लेख
29-Nov-2025
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आयकर अधिनियम की धारा 269एसएस बनाम नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट धारा 138 चेक बाउंस देनदारी वैश्विक स्तरपर भारतीय कानूनी ढांचा बहुस्तरीय बहु- आयामी और बहु-विषयक है।भारतीय विधिक व्यवस्था दुनियाँ की सबसे विस्तृत,जटिल और बहु-स्तरीय प्रणालियों में से एक है। यहां संविधान के अंतर्गत संसद और राज्य विधानसभाएँ कानून बनाती हैं, न्यायालय इनके अर्थ और दायरे को निर्धारित करते हैं, और विभिन्न नियामक संस्थाएँ इन कानूनों के अनुपालन की निगरानी करती हैं। इस व्यापक ढांचे में एक दिलचस्प और अक्सर विवादास्पद तथ्य यह है कि कई बार विभिन्न कानूनों की अलग-अलग धाराएँ एक ही व्यवहार को लेकर विपरीत स्थिति प्रकट करती हैं। कहीं कोई कृत्य एक कानून में प्रतिबंधित है,तो दूसरा कानून उसी कृत्य को अपराध यादायित्व का आधार मान लेता है। यही विरोधाभासी संरचना न्यायिक बहस, विधिक भ्रम, और कई बार विवादों का कारण बनती है।अक्सर एक नागरिक, एक व्यवसायी या एक संस्था एक ही घटना के परिणाम स्वरूप कई कानूनों के दायरे में एक साथ आ सकती है। इससे कई बार यह भ्रम पैदा होता है कि यदि किसी एक कानून का उल्लंघन हुआ है,तो क्या उसका प्रभाव दूसरे कानून के दायित्वों पर भी पड़ेगा? मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह रिसर्च कियाहूँ कि भारतीय कानूनी प्रणाली में ऐसे अनेक उदाहरण है (1) सिविल बनाम क्रिमिनल दायित्व: एक ही घटना, दो मुकदमे उदाहरण- धोखाधड़ी आईपीसी की धारा 420- आपराधिक धोखाधड़ी, भारतीय संविदा अधिनियम 1872-अनुबंध उल्लंघन-एक ही घटना में पीड़ित,सिविल सूट में हर्जाना ले सकता है,और आपराधिक मामला दर्ज कर सकता है।यानी एक कृत्य दो कानूनों में अलग पहचान रखता है। (2) घरेलू विवाद-परिवारिक कानून बनाम आपराधिक कानून-धारा 498ए आईपीसी- क्रूरता एक आपराधिक अपराध- हिंदू विवाह अधिनियम,1955- क्रूरता तलाक का आधार-यहां वही व्यवहार एक कानून में अपराध है,दूसरे में वैवाहिक अधिकार समाप्ति का आधार। (3) कंपनी कानून बनाम आपराधिक कानून- कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 447-धोखाधड़ी पर कारावास आईपीसी की धारा 406/420- आपराधिक विश्वासघात/धोखाधड़ी कंपनी के निदेशक पर एक साथ दोनों लागू हो सकते हैं। इसका मतलब-एक व्यवसायिक विफलता को इस बात पर परखा जाता है कि उद्देश्य भ्रष्ट था या नहीं। (4) पर्यावरण कानून बनाम दंड संहिता- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम,1986दंड प्रशासनिक /विशेषआईपीसी की धारा 268 (पब्लिक न्यूसेन्स), सार्वजनिक कष्ट अपराध एक ही प्रदूषणकारी कृत्य दो अलग- अलग परिणाम दे सकता है। (5) पीएमएलए बनाम आईपीसी- एक अपराध, दो कानून पीएमएलए (धनशोधन कानून) -अपराध से अर्जित धन की धुलाई, आईपीसी अपराध-मूल अपराध यहां पीएमएलए द्वितीयक अपराध है। मूल अपराध आईपीसी में दर्ज होगा, पर धनशोधन अलग अपराध है-दोहरी जिम्मेदारी।(6)कर कानून बनाम अनुबंध कानून-कई बार अनुबंध वैध होता है, पर उसमें कर चोरी हो सकती है परंतु टैक्स दंड लगेगा, पर अनुबंध जारी रहेगा।