया ट्रांसप्लांट सर्जरी हुई थी। कमजोर होते शरीर, टूटती ताकत, उम्र की थकान, इन सबके बावजूद वह कैमरे से दूर नहीं हुए। तेरी बातों में ऐसा उलझा जिया और रॉकी और रानी की प्रेम कहानी जैसी नई पीढ़ी की फिल्मों में भी उनका वही पुराना करिश्मा दिखा, वही मुस्कान, वही गर्मजोशी। किसी भी महान कलाकार की पहचान यही होती है कि समय बदल जाए पर उसकी चमक न बदले, धर्मेंद्र इस कसौटी पर हमेशा खरे उतरे। 31 अक्टूबर 2025 को जब उन्हें मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ती कराया गय, तो पूरे देश की धड़कनें मानो थम गई थी। 12 नवंबर को जब उन्हें घर भेजा गया तो उम्मीदों की किरण जग उठी थी। वे अपने घर में इलाज के बीच जीवन जी रहे थे पर नियति ने शायद फैसला कर लिया था। 24 नवंबर को वह खबर आई, जिसने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया ‘भारतीय सिनेमा का ‘ही-मैन’ अब हमारे बीच नहीं है।’ लाखों लोगों ने रोकर उन्हें याद किया। फिल्मी दुनिया, राजनीति, खेल, साहित्य, हर क्षेत्र से श्रद्धांजलि की बाढ़ आ गई। सोशल मीडिया पर उनके संवाद, उनके वीडियो, उनकी पुरानी तस्वीरें उमड़ पड़ी। प्रधानमंत्री से लेकर सामान्य नागरिक तक, हर किसी ने स्वीकार किया कि धर्मेंद्र का जाना एक युग का अंत है। पर क्या महान लोग वास्तव में मर जाते हैं? शायद नहीं। धर्मेंद्र केवल चले गए हैं पर वे रहेंगे हर उस दिल में, जिसने कभी उनकी फिल्म देखी हो। वे रहेंगे उस बच्चे की हंसी में, जिसने चुपके चुपके देखी, उस युवती की आंखों की चमक में, जिसने उनकी रोमांटिक फिल्मों का आनंद लिया, उस युवक की रगों में दौड़ते साहस में, जिसने उन्हें स्क्रीन पर लड़ते हुए देखा। धर्मेंद्र वह अध्याय हैं, जिसे समय कभी बंद नहीं कर सकेगा। उनकी फिल्में, उनका व्यक्तित्व, उनका विनम्र स्वभाव और उनका अटूट मानवीयपन सिनेमा के इतिहास में अमर रहेगा। वह जमीन से उठकर आकाश तक पहुंचने की वह कहानी हैं, जिसे हर माता-पिता अपने बच्चे को सुनाता रहेगा। उनकी विदाई पर बस इतना ही कहना पर्याप्त नहीं कि ‘हमने एक अभिनेता खो दिया।’ वास्तव में हमने वह जीवन खो दिया, जो अभिनय की आत्मा था, वह मुस्कान खो दी, जो हर पीढ़ी का संबल थी, वह इंसान खो दिया, जो किसी शहर में नहीं, करोड़ों दिलों में बसता था। हम, उनके चाहने वाले, उनकी फिल्मों, उनकी यादों और उनके संवादों में उन्हें सदा जीवित रखेंगे। सदाबहार, अद्वितीय, विलक्षण अभिनेता धर्मेंद्र को शत-शत नमन। (लेखक साढ़े तीन दशक से पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार हैं) ईएमएस/24/11/2025