भारत में बाघ संरक्षण को बीते एक दशक की सबसे बड़ी पर्यावरणीय सफलता के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। हर नई गणना के साथ बाघों की बढ़ती संख्या राष्ट्रीय गर्व का विषय बनी। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को टाइगर स्टेटके रूप में सराहा गया। लेकिन अब यही सफलता एक गहरी और खामोश चुनौती में बदलती दिख रही है। बाघ बढ़े हैं, पर उनके ठिकाने सिमट गए हैं। जंगल कागजों में सुरक्षित हैं, पर व्यवहारिक रूप से बाघों के लिए सांस लेने की जगह कम होती जा रही है। नतीजा यह है कि टाइगर रिजर्व अब संरक्षण के सुरक्षित दुर्ग नहीं, बल्कि टकराव के मैदान बनते जा रहे हैं। पिछले पांच वर्षों में 721 बाघों की मौत इस बात का सबसे ठोस और भयावह संकेत है कि संरक्षण की मौजूदा रणनीति अपने ही बोझ तले दब रही है। अकेले वर्ष 2025 में अब तक 162 बाघों की मौत हो चुकी है, जो 2023 के बाद सबसे अधिक है। यह आंकड़ा किसी प्राकृतिक आपदा का नहीं, बल्कि मानव निर्मित नीति संकट का परिणाम है। मध्यप्रदेश, जिसे टाइगर स्टेट कहा जाता है, इन मौतों में सबसे आगे है। यहां 55 बाघों की मौत दर्ज की गई। महाराष्ट्र में 36, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में दो-दो बाघों की मौत ने साफ कर दिया है कि यह समस्या किसी एक राज्य या एक रिजर्व तक सीमित नहीं रही। बाघों की मौत के कारणों पर नजर डालें तो तस्वीर और भी चिंताजनक हो जाती है। आपसी संघर्ष, क्षेत्र को लेकर हिंसा, मानव-वन्यजीव टकराव, बीमारी और अवैध गतिविधियां।ये सभी कारण मिलकर एक ऐसे संकट को जन्म दे रहे हैं, जिसे अब नजरअंदाज करना संभव नहीं। बाघ एक एकांतप्रिय और विशाल क्षेत्र में विचरण करने वाला जीव है। जब उसकी संख्या बढ़ती है और क्षेत्र वही रहता है, तो संघर्ष अनिवार्य हो जाता है। युवा बाघों के लिए नए इलाके नहीं बचते, वे या तो वरिष्ठ बाघों से लड़ते हैं या जंगल से बाहर निकलकर मानव बस्तियों की ओर बढ़ते हैं। दोनों ही स्थितियां अंततः मौत पर जाकर खत्म होती हैं। यह कहना कि जंगल कम नहीं हुए, केवल आधा सच है। वन क्षेत्र का आंकड़ा स्थिर हो सकता है, लेकिन बाघों के उपयोग योग्य, सुरक्षित और आपस में जुड़े आवास लगातार घटे हैं। सड़कें, रेल लाइनें, खनन, बिजली परियोजनाएं और बढ़ता पर्यटन जंगलों को टुकड़ों में बांट चुका है। कॉरिडॉर टूट रहे हैं, जिनके सहारे बाघ एक रिजर्व से दूसरे रिजर्व तक सुरक्षित आवाजाही करते थे। परिणामस्वरूप, टाइगर रिजर्व अब द्वीपों की तरह अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं, जहां बाघों की संख्या तो बढ़ रही है, लेकिन फैलने की जगह नहीं है। आंकड़े इस संकट की निरंतरता को स्पष्ट करते हैं। वर्ष 2021 में 129 बाघों की मौत हुई, 2022 में 122, 2023 में यह संख्या बढ़कर 182 तक पहुंच गई, 2024 में 126 और 2025 में अब तक 162 मौतें दर्ज की जा चुकी हैं। इनमें से शिकार के मामलों में तीन वर्षों के भीतर 36 बाघों की जान गई, जो यह बताने के लिए पर्याप्त है कि अवैध गतिविधियां अब भी पूरी तरह काबू में नहीं हैं। इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि जांच की प्रक्रिया बेहद धीमी है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के रिकॉर्ड के अनुसार 2012 से 2024 के बीच कुल बाघ मौतों के लगभग 29 प्रतिशत मामलों की जांच अब भी लंबित है। इनमें 407 मामले पिछले पांच वर्षों के हैं। जब मौत के कारणों की स्पष्ट जांच ही समय पर नहीं हो पा रही, तो नीतिगत सुधार कैसे होंगे, यह सवाल अपने आप खड़ा होता है। संरक्षण की इस विडंबना का एक बड़ा कारण यह है कि हम सफलता को केवल संख्या के चश्मे से देखने लगे हैं। हर नई