लेख
26-Dec-2025
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लोकसभा के हालिया सत्र में वंदे मातरम पर हुई चर्चा के दौरान प्रियंका गांधी का भाषण केवल एक संसदीय वक्तव्य भर नहीं था, बल्कि उसने कांग्रेस की आंतरिक राजनीति, उसके भविष्य और राष्ट्रीय राजनीति में बदलते समीकरणों की ओर भी इशारा किया। अपने संयत, आत्मविश्वासी और तथ्यपरक भाषण में प्रियंका ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सटीक और मर्यादित जवाब दिया। यह वही क्षण था, जब सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक, सदन के भीतर और बाहर, उनकी सराहना खुलकर हुई। वर्षों से आक्रामक और टकराव की राजनीति देखने का आदी हो चुका भारतीय संसदीय मंच, इस बार एक अलग तरह की विपक्षी आवाज़ का साक्षी बना।जो तीखी तो थी, लेकिन असभ्य नहीं, आलोचनात्मक तो थी, लेकिन संवाद के दरवाज़े बंद करने वाली नहीं।यह ठीक बात है।संसद पर किसी बात पर बहस करना अलग बात है।पर राजनीति के शिखर तक पहुंचना अलग बात है। प्रियंका गांधी ने अपने संसदीय क्षेत्र वायनाड के मुद्दों को भी पूरे दमखम के साथ उठाया। सड़क, परिवहन और आधारभूत ढांचे से जुड़े सवालों पर उन्होंने जिस तरह सड़क परिवहन मंत्री से समय मांगा, उसकी क्लिप सोशल मीडिया पर वायरल हो गई। यह केवल एक वायरल वीडियो नहीं था, बल्कि उस राजनीति का संकेत था जिसमें जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र के लिए अधिकारपूर्वक, लेकिन शालीनता के साथ, सरकार से जवाबदेही मांगता है। लंबे समय से कांग्रेस पर यह आरोप लगता रहा है कि उसके नेता या तो अत्यधिक आक्रामक हो जाते हैं या फिर ज़मीनी मुद्दों से कटे हुए प्रतीत होते हैं। प्रियंका का यह अंदाज़ दोनों धारणाओं को चुनौती देता दिखा। संसद सत्र के बाद लोकसभा स्पीकर ओम बिरला की टी-पार्टी में भी राजनीति का एक अलग ही दृश्य देखने को मिला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और प्रियंका गांधी के बीच खुली बातचीत और ठहाकों की तस्वीरें सामने आईं। यह दृश्य राहुल गांधी के उस तेवर से अलग था, जिसमें विरोध अक्सर तीखा और टकरावपूर्ण दिखाई देता है। प्रियंका का यह व्यवहार संकेत देता है कि कांग्रेस के भीतर एक ऐसा नेतृत्व भी मौजूद है, जो विरोध को संवाद के साथ जोड़ने की कोशिश कर रहा है। यह स्वस्थ तालमेल की राजनीति का संकेत है, जिसमें वैचारिक असहमति के बावजूद लोकतांत्रिक मर्यादाओं का पालन किया जाता है। इसी पृष्ठभूमि में ओडिशा की राजनीति का एक घटनाक्रम भी उल्लेखनीय है। कांग्रेस के पूर्व विधायक मोहम्मद मोकीम ने सार्वजनिक रूप से यह मांग की कि पार्टी की कमान प्रियंका गांधी को सौंपी जानी चाहिए। इसके तुरंत बाद उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। यह घटना कांग्रेस के भीतर चल रहे अंतर्विरोधों को उजागर करती है। एक ओर जमीनी स्तर पर और कुछ नेताओं के बीच प्रियंका के नेतृत्व को लेकर अपेक्षाएं हैं, दूसरी ओर संगठन का शीर्ष ढांचा किसी भी खुली बहस या वैकल्पिक नेतृत्व की मांग को असहजता से देखता है। वर्तमान स्थिति यह है कि प्रियंका गांधी कांग्रेस की महासचिव हैं, लेकिन उनके पास कोई स्पष्ट या बड़ा संगठनात्मक प्रभार नहीं है। इसके बावजूद, लोकसभा चुनाव में रायबरेली से राहुल गांधी की जीत में उनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। प्रचार, रणनीति और जनसंपर्क में प्रियंका की सक्रियता ने उस सीट को एक बार फिर कांग्रेस के लिए सुरक्षित बनाया। कांग्रेस की राजनीति का सार बन गया है।