अभी क्रिसमस 25 दिसंबर को आ रहा जो ख़ासकर ईसाई लोग मानते है उस पर बहुत सारे लोग टीका टिप्पणी में लगे रहते है जो सही नहीँ है पहले खुद को देखिये भगवान राम हर शरीर में आत्मा के रूप में प्रत्येक देहधारी के हृदय में विराजमान हैं लेकिन सच्चे आदमी को सकारात्मक लगता है और दुष्ट आदमी में वह दबा रहता है लेकिन साधारणतया मनुष्य का ध्यान भगवान राम में भी राजनीती सौदेबाजी करता है उसमें बाह्य विषयरूप जगत की ओर ही रहता है इसलिए वह भगवान राम को जान नहीं पाता है लेकिन जो पुण्यात्मा लोग होते हैं तथा जिन पर भगवान राम की कृपा होती है ऐसे महापुरुष अपना ध्यान बाह्य जगत से हटाकर अपने अन्दर हृदय की ओर भगवान राम को स्थिर करते हैं , इस प्रकार बार-बार जीवन पर्यन्त अपने हृदय में भगवान के होने का अनुभव करने से पता नहीं वह माखनचोर कब आपके हृदय में प्रकट हो जाय । यदि प्रकट नहीं भी होते राम की साधना ही भगवान है । वह तो सदैव आपके पास रहती ही है । राम आपके : आत्मा के रूप में है, कण कण में है ये अलग बात है। उनका साकार स्वरूप जहां प्रकट हो दीन के रूप में जहाँ भी उनका पूरा आदर और सम्मान किया जाए ये भक्त की भावना से जुड़ी हुई बात है। किसी भी धर्म का अपमान नहीं होना चाहिए तो यदि आप क़ोई 25 दिसंबर को क्रिसमस नहीं मानते हैं और क़ोई इसे मनाना जारी रखते हैं तो उस व्यक्ति का हृदय दुखेगा। इसका अर्थ यह हो गया कि अपने पाप किया है। यही भागवत गीता की पाप और पुण्य की परिभाषा है। मुझको भी बहुत गुस्सा आती थी और अभी भी आपको जानकर आश्चर्य होगा मैं अपनी सोसाइटी के डस्टबिन में से यदि कोई फोटो या फ्रेम टूटा होता है और वह फोटो पूरी होती है या नहीं भी होती है तो उसको बाहर लाकर साफ करके कहीं पवित्र स्थान पर रखता हूं और अगर फटी भी होती है तो उसको केले की जड़ में डालता हूं जिससे खादबन जाए। दक्षिण भारत में यह बहुत गंदी आदत है जरा सा भी फ्रेम अगर किसी का टूट जाए तो वह पूरी फोटो कचरे में डाल देते हैं सड़क के किनारे और मैं सड़क के किनारे से अनेक फोटो उठाकर उनका साफ करके अपने घर में स्थान दिया है। जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि। जब हमको सर्वत्र ब्रह्म दिखता है तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम उसके साकार रूप के प्रयास का अपमान करें यह सहें।: शिष्य का कर्तव्य है कि सद्गुरू द्वारा उपदेश पर लक्ष्य रखें। गुरु शिष्य सम्बन्ध आत्मिक है, केवल दिखावे अथवा कहने मात्र का नहीं। जगत में चार प्रकार के लोग होते हैं 1..जो न स्वयं खाते हैं, न खाने देते हैं।मरने के पश्चात इनका धन दूसरे उपयोग करते हैं। 2..जो स्वयं खाते हैं पर दूसरों को खाने नहीं देते हैं। ऐसे व्यक्तियों का धन भी उनकी मृत्यु के पश्चात दूसरे उपभोग करते हैं। 3..जो स्वयं भी खाते हैं, तथा दूसरों को भी खिला कर प्रसन्न रखते हैं। 4.. जिनके अपने लिए बचे न बचे, दूसरों को खिला कर ही उनको संतोष होता है। आगंतुकों , अतिथियों की सेवा अपना परम धर्म मानते हैं। ऐसे भक्तों का जीवन तपोमय होता है।