लेख
28-Dec-2025
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काल के कपाल पर अंकित साल 2025 के ये अंतिम दिन, भारतीय मध्यमवर्ग के लिए किसी आर्थिक विभीषिका से कम सिद्ध नहीं हो रहे हैं। स्वर्ण की चमक अब लखपति होने के दंभ में आम आदमी की आंखों में चुभने लगी है और रजत की धवल आभा महंगाई के काले बादलों में विलीन हो चुकी है। अर्थशास्त्री इसे वैश्विक सूचकांकों का उतार-चढ़ाव कहकर इतिश्री कर सकते हैं, किंतु एक भारतीय गृहस्थी की देहरी पर खड़ा होकर देखें, तो यह केवल धातुओं का मूल्यवर्धन नहीं है; यह एक पिता के स्वाभिमान का संकुचन है और एक जननी के सहेजे हुए स्वप्नों का मरण है। :: विवाह की वेदी और सुहाग का मौन रुदन :: भारतीय लोक-संस्कृति में स्वर्ण मात्र एक धातु नहीं, अपितु सौभाग्य का पर्याय और स्त्रीधन की गरिमा है। किसी भी कुल या मत की नारी हो, उसके कंठ में सुशोभित मंगलसूत्र केवल स्वर्ण-तंतुओं का मेल नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व का अक्षय टीका है। विदाई के क्षणों में एक पिता अपनी लाड़ली को जो स्वर्ण-वलय (चूड़ियां) और कुंडल भेंट करता है, वे आभूषण नहीं, उसकी जीवनभर की संचित तपस्या का सात्विक प्रसाद होते हैं। परंतु, आज जब कंचन की कीमतें 1,42,000 रूपये प्रति दस ग्राम के अकल्पनीय शिखर को स्पर्श कर रही हैं, तो मध्यमवर्गीय आंगन में सन्नाटा पसरना स्वाभाविक है। मात्र सात दिवस के अंतराल में सात हजार से अधिक की यह छलांग किसी अदृश्य वज्रपात से कम नहीं। जब उदर की अग्नि को शांत करने वाला बजट ही गड़बड़झाला के कुचक्र में फंसा हो, वहां सुहाग की इन गौरवशाली परंपराओं का निर्वहन रस्म नहीं, एक दुसाध्य संघर्ष बन गया है। :: शिशु की हाय और सांस्कृतिक विरासत का संकट :: रजत का हमारी संस्कृति से जुड़ाव मानवीय श्वासों के साथ ही प्रारंभ हो जाता है। नवजात शिशु को व्याधियों और कुदृष्टि से रक्षित करने हेतु पहनाई जाने वाली हाय और उसके कोमल पगों में बजती पैजनिया - ये गृहस्थी के आंगन की प्रथम मांगलिक खनक होती हैं। प्रत्येक पूर्वज का यह स्वप्न होता है कि वह अपनी संतति को रजत-पात्र (चांदी की कटोरी) में प्रथम ग्रास ग्रहण कराए। किंतु, आज का निर्मम सत्य यह है कि रजत 2,50,000 रूपये प्रति किलोग्राम के डरावने विस्तार तक फैल चुका है। चालू वर्ष में 163.5% की यह ऐतिहासिक वृद्धि किसी आर्थिक विस्फोट जैसी है। एक सप्ताह में 37 हजार का यह उछाल उन हाथों को कांपने पर विवश कर रहा है, जो उपहार स्वरूप स्नेह की भेंट देना चाहते थे। जब चांदी ही मुट्ठी से रेत की भांति फिसल रही हो, तो वह नजरबट्टू भी स्वयं महंगाई की वक्र-दृष्टि का ग्रास बन गया प्रतीत होता है। :: नीतियों का कोलाहल और भावनाओं का दमन :: सत्ता के वातानुकूलित अरण्यों में बैठे नीति-निर्धारकों के लिए ये कदाचित बुल रन और ट्रेडिंग ग्राफ़्स के शुष्क अंक मात्र हों, किंतु एक साधारण जन के लिए यह उसकी कोमल भावनाओं का निष्ठुर दमन है। बुआ, मौसी और काकी, जो मांगलिक प्रसंगों पर सगुन के रूप में चांदी के कड़े या बिछिया लाती थीं, आज उनके स्नेहिल हाथ महंगाई की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। भले ही आधुनिक पीढ़ी मिनिमलिज्म के आवरण में स्वयं को आधुनिक कहे, किंतु संस्कारों की जो पूंजी स्वर्ण-रजत के रूप में कुल-तिजोरियों में सहेजी जाती थी, वह अब रिक्त हो रही है। यदि मंगलसूत्र की आभा बेनूर हो गई और शिशुओं के कंठ से वह सुरक्षा रूपी हाय विलीन हो गई, तो विश्वास मानिए, हमारे सामाजिक माधुर्य का वह अमृत भी सूख जाएगा जो पीढ़ियों को आत्मीयता के सूत्र में बांधे रखता है। महंगाई की इस अजब-गजब वैतरणी में आम आदमी की मौलिक संवेदनाएं ही निगली जा रही हैं। मंगलसूत्र के स्थान पर अब चिंताओं की पाश बढ़ रही है और चांदी की खनक की जगह हाहाकार का शोर है। यह समझना अनिवार्य है कि यह गति मात्र बाजार का उन्माद नहीं, अपितु एक सामान्य जन के सुख-संसार की जड़ों पर प्रहार और उसकी पारंपरिक खुशियों की तिलांजलि का पूर्वाभास है। यही परंपराओं का पराभव है, जिसे समय रहते रोकना अनिवार्य है। प्रकाश/28 दिसम्बर 2025