लेख
18-Dec-2025
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- काकोरी कांड: आजादी के संघर्ष का अमर अध्याय (काकोरी शहीद दिवस (19 दिसम्बर) पर विशेष) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास केवल राजनीतिक आंदोलनों, प्रस्तावों और समझौतों का क्रम नहीं है बल्कि यह उन असंख्य क्रांतिकारियों की त्यागमयी गाथा भी है, जिन्होंने मातृभूमि की आजादी के लिए अपने जीवन का सर्वोच्च बलिदान दिया। इन बलिदानों ने गुलामी की जड़ों को भीतर से हिलाया और जनता के मन में यह विश्वास जगाया कि अंग्रेजी हुकूमत अजेय नहीं है। ऐसी ही एक ऐतिहासिक और निर्णायक घटना है काकोरी कांड, जिसने न केवल ब्रिटिश सत्ता को गहरी चुनौती दी बल्कि भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन को एक नई दिशा और ऊर्जा प्रदान की। काकोरी कांड भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का वह अध्याय है, जिसने यह सिद्ध कर दिया कि आजादी केवल याचिकाओं और प्रार्थनाओं से नहीं मिलेगी बल्कि उसके लिए साहस, संगठन और बलिदान की आवश्यकता होगी। यही कारण है कि काकोरी कांड में शामिल क्रांतिकारियों को केवल इतिहास के पात्र नहीं बल्कि क्रांति की नींव रखने वाले शूरवीर माना जाता है। उनकी शहादत की स्मृति में हर वर्ष 19 दिसम्बर को काकोरी शहीद दिवस मनाया जाता है, जो हमें स्वतंत्रता की कीमत और उसकी रक्षा की जिम्मेदारी का बोध कराता है। बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में भारत का राजनीतिक परिदृश्य तीव्र परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन ने देश में जन-जागरण की लहर पैदा की थी। 1920 में शुरू हुआ यह आंदोलन ब्रिटिश शासन के लिए एक गंभीर चुनौती बन गया था लेकिन फरवरी 1922 में चौरी-चौरा कांड के बाद गांधी जी द्वारा आंदोलन वापस लिए जाने से देश के एक बड़े वर्ग, विशेषकर युवा क्रांतिकारियों में गहरी निराशा फैल गई। वे मानते थे कि जब अंग्रेज दमन और हिंसा का सहारा ले रहे हैं, तब केवल अहिंसा के माध्यम से आजादी पाना कठिन है। यही वह ऐतिहासिक मोड़ था, जहां से संगठित क्रांतिकारी आंदोलन ने नई दिशा पकड़ी। निराश लेकिन दृढ़ निश्चयी युवाओं ने यह ठान लिया कि वे किसी भी कीमत पर स्वतंत्रता के लक्ष्य से पीछे नहीं हटेंगे। इसी सोच के परिणामस्वरूप 1923 में शचीन्द्रनाथ सान्याल के नेतृत्व में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) की स्थापना हुई। इस संगठन का उद्देश्य केवल ब्रिटिश शासन का विरोध करना नहीं बल्कि एक ऐसे स्वतंत्र, गणराज्यात्मक भारत की स्थापना करना था, जहां शोषण और अन्याय का कोई स्थान न हो। एचआरए के प्रमुख सदस्यों में राम प्रसाद बिस्मिल, योगेशचंद्र चटर्जी, शचीन्द्रनाथ बख्शी जैसे साहसी क्रांतिकारी शामिल थे। बाद में चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह जैसे तेजस्वी क्रांतिकारी भी इस विचारधारा से जुड़े। संगठन का स्पष्ट मत था कि क्रांति के लिए संसाधन चाहिए और संसाधनों के लिए धन। लेकिन चंदा मांगना न केवल संगठन की गोपनीयता को खतरे में डाल सकता था बल्कि अंग्रेजी खुफिया तंत्र को भी सतर्क कर सकता था। ऐसे में निर्णय लिया गया कि ब्रिटिश सरकार के ही खजाने को निशाना बनाया जाए। इस विचार को कार्यरूप देने की जिम्मेदारी संगठन के सेनापति पं. राम प्रसाद बिस्मिल को सौंपी गई। प्रारंभिक प्रयासों में क्रांतिकारियों ने कुछ धन जुटाने की कोशिश की, लेकिन वह हथियारों और क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए पर्याप्त नहीं था। अंततः यह निर्णय लिया गया कि सीधे सरकारी खजाने पर हाथ डाला जाए। यह फैसला न केवल साहसिक था बल्कि अत्यंत जोखिम भरा भी, क्योंकि असफलता की स्थिति में इसका परिणाम मृत्यु या आजीवन कारावास हो सकता था। 