वे प्राणी मात्र में अपने राम के ही दर्शन करते हैं। आज के स्वार्थ परायण युग में आध्यात्म की बातें लोगों को समझ नहीं आती। उसमें चौथे वर्ग के अनुसार चल पाना बहुत कठिन है। किंतु तीसरे वर्ग के अनुसार चलते हुए उदार चित्त तो बना ही जा सकता है जो भी व्यक्ति पूर्वजन्म में योगी होता है , वाल्यावस्था से ही उसका अन्त:करण भगवान राम के अलौकिक आनन्द से भरा रहता है जिसे वह नहीं जानता कि मेरे अन्त:करण में ऐसा आनन्द क्यों है । जैसे-जैसे उसकी अवस्था बढ़ती है तो उसके आनन्द में कमी होने लगती है लेकिन वह भगवान राम की उपासना करने लगता है । एक ऐसी स्थिति आती है कि या तो शास्त्रों के अध्यन से अथवा गुरू के उपदेश से उसे ब्रह्मसाक्षात्कार हो जाता है । ब्रह्मसाक्षात्कार होने पर उसे बाल्यावस्था जैसा अलौकिक आनन्द प्राप्त हो जाता है तभी वह जान पाता है कि बाल्यावस्था में मुझे ब्रह्म का अलौकिक आनन्द प्राप्त था। अपने अहंकार से स्वयम् को अलग करने पर व्यक्ति को जो अनुभव होता है वही ब्रह्म है । सदा रहो रघुपति के दासा : राम रसायन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल। कबीर पीवन दुर्लभ है, मांगै सीस कपाल । कहा बह जाते मन भी है और स्वप्न भी है : एक को पकडो क़ोई शरीर खेल रहा कभी वो मंदिर कभी जाता है लेकिन ध्यान कहीं और में होता है तुम कहां होते [मन, बुध्दि में घुसा जा रहा,विवेक पता नहीं कहां बैठा,प्रज्ञा ,बुध्दि में विलय,तीनों गुण अपना तांडव मचा रहे, पंचतत्व रुष्ट हैं,आत्मा दब गयी, परमात्मा न जाने कहां गयी, [ संसारः चित्तकृतो ह्येष चित्तनिर्वेदाद् भवति निवृत्तिः। ये राम जी को उनके गुरु महर्षि वसिष्ठ जी ने उपदेश दिया भगवान राम के नाम से संसार चित्त से उठता है और चित्त ब्रहम का स्पंदन है ऐसा जानकर तुम स्वरुप में स्थित हो योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। यह पतंजलि योगसूत्र का प्रथम सूत्र है, जो योग की परिभाषा [चित्त जब स्पंदित होता तो जागृत जब निसपंदित तो सुषुप्ति दोनों ही जहां से उठे वैसे ही स्थित जगत भी ब्रहम और राम का नाम ब्रहम है जो जगत है यही आचार्य शंकर ने कहा यथा राम का ध्यान करो किसी से भी न डरो तुम अकाट्य अचल अग्नि वायू और जल भी नष्ट नहीं कर सकता फिर शरीर धारी से क्या डरना मृत्यु छु नहीं सकती उससे कैसा भय [ चित्त से उठे सब पदार्थ आकाश रुप उन्हें पाने और छोड़ने का क्या विचार करना ये मिल जाये ऐसा बन जाऊं ऐसा हो तो अच्छा यही अविधा सब दुःखों का कारण है क्योंकि आकाश को मुढढी में बांधा नहीं जा सकता इसलिए शांत होकर पाने होने और खोने से रहित हो सवरुप में सथिती : - श्वेताश्वतरोपनिषद् निष्कलं निष्क्रिय शान्तं निरवद्यं निरञ्जनं। अमृतस्य परंसेतुं दग्धेन्धनमिवानलम्।।(6-19) अर्थ समस्त कलाओं से रहित , क्रियारहित , सर्वथा शान्त,निर्दोष, निर्मल, अमृत के परम सेतु रूप तथा जले हुए ईंधन से युक्त अग्नि की भांति उन परमात्मा का चिंतन करताहूं। भाष्य धधकते अंगारे में जैसे अग्नि व्याप्त रहती है वैसे ही इस जगत में ब्रह्म व्याप्त है । जब ईंधन का पार्थिव अंश पूर्णतया भस्म हो जाता है तभी अंगारे में अग्नि धधकती है और जब तक पार्थिव अंश विद्यमान रहता है तब तक अग्नि धुएं के साथ जलती रहती है , लेकिन धधकती नहीं है । इसी प्रकार पुरुष में जब तक पार्थिव अंश अर्थात अहंकार विद्यमान है तब तक उसे धुवां अर्थात संसार ही दिखता है लेकिन जब अहंकार पूर्णतया नष्ट हो जाता है तो ब्रह्म उसी प्रकार प्रकट हो जाता है जैसे धधकते अंगारे में अग्नि स्पष्ट दिखाई देने लगती है । धधकते अंगारे में अग्नि निराकार, निष्क्रिय, शान्त, निर्दोष, निर्मल होते हुए भी वह अंगारे से सर्वथा रहित होती है । इसी प्रकार ब्रह्म, इस चराचर व परिवर्तनशील जगत में समस्त कलाओं से रहित , निराकार, क्रियारहित, सर्वथा शान्त,निर्दोष,निर्मल व सर्वत्र व्याप्त होता हुआ भी इस