जिस नेता की लोकप्रियता और प्रभाव स्पष्ट है, उसे संगठनात्मक शक्ति देने में हिचक। प्रियंका गांधी की सार्वजनिक छवि भी लगातार चर्चा का विषय रही है। उनके हावभाव, बोलचाल, राजनीतिक तेवर और हालिया नई हेयरस्टाइल तक की तुलना उनकी दादी इंदिरा गांधी से की जा रही है। यह तुलना केवल बाहरी समानताओं तक सीमित नहीं है। इंदिरा गांधी की तरह प्रियंका में भी एक सहज आत्मविश्वास, सत्ता से आंख मिलाकर बात करने का साहस और जनता से सीधे संवाद की क्षमता दिखाई देती है। फर्क यह है कि इंदिरा गांधी का युग एकदलीय प्रभुत्व का युग था, जबकि प्रियंका गांधी का समय गठबंधन, सोशल मीडिया और तीव्र राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का दौर है। आज कांग्रेस पूरे देश में अपने जनाधार को लेकर गहन चिंतन में लगी हुई है। पार्टी के भीतर ही कई नेताओं को भरोसा नहीं है कि कांग्रेस दोबारा उसी मजबूती से खड़ी हो सकेगी, जैसी वह कभी हुआ करती थी। लगातार चुनावी हार, नेतृत्व को लेकर अस्पष्टता और वैचारिक भ्रम ने कार्यकर्ताओं के मनोबल को कमजोर किया है। इसके बावजूद, एक वर्ग ऐसा भी है जो उम्मीद लगाए बैठा है कि कांग्रेस किसी न किसी रूप में पुनरुत्थान करेगी। प्रियंका गांधी का उभार इसी उम्मीद का प्रतीक बनता जा रहा है।इमरान मसूद ने प्रियंका की डिमांड की बात पर हामी भरी है।लेकिन यह कहा तक सही लगता है। क्योकि केवल व्यक्तित्व या भाषण से पार्टी का भविष्य तय नहीं होता। कांग्रेस को अपनी सोच में बुनियादी बदलाव करने होंगे। लंबे समय तक चली तुष्टीकरण की राजनीति ने पार्टी को कुछ सीमित वर्गों तक समेट दिया, जबकि व्यापक मतदाता वर्ग उससे दूर होता चला गया। अब समय है कि विकास को नए मापदंडों के साथ प्रस्तुत किया जाए।ऐसे मापदंड जो केवल घोषणाओं तक सीमित न हों, बल्कि ज़मीनी बदलाव दिखाएं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और बुनियादी ढांचे पर ठोस और विश्वसनीय नीति ही कांग्रेस को फिर से प्रासंगिक बना सकती है। इसके साथ ही, विदेशों में जाकर भारतीय लोकतंत्र की आलोचना करने की प्रवृत्ति पर भी कांग्रेस को आत्ममंथन करना होगा। आंतरिक राजनीतिक संघर्षों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ले जाना, भले ही तात्कालिक सुर्खियां दिला दे, लेकिन इससे राष्ट्रीय राजनीति में पार्टी की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते हैं। एक बार जब जनाधार टूट जाता है, तो उसे वापस पाना बेहद कठिन होता है। केवल सरकार विरोध या भावनात्मक अपील से वह आधार नहीं लौटता। प्रियंका गांधी की मौजूदा भूमिका इसी दोराहे पर खड़ी दिखाई देती है। एक ओर वह नई राजनीति का संकेत देती हैं।संयमित, संवादपरक और मुद्दा-केंद्रित। दूसरी ओर कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा अभी भी पुरानी आदतों और आशंकाओं से मुक्त नहीं हो पाया है। यदि कांग्रेस वास्तव में पुनर्जीवित होना चाहती है, तो उसे प्रियंका जैसे नेतृत्व को केवल प्रतीक के रूप में नहीं, बल्कि निर्णय प्रक्रिया का हिस्सा बनाना होगा। क्योकि मोदी भी कहते है कि हमे मजबूत विपक्ष की जरूरत है।अंततः सवाल यही है कि क्या कांग्रेस केवल अतीत की विरासत के सहारे आगे बढ़ना चाहती है, या वह वर्तमान की चुनौतियों को स्वीकार कर भविष्य की राजनीति गढ़ने का साहस दिखाएगी। प्रियंका गांधी का हालिया संसदीय प्रदर्शन यह संकेत जरूर देता है कि कांग्रेस के पास अब भी संभावनाएं हैं। लेकिन इन संभावनाओं को हकीकत में बदलने के लिए पार्टी को अपनी सोच, रणनीति और राजनीतिक भाषा—तीनों में बदलाव करना ही होगा। तभी वह फिर से जनता के विश्वास की राजनीति कर सकेगी, वरना उम्मीद और यथार्थ के बीच की खाई और गहरी होती चली जाएगी। (वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार, स्तम्भकार) (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 26 ‎दिसम्बर /2025