रिपोर्ट में बाघों की गिनती बढ़ने पर तालियां बजाई जाती हैं, लेकिन यह नहीं देखा जाता कि वे बाघ किस हालात में जी रहे हैं। बिना समानांतर आवास विस्तार, कॉरिडॉर संरक्षण और वैज्ञानिक प्रबंधन के केवल संख्या बढ़ना खुद बाघों के लिए जानलेवा साबित हो रहा है। यह वही स्थिति है जैसे किसी कमरे में लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जाए, लेकिन कमरे का आकार वही रहे। कुछ समय बाद टकराव, तनाव और दुर्घटनाएं अपरिहार्य हो जाती हैं। विशेषज्ञ लंबे समय से अतिरिक्त बाघों को नए और उपयुक्त आवासों में स्थानांतरित करने की जरूरत पर जोर दे रहे हैं। टाइगर शिफ्टिंग प्रोजेक्ट एक व्यवहारिक समाधान हो सकता है, जिसके तहत भीड़भाड़ वाले रिजर्व से बाघों को उन क्षेत्रों में बसाया जाए, जहां अभी उपयुक्त आवास तो है, लेकिन बाघों की संख्या कम या शून्य है। देश में ऐसे कई संभावित परिदृश्य मौजूद हैं। लेकिन जमीनी स्तर पर इस दिशा में ठोस पहल दिखाई नहीं देती। योजनाएं फाइलों में कैद हैं और निर्णय राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक हितों के जाल में उलझे हुए हैं। इस संकट में पर्यटन बनाम संरक्षण की बहस भी तेजी से उभरकर सामने आ रही है। टाइगर रिजर्व के आसपास बढ़ता रिसॉर्ट उद्योग नीति निर्धारण पर असर डाल रहा है। पर्यटन से होने वाली आय ने कई बार संरक्षण की प्राथमिकताओं को पीछे धकेल दिया है। जंगलों के कोर और बफर क्षेत्रों में मानव गतिविधियां बढ़ रही हैं, जिससे बाघों का स्वाभाविक व्यवहार प्रभावित हो रहा है। नए क्षेत्रों में संरक्षण विस्तार की योजनाएं इसलिए भी ठंडी पड़ जाती हैं, क्योंकि पर्यटन की मौजूदा संरचना को खतरा महसूस होने लगता है। बाघ अब केवल एक वन्यजीव नहीं, बल्कि एक आर्थिक संसाधन के रूप में देखा जाने लगा है, और यही सोच संरक्षण के मूल उद्देश्य से टकरा रही है। मानव-वन्यजीव टकराव इस पूरे संकट का सबसे संवेदनशील पहलू है। जब बाघ जंगल से बाहर निकलते हैं, तो वे केवल अपने लिए जगह तलाश रहे होते हैं, लेकिन मानव समाज उन्हें खतरे के रूप में देखता है। खेतों में मवेशियों का शिकार, कभी-कभी इंसानी जान का नुकसान, और उसके बाद बदले की भावना।यह चक्र लगातार तेज होता जा रहा है। ऐसे मामलों में अक्सर बाघ को ही दोषी ठहराया जाता है, जबकि असल दोष उस व्यवस्था का होता है, जिसने उसके रहने की जगह छीनी। अब समय आ गया है कि टाइगर संरक्षण की रणनीति पर नए सिरे से विचार किया जाए। केवल गिनती बढ़ाने की होड़ से बाहर निकलकर गुणवत्ता आधारित संरक्षण मॉडल अपनाने की जरूरत है। इसमें बड़े और जुड़े हुए आवासों का विकास, कॉरिडॉर की कानूनी सुरक्षा, वैज्ञानिक आधार पर बाघों का स्थानांतरण, स्थानीय समुदायों की भागीदारी और पर्यटन की स्पष्ट सीमाएं तय करना शामिल होना चाहिए। जांच प्रक्रियाओं को तेज और पारदर्शी बनाना भी उतना ही जरूरी है, ताकि हर मौत से सबक लिया जा सके, न कि उसे केवल एक और आंकड़े में बदल दिया जाए। बाघ भारत की जैव विविधता का प्रतीक है। उसकी दहाड़ जंगलों की सेहत का संकेत मानी जाती है। लेकिन अगर यह दहाड़ अब टकराव और मौत की आवाज में बदलती जा रही है, तो यह पूरे संरक्षण मॉडल पर सवाल है। संख्या की जीत अगर जीवन की हार में बदल जाए, तो ऐसी सफलता पर पुनर्विचार जरूरी है। बाघों को बचाने का मतलब केवल उन्हें गिनना नहीं, बल्कि उन्हें वह जगह देना है, जहां वे बिना टकराव, बिना डर और बिना मौत के खतरे के जी सकें। यही असली संरक्षण होगा, और यही भविष्य की सबसे बड़ी जरूरत । (वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार, स्तम्भकार) (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 28 दिसम्बर /2025