जगत से सर्वथा रहित है । इस प्रकार से जो भी साधक परमात्मा को जान लेता है वह जन्म-मृत्यु से रहित होकर परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है । शरीर में प्लाज्मा रक्त का हल्का पीला, तरल भाग है जो लगभग 55% होता है, जिसमें पानी (92%), प्रोटीन (जैसे एल्ब्यूमिन, एंटीबॉडी), शर्करा, वसा, हार्मोन और खनिज लवण घुले होते हैं; यह लाल और श्वेत रक्त कोशिकाओं तथा प्लेटलेट्स को ढोता है, और रक्तचाप, पीएच संतुलन बनाए रखने तथा पोषक तत्वों और अपशिष्टों के परिवहन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जय श्रीराम के नाम से शरीर में प्लाज्मा बढता है: कौन सा प्लाज्मा। रक्त-प्लाज्मा (शरीर में), ऊर्जा-प्लाज्मा (प्राण, तेज, ओज),प्लाज्मा अवस्था जैसी ऊर्जा (चौथी अवस्था ठोस, द्रव, गैस से आगे) : पहले आप समझिए प्लाज्मा क्या होता है प्लाज्मा आधुनिक विज्ञान में वह अवस्था है जो न ठोस होती है न द्रव होता है और न गैस होती है। यह अवस्था इलेक्ट्रोप्लाटिंग की कंडीशन में अधिक पैदा होती है। यह अवस्था क्षणिक भी हो सकती है और लंबी अवस्था भी हो सकती है। भक्ति में यह इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि आपकी ऊर्जा यानी ओजस बढ़ता है। वास्तव में उच्च के बढ़ने से चेहरे पर चमक शांति के साथ रक्त बहुत शुद्ध हो जाता है। : इसमें नाभिक केंद्र सक्रिय हो सकता है सांस बहुत धीरे चल सकती है नाड़ियों में प्राण का प्रवाह बहुत संतुलित हो सकता है :तनाव भी कम होता है क्योंकि विज्ञान के हिसाब से हमारे शरीर के कण चार्ज होने लगते हैं। प्रकाश और कंपन होता है। शिष्य का कर्तव्य है कि सद्गुरू द्वारा उपदेश पर लक्ष्य रखें। गुरु शिष्य सम्बन्ध आत्मिक है, केवल दिखावे अथवा कहने मात्र का नहीं। जगत में चार प्रकार के लोग होते हैं 1..जो न स्वयं खाते हैं, न खाने देते हैं।मरने के पश्चात इनका धन दूसरे उपयोग करते हैं। 2..जो स्वयं खाते हैं पर दूसरों को खाने नहीं देते हैं। ऐसे व्यक्तियों का धन भी उनकी मृत्यु के पश्चात दूसरे उपभोग करते हैं। 3..जो स्वयं भी खाते हैं, तथा दूसरों को भी खिला कर प्रसन्न रखते हैं। 4.. जिनके अपने लिए बचे न बचे, दूसरों को खिला कर ही उनको संतोष होता है। आगंतुकों , अतिथियों की सेवा अपना परम धर्म मानते हैं। ऐसे भक्तों का जीवन तपोमय होता है।वे प्राणी मात्र में अपने राम के ही दर्शन करते हैं। आज के स्वार्थ परायण युग में आध्यात्म की बातें लोगों को समझ नहीं आती। उसमें चौथे वर्ग के अनुसार चल पाना बहुत कठिन है। किंतु तीसरे वर्ग के अनुसार चलते हुए उदार चित्त तो बना ही जा सकता है अतः आज जो मस्ती कर रहा वही कल कष्ट का कारण बनेगा आज तो राम को समझ गया वो कष्ट से मुक़्त होकर अपने मंजिल की ओर अग्रसर हो जाता है. पृथ्वी घूमती है जिससे दिन और रात होता है लेकिन उसी समय जो सत्य को पहचान कर भगवान राम को भजता रहता है उसे घूमने का अहसास होता है लेकिन जो माया के जाल में फंसा रहता है वो अन्त में उसी मकड़जाल में लिपट जाता है और जब राम नाम सत्य है का नारा अन्त समय में लिया जाता है उससे उसके सूक्ष्म शरीर को शांति मिलती है और फिर आत्मा इधर उधर भटकने लगती है जब भगवान राम के चरणविंद में अपने को पाता है तो नया शरीर मिलता है यही है दुनिया की सच्चाई अतः कर्म अच्छा करो और भगवान राम को याद करते रहो जीवन सफल हो जायेगा। (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) ईएमएस / 18 दिसम्बर 25