(7) इंश्योरेंस कानून बनाम फौजदारी कानून में किसी दुर्घटना में अपराध हुआ हो फिर भी बीमा कंपनी को मुआवजा देना पड़ सकता है, क्योंकि दोनों के दायरे अलग हैं।(8) दिवालियापन संहिता बनाम कंपनी अधिनियम -आईबीसी में देनदारी वसूली प्राथमिक है, जबकि कंपनी अधिनियम प्रशासनिक विनियमन को नियंत्रित करता है।(9) आपराधिक कानून बनाम सिविल कानून-एक ही घटना में व्यक्ति:सिविल क्षतिपूर्ति देने का दायित्व रख सकता हैऔर साथ ही आपराधिक मुकदमे का सामना भी यानें -एक कानून का उल्लंघन दूसरेदायित्व को खत्म नहीं करता।यही प्रश्न विशेष रूप से तब उभरता है, जब इन्कम टैक्स एक्ट,1961 की धारा 269एसएस, जो 20,000 हज़ार से अधिक नकद उधार/ऋण/जमा लेने पर रोक लगाती है,और नेगोटिबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138, जो चेक बाउंस होने परआपराधिक दायित्व बनाती है, एक साथ सामने आएं।क्या यह संभव है कि यदि लेन-देन 20,000 हज़ार से अधिक नकद में हुआ और यह धारा 269एसएस का उल्लंघन था, तो चेक बाउंस के मामले में देनदारी ही समाप्त हो जाए? क्या आरोपी यह तर्क दे सकता है कि लेन-देन अवैध था, इसलिए वह चेक के भुगतान का दायित्व नहीं रखता? इस प्रश्न का उत्तर भारतीय विधि-व्यवस्था के मूल सिद्धांतों, न्यायालयों के निर्णयों, और अंतरराष्ट्रीय विधि-शास्त्रीय समझ के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है। एक माह पूर्व इस संबंध में दिल्ली हाई कोर्ट का एक महत्वपूर्ण निर्णय भी आया है। साथियों बात अगर हम भारत में कानूनों की संरचना की करें तो, कानूनों की बहु-स्तरीय रचना: विरोधाभास क्यों उत्पन्न होते हैं?भारत में कानून तीन मुख्य क्षेत्रों में निर्मित होते हैं-(1) संवैधानिक कानून (2) सामान्य/दंड कानून (जैसे आईपीसी, सीआरपीसी),(3) विशेष कानून जैसे आयकर अधिनियम, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम,कंपनियों अधिनियम बैंकिंग विनियमन अधिनियम, एफईएमए,पीएमएलए आदि।जब विभिन्न समयों, उद्देश्यों और परिस्थितियों में बनाए गए कानून समान तथ्यात्मक स्थिति पर लागू होते हैं, तो इनकी परिभाषाएँ, दंड, प्रक्रियाएँ और दायित्व एक-दूसरे से भिन्न दिखाई देते हैं। यही कानूनी विरोधाभास की अनुभूति उत्पन्न करता है। असल में यह विरोधाभास नहीं बल्कि मल्टी-लेयर ज्यूरीडिकल स्ट्रक्चर है,जहां हर कानून का लक्ष्य अलग है।उदाहरणतः-एक कानून व्यवहार को नियंत्रित करता है, दूसरा उसी व्यवहार में विफलता को दंडित करता है। साथियों बात अगर हम आयकर अधिनियम 1961 की धारा 269 एसएस व एनआई एक्ट धारा 138 को समझने की करें तो नकद लेन-देन पर रोक का उद्देश्य,यह धारा क्या कहती है?इन्कम टैक्स एक्ट की धारा 269एसएस कहती है कि कोई भी व्यक्ति 20,000 हज़ार से अधिक का ऋण, उधार या जमा नकद में नहीं ले सकता।ऐसा करने पर यह एक फिस्कल यानी राजस्व से संबंधित उल्लंघन माना जाता है।