म्यांमार में आखिरकार आम चुनाव के तहत रविवार को मतदान प्रक्रिया भी शुरु हो गई। इससे पहले भारत ने स्वतंत्र, निष्पक्ष और समावेशी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के समर्थन में बयान जारी कर सुख और शांति की कामना की। कूटनीतिक तौर पर इस बयान को संतुलित बताया गया, लेकिन इसके निहितार्थ कहीं अधिक जटिल और चुनौतीपूर्ण नजर आते हैं। विदेश मंत्रालय का यह रुख ऐसे समय सामने आया है, जबकि म्यांमार गहरे राजनीतिक संकट से जुझते हुए गृहयुद्ध और अंतरराष्ट्रीय आलोचना के दौर से गुजर रहा है। यहां असल सवाल यही है, क्या मौजूदा परिस्थितियों में होने वाले आम चुनाव वास्तव में लोकतंत्र की बहाली का माध्यम बन सकते हैं, या फिर यह पूरी प्रक्रिया महज सैन्य शासन को वैधता देने का एक औजार भर हैं। ऐसे में भारत का आधिकारिक पक्ष स्पष्ट है, कि नई दिल्ली म्यांमार में शांति, स्थिरता और सामान्य स्थिति की वापसी चाहती है। लोकतांत्रिक बहाली का समर्थन भारत सदा से करता आया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन के दौरान म्यांमार के सैन्य प्रमुख मिन आंग ह्लाइंग से मुलाकात और ‘नेबरहुड फर्स्ट’ तथा ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के संदर्भ में म्यांमार को अहम बताना, भारत की व्यावहारिक विदेश नीति को दर्शाता है। भारत के लिए म्यांमार केवल एक पड़ोसी देश नहीं, बल्कि पूर्वोत्तर भारत की सुरक्षा, सीमा प्रबंधन, व्यापार और क्षेत्रीय संपर्क का एक महत्वपूर्ण कड़ी भी है। लेकिन यहीं से एक गंभीर और चुनौतिपूर्ण दुविधा का प्रारंभ भी नजर आता है। दरअसल 2021 में सैन्य तख्तापलट के बाद से म्यांमार में लोकतांत्रिक ढांचा लगभग ध्वस्त हो चुका है। आंग सान सू ची जैसी निर्वाचित नेता को जेल भेजा गया। उनकी लोकप्रिय पार्टी को भंग कर दिया गया और बड़े हिस्से में विद्रोही गुटों द्वारा नियंत्रण कर लिया गया। ऐसे में मौजूदा चुनाव की बात इसलिए भी अहम हो जाती है, क्योंकि इसमें न तो सभी राजनीतिक दल हिस्सा ले पा रहे हैं और न ही पूरा देश मतदान में हिस्सा लेने को तैयार नजर आया है। अत्याधिक पाबंदियों, भय और हिंसा के माहौल में मतदान की कछुआचाल इस बात का संकेत है कि आम जनता का भरोसा इस प्रक्रिया से उठ चुका है। खास बात तो यह भी है कि पश्चिमी देशों, संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार संगठनों ने इन चुनावों की कड़ी आलोचना की है। उनका तर्क है कि यह चरणबद्ध चुनाव लोकतंत्र की बहाली नहीं, बल्कि सैन्य शासन द्वारा अपनी सत्ता को संस्थागत रूप देने की कोशिश है। सेना समर्थित यूनियन सॉलिडेरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी के जीतने की संभावना इस आशंका को और मजबूत करती है कि म्यांमार में ‘लोकतंत्र’ केवल नाम का होगा, जबकि वास्तविक शक्ति जुंटा के हाथों में ही रहेगी। भारत की स्थिति इसलिए भी संवेदनशील है क्योंकि वह खुलकर सैन्य शासन का समर्थन नहीं कर सकता, लेकिन पूरी तरह दूरी बनाना भी उसके रणनीतिक हितों के खिलाफ है। म्यांमार में अस्थिरता का सीधा असर भारत के पूर्वोत्तर राज्यों पर पड़ता है, फिर चाहे वह शरणार्थियों का मुद्दा हो, सीमा पार उग्रवाद हो या अवैध गतिविधियों का संचालन हो। इसीलिए भारत म्यांमार-नेतृत्व और म्यांमार-स्वामित्व वाली शांति प्रक्रिया पर जोर देता है और शांतिपूर्ण संवाद को ही समाधान मानता है। इस पूरे परिदृश्य में चीन की भूमिका एक निर्णायक के तौर पर उभरती दिखी है। विश्व स्तर पर विशेषज्ञ भी मानते हैं, कि म्यांमार के घटनाक्रमों में चीन का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। बीजिंग द्वारा सशस्त्र समूहों पर दबाव, जुंटा को कूटनीतिक समर्थन और हथियारों की आपूर्ति यह संकेत देती है कि चीन इस चुनावी प्रक्रिया से रणनीतिक लाभ उठाना चाहता है। यदि म्यांमार पूरी तरह चीन के प्रभाव क्षेत्र में चला जाता है, तो यह भारत के लिए दीर्घकालिक भू-राजनीतिक चुनौती बन सकता है। ऐसे में भारत के सामने दोहरी जिम्मेदारी उभर कर आई है। एक ओर उसे लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता बनाए रखनी है, वहीं दूसरी ओर क्षेत्रीय स्थिरता और अपने रणनीतिक हितों की रक्षा भी करनी है। केवल चुनावों का समर्थन कर देना पर्याप्त नहीं है, बल्कि यह भी जरूरी है कि भारत समावेशिता, राजनीतिक संवाद और सभी हितधारकों की भागीदारी पर लगातार जोर देता रहे। म्यांमार का भविष्य केवल चुनावों से तय नहीं होगा, बल्कि स्वतंत्र लोकतांत्रिक सरकार का गठन के साथ ही चीन जैसी विदेशी ताकतों की दखलंदाजी का अंत भी मायने रखता है। इससे म्यांमार में वास्तविक राजनीतिक शांति के साथ ही हिंसा का अंत और जनता का विश्वास बहाल हो पाएगा। ईएमएस / 28 दिसम्बर 25