लेख
28-Dec-2025
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भारत से भी प्राचीन अरावली पर्वत श्रृंखला पर उच्चतम न्यायालय के आदेश से संकट खड़ा हो गया है, जिसका देश भर में विरोध किया जा रहा है। वैज्ञानिक, भौगोलिक, सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण अरावली पर्वत श्रृंखला की बलि हाल-फिलहाल टल गई है। केंद्र सरकार ने श्रृंखला के अस्तित्व से छेड़छाड़ न करने को लेकर आश्वस्त करते हुये खनन के नये पट्टों पर पूरी तरह रोक लगा दी है पर, अभी संकट पूरी तरह टला नहीं है, इस अस्थाई प्रतिबंध को स्थाई कराने तक लोगों को अपना विरोध जारी रखना होगा। हालांकि प्रकरण को लेकर उच्चतम न्यायालय में भी फैसले को चुनौती दी गई है, इसी विषय पर चर्चा कर रहे हैं बीपी गौतम... यह है प्रकरण फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) ने 2010 में कहा था कि अरावली पर्वत शृंखला में उन्हें ही पर्वत माना जायेगा, जिनकी ढलान तीन डिग्री से ज्यादा हो। ऊंचाई 100 मीटर के ऊपर हो और दो पहाड़ियों के बीच की दूरी 500 मीटर हो। हालांकि, कई ऊंची पहाड़ियां भी इन मानकों पर नहीं थीं, इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने पर्यावरण मंत्रालय, एफएसआई, राज्यों के वन विभाग, भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) और अपनी समिति के प्रतिनिधियों को लेते हुए एक और समिति बनाई, इस समिति को अरावली पर्वत श्रृंखला की परिभाषा तय करने का दायित्व दिया गया था, इसी क्रम में 20 नवंबर 2025 को समिति की रिपोर्ट को उच्चतम न्यायालय स्वीकार कर लिया। हालांकि न्यायालय की ओर से नियुक्त एमिकस क्यूरी के. परमेश्वर ने आपत्ति जताते हुए कहा था कि यह परिभाषा काफी संकीर्ण है और सभी पहाड़ियां, जिनकी ऊंचाई 100 मीटर से कम है, वह खनन के लिए योग्य हो जायेंगी, इससे पूरी शृंखला पर असर पड़ेगा, इस पर अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्य भाटी ने तर्क दिया था कि एफएसआई के पुराने मानक अरावली पर्वत श्रृंखला के और बड़े क्षेत्र को पर्वत की परिभाषा से बाहर करते हैं, ऐसे में समिति की 100 मीटर की पहाड़ियों को पर्वत शृंखला मानने का तर्क काफी बेहतर है, इन सभी तर्कों को सुनने के बाद उच्चतम न्यायालय ने अरावली पर्वत शृंखला पर बेहतर प्रबंधन योजना तैयार करने के निर्देश जारी किये थे, इस योजना के अंतर्गत उन क्षेत्रों को पहले से तय किया जायेगा, जहां खनन को पूरी तरह प्रतिबंधित किया जायेगा, साथ ही उन क्षेत्रों को भी पहचाना जायेगा, जहां सिर्फ सीमित या, नियमित ढंग से ही खनन को मंजूरी मिल पाये। न्यायालय ने खनन के लिये नये पट्टे देने पर वर्तमान में प्रतिबंध बरकरार रखा है। विशेष तथ्य यह है कि समिति ने पाया कि राजस्थान का 2006 से एक स्थायी नियम था, जिसमें कहा गया है कि 100 मीटर या, उससे ऊंचे भूमि स्वरूप को पहाड़ी माना जायेगा और उसकी न्यूनतम सीमा के अंदर खनन प्रतिबंधित होगा, इसी नियम को आधार मानते हुए समिति ने अन्य सभी राज्यों को भी अपनाने को कह दिया। उच्चतम न्यायालय ने समिति की संस्तुति को मान्यता तो दे दी है लेकिन, कोर और अविनाशी