इस धारा का उल्लंघन कोई सिविल या क्रिमिनल कॉन्ट्रैक्ट को निरस्त नहीं करता, बल्कि केवल आयकर कानून के तहत पेनल्टी (धारा 271डी) को जन्म देता है। अर्थात:यह कर-शास्त्रीय दंड है, न कि लेन-देन को अवैध घोषित करने वाला प्रावधान। धारा 138 एनआई एक्ट-चेक बाउंस पर क्रिमिनल देनदारी-यदि कोई व्यक्ति चेक जारी करता है और वह बाउंस हो जाता है, और उसका भुगतान वैधानिक नोटिस के बाद भी नहीं किया जाता, तो: यह आपराधिक अपराध माना जाता है,सज़ा, जुर्माना और देय राशि का भुगतान कानूनन अनिवार्य हो जाता है।अब मुख्य प्रश्न उठता है क्या 269SS का उल्लंघन 138 की देनदारी को खत्म करता है?भारतीय न्यायालयों ने लगातार कहा है कि: (1) 269SS एक टैक्स-लॉ उल्लंघन है, न कि लेन-देन को अवैध बनाने वाला प्रावधान। (2) लेन-देन भले ही नकद हुआ हो, पर ऋण अस्तित्व में बना रहता है। (3) यदि ऋण वास्तविक है और उसके भुगतान हेतु चेक जारी हुआ है, तो चेक बाउंस का दायित्व पूर्ण रूप से लागू होगा। यही स्थितिअंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण में भी साफ झलकती है।अमेरिका -टैक्स उल्लंघन का कॉन्ट्रैक्ट दायित्वों पर कोई प्रभाव नहीं,चेक बाउंस (चेक फ़्रॉड लॉ) अलग अपराध।यूके- कैश ट्रांसक्शन लिमिट्स का उल्लंघन फिसकल ऑफन्स है,पर कमर्शियल लाइबिलिटी रिमेंस इटेक्ट,यूरोपीय संघ-फाइनेंसियल ट्रांसपेरेंसी लॉ नॉट कॉन्ट्रैक्ट इनवैलिडेशन।अर्थात:भारत का दृष्टिकोण वैश्विक मानकों के अनुरूप है। अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विशेषण करें तो हम पाएंगे कि विरोधाभास नहीं- बहु-उद्देशीय न्याय व्यवस्था,पहली दृष्टि में भारतीय कानूनों की कई धाराएँ एक-दूसरे के विरुद्ध प्रतीत होती हैं। लेकिन गहराई से विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि, हर कानून समाज के अलग पहलू को नियंत्रित करने के लिएबनाया गया है।इन विश्लेषणों से स्पष्ट होता है कि भारतीय कानूनों के बीच दिखने वाला विरोधाभास वास्तव में विधायी उद्देश्यों की विविधता का परिणाम है न कि संरचनात्मक त्रुटि। हालांकि यह भी सत्य है कि जनता और व्यवसायों के लिए स्पष्टता की कमी एक बड़ी चुनौती है। इसलिए यह आवश्यक है कि कानूनों में समन्वय, भाषा में सरलता और क्रॉस-रेफरेंसिंग प्रणाली को मजबूत किया जाए ताकि नागरिकों को यह समझने में आसानी हो कि किस स्थिति में कौन सा कानून लागू होगा। विधिक जागरूकता,डिजिटल विधिक डेटाबेस और स्पष्ट विधायी मार्गदर्शन इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।भारतीय विधिक ढांचा विरोधाभासों का समूह नहीं बल्कि बहु-उद्देशीय न्याय व्यवस्था का विकसित स्वरूप है। प्रत्येक कानून समाज के किसी विशिष्ट हिस्से की रक्षा करता है और यही कारण है कि एक ही घटना पर कई कानून अलग- अलग परिणाम दे सकते हैं।इनविरोधाभासों का समाधान समझ में है, समन्वय में है और इस स्वीकार में है कि न्याय केवल एक आयाम का स्वरूप नहीं बल्कि अनेक धाराओं का संतुलित संगम है। यदि इस संतुलन को सही ढंग से समझा जाए तो परस्पर-विरोध की यह प्रतीत होने वाली संरचना वास्तव में भारतीय न्याय व्यवस्था की परिपक्वता और व्यापकता का प्रमाण बन जाती है। (-संकलनकर्ता लेखक - क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी)) ईएमएस/29/11/2025