8 अगस्त 1925 को बिस्मिल के घर एक गुप्त बैठक हुई, जिसमें ब्रिटिश सरकार के खजाने को लूटने की विस्तृत योजना बनाई गई। अगले ही दिन 9 अगस्त 1925 को एचआरए के दस क्रांतिकारी सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन में सवार हुए। इनमें राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, चंद्रशेखर आजाद, राजेंद्र लाहिड़ी, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुरारी शर्मा, बनवारी लाल, केशव चक्रवर्ती और मुकुंदी लाल शामिल थे। लखनऊ के निकट काकोरी रेलवे स्टेशन के पास ट्रेन की चेन खींचकर उसे रोका गया। योजना के अनुसार, राजेंद्र लाहिड़ी ने नेतृत्व संभाला और कुछ ही क्षणों में सरकारी खजाने को कब्जे में ले लिया गया। यह कार्रवाई इतनी सुनियोजित थी कि यात्रियों को अधिक नुकसान नहीं हुआ। हालांकि दुर्भाग्यवश एक आकस्मिक गोली चलने से एक यात्री की मृत्यु हो गई, जिसे बाद में ब्रिटिश सरकार ने पूरे मामले को और अधिक संगीन बनाने के लिए प्रमुख आधार बनाया। इस लूट में कुल 4601 रुपये प्राप्त हुए, जो उस समय एक बड़ी राशि थी। अगले ही दिन यह खबर अखबारों के माध्यम से पूरे देश और विदेश में फैल गई। लंदन के हाउस ऑफ कॉमन्स तक में इस घटना की चर्चा हुई। ब्रिटिश सरकार हिल गई और उसने इसे अपनी सत्ता के लिए खुली चुनौती माना। इसके बाद जो दमनचक्र चला, वह भारतीय इतिहास के सबसे कठोर अभियानों में से एक था। ब्रिटिश सरकार ने एचआरए के लगभग 40 क्रांतिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाया। लंबी सुनवाई और कठोर पूछताछ के बाद अंग्रेजी अदालत ने चार क्रांतिकारियों को फांसी की सजा सुनाई। राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को 17 दिसम्बर 1927 को गोंडा जेल में फांसी दी गई। इसके दो दिन बाद 19 दिसम्बर 1927 को राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान और रोशन सिंह को अलग-अलग जेलों में फांसी दे दी गई। इन फांसियों ने पूरे देश को झकझोर दिया। हिंदू-मुस्लिम एकता की अद्भुत मिसाल बने बिस्मिल और अशफाक की मित्रता ने यह सिद्ध कर दिया कि स्वतंत्रता संग्राम किसी एक धर्म या समुदाय का नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र का संघर्ष था। उनकी शहादत ने असहयोग आंदोलन के बाद ठहर गई क्रांतिकारी चेतना को फिर से प्रज्वलित कर दिया। काकोरी कांड का सबसे अनछुआ पहलू यह है कि यह केवल धन लूट की घटना नहीं थी बल्कि यह एक वैचारिक विद्रोह था, जिसका उद्देश्य अंग्रेजी शासन की नैतिक वैधता को चुनौती देना और यह संदेश देना था कि भारत अब दासता स्वीकार नहीं करेगा। इस घटना ने आगे चलकर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं को भी गहराई से प्रभावित किया। आज, जब हम काकोरी शहीद दिवस मनाते हैं तो यह केवल अतीत को स्मरण करने का अवसर नहीं है बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए प्रेरणा लेने का दिन है। काकोरी के शूरवीरों ने हमें सिखाया कि स्वतंत्रता केवल अधिकार नहीं बल्कि कर्त्तव्य भी है उसकी रक्षा का, उसकी गरिमा बनाए रखने का। काकोरी कांड के शहीदों का बलिदान भारतीय इतिहास में सदैव अमर रहेगा। उनका साहस, त्याग और राष्ट्रप्रेम आने वाली पीढ़ियों को यह याद दिलाता रहेगा कि भारत की आजादी यूं ही नहीं मिली बल्कि इसके पीछे अनगिनत वीरों का लहू बहा है। भारत आज भी उनका ऋणी है और सदैव रहेगा। (लेखक साढ़े तीन दशक से पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार हैं) ईएमएस/ 18 दिसम्बर 25