क्षेत्रों, संरक्षित क्षेत्रों, इको-सेंसिटिव जोन, टाइगर रिजर्व, वेटलैंड्स और उनके आस-पास खनन पर पूरी तरह रोक जारी रखी है। उच्चतम न्यायालय यह भी कहा है कि अरावली पर्वत श्रृंखला क्षेत्र में नए खनन लीज तब तक नहीं दी जाएगी जब तक भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद द्वारा सतत खनन प्रबंधन योजना तैयार नहीं हो जाती। मैपिंग न होने तक लगाई रोक समिति ने मार्च 2025 में साफ किया कि पर्यावरणीय तौर पर संवेदनशील क्षेत्रों में खनन पूरी तरह रोका जाना चाहिए। पत्थर तोड़ने की इकाइयों पर भी कड़ा नियम लागू करने का प्रस्ताव दिया गया। समिति ने कहा कि जब तक सभी राज्यों में अरावली पर्वत श्रृंखला की पूरी मैपिंग नहीं कर ली जाए और इसके प्रभाव की रिपोर्ट न पूरी हो जाए तब तक खनन के नए पट्टे न दिए जायें और पुराने पट्टे नवीनीकृत न हों। हरित दीवार परियोजना शुरू की केंद्र सरकार ने जून 2025 में हरित दीवार परियोजना शुरू की, इसके अंतर्गत अरावली पर्वत श्रृंखला में आने वाले चार राज्यों के 29 जिलों में इन पर्वतों के आस-पास पांच किलोमीटर का जंगल वाला क्षेत्र बनाया जायेगा, जो बफर की तरह काम करेगा, इससे 2030 तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर खराब भूमि को पुनः उपजाऊ बनाया जा सकेगा। अशोक गहलोत ने शुरू किया कैपेंन उच्चतम न्यायालय का आदेश सार्वजनिक हुआ तो, पर्यावरणविदों और विपक्ष ने विरोध शुरू कर दिया। सोशल साइट्स पर ‘सेव अरावली’ कैंपेन देश भर में शुरू हो गया। राजस्थान में कैंपेन की अगुवाई पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कर रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा कि वैज्ञानिक दृष्टि से अरावली एक निरंतर शृंखला है, इसकी छोटी पहाड़ियां भी उतनी ही अहम हैं, जितनी कि बड़ी चोटियां। अगर दीवार में एक भी ईंट कम हुई तो, सुरक्षा टूट जायेगी। अरावली कोई मामूली पहाड़ नहीं बल्कि, प्रकृति की बनाई हुई ग्रीन वॉल है, यह थार रेगिस्तान की रेत और गर्म हवाओं को दिल्ली, हरियाणा और यूपी के उपजाऊ मैदानों की ओर बढ़ने से रोकती है। यदि गैपिंग एरिया या, छोटी पहाड़ियों को खनन के लिए खोल दिया गया तो, रेगिस्तान हमारे दरवाजे तक आ जायेगा और तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि होगी, यह पहाड़ियां और यहां के जंगल एनसीआर एवं आस-पास के शहरों के लिए फेफड़ों का काम करते हैं, यह धूल भरी आंधियों को रोकते हैं और प्रदूषण कम करने में अहम भूमिका निभाते हैं। गहलोत ने चिंता जताई कि जब अरावली के रहते हुए स्थिति इतनी गंभीर है, तो अरावली के बिना स्थिति कितनी वीभत्स होगी, इसकी कल्पना भी डरावनी है। अरावली को जल संरक्षण का मुख्य आधार बताते हुए उन्होंने कहा कि इसकी चट्टानें बारिश के पानी को जमीन के भीतर भेजकर भूजल रिचार्ज करती हैं। अगर पहाड़ खत्म हुए, तो भविष्य में पीने के पानी की गंभीर किल्लत होगी, वन्यजीव लुप्त हो जाएंगे और पूरी इकोलॉजी खतरे में पड़ जायेगी। राजस्थान की 90 प्रतिशत पहाड़ियां नियम में फंसीं सरकारी और तकनीकी अध्ययनों के अनुसार राजस्थान में अरावली पर्वत श्रृंखला की लगभग 90 प्रतिशत पहाड़ियां 100 मीटर की ऊंचाई की शर्त पूरी नहीं करतीं, जिससे राज्य की मात्र 8 से 10 प्रतिशत पहाड़ियां ही कानूनी रूप से अरावली पर्वत श्रृंखला मानी जायेंगी, जबकि शेष लगभग 90 प्रतिशत पहाड़ियां संरक्षण कानूनों से बाहर हो सकती हैं, जबकि अरावली पर्वत श्रृंखला की छोटी और मध्यम ऊंचाई की पहाड़ियां वर्षा जल को रोकने, भूजल रिचार्ज करने, धूल भरी आंधियों को थामने और थार रेगिस्तान के फैलाव को रोकने में अहम भूमिका निभाती हैं। पर्यावरणविदों की चेतावनी है कि यदि यह पहाड़ियां संरक्षण से बाहर हुईं तो, अलवर, जयपुर, दौसा, सीकर, झुंझुनूं, उदयपुर और राजसमंद जैसे जिलों में भू-जल स्तर और नीचे गिर जायेगा, सूखे की तीव्रता बढ़ेगी और खनन व अनियंत्रित निर्माण को बढ़ावा मिलेगा। पहले से ही जल-संकट से जूझ रहे राजस्थान के लिये स्थिति पर्यावरण के साथ आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य को लेकर और भयावह हो जायेगी। पर्यावरणविदों का मानना है कि अब लड़ाई न्यायालय या, सरकार तक सीमित नहीं है बल्कि, समाज की साझा जिम्मेदारी है। अरावली पर्वत श्रृंखला का नुकसान स्थायी हो सकता है, क्योंकि एक बार पहाड़ कटे और जलधाराएं टूटीं तो, उन्हें वापस लाने में सदियां लग जाती हैं, जिससे जन-जागरण ही एक मात्र सही विकल्प है। खनन के नये पट्टों पर प्रतिबंध केंद्र सरकार ने राज्यों को नए निर्देश दिए हैं, जिनमें कहा गया है कि अरावली पर्वत श्रृंखला क्षेत्र में खनन के नए पट्टे देने पर पूरी तरह से प्रतिबंध रहेगा। दिल्ली से गुजरात तक खनन के लिए नए पट्टे की मंजूरी देने पर पूरी तरह से रोक रहेगी। यह भी निर्देश है कि जो खदानें पहले से चल रही हैं, उनके मामले में राज्य सरकारों को सभी पर्यावरणीय मानकों का सख्ती से पालन कराना होगा और उच्चतम न्यायालय के आदेशों के अनुरूप काम करना होगा। उच्चतम न्यायालय में फैसले को दी गई चुनौती उच्चतम न्यायालय में हरियाणा के एक रिटायर्ड वन विभाग अधिकारी आरपी बलवान ने फैसले को चुनौती देते हुए याचिका की है। याची का कहना है कि अरावली की पहाड़ियों के लिए 100 मीटर की ऊंचाई का पैमाना, इस विशाल पर्वत श्रृंखला के संरक्षण के प्रयासों को कमजोर करेगा। यह अरावली श्रृंखला गुजरात से दिल्ली तक फैली हुई है और थार रेगिस्तान और उत्तरी मैदानों के बीच एक दीवार का काम करती है। यह याचिका एक पुराने प्रकरण टीएन गोदावरमन थिरुमुलपाद बनाम यूनियन ऑफ इंडिया से जुड़ी है। 1996 में उच्चतम न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था, जिसने वन की परिभाषा को कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त जंगलों से आगे बढ़ाकर किसी भी ऐसी जमीन तक फैला दिया था, जो टर्म वन की परिभाषा में आती हो। यहाँ प्रतिबंधित है खनन राजस्थान के उदयपुर, राजसमंद और अलवर में सर्वाधिक खनन होता है, इसमें उदयपुर में 99.89 प्रतिशत तथा राजसमंद में 98.9 प्रतिशत पर माइनिंग करना प्रतिबंधित है, इसके अलावा अलवर में सरिस्का, ब्यावर में टोकटा टाइगर सैंक्चुअरी, जयपुर में जमुआरामगढ़ टाइगर सैंक्चुअरी, नाहरगढ़ सैंक्चुअरी, झुंझुनू में शाकंभरी रिजर्व, पाली जवाई बांद, प्रतापगढ़ में सीतामाता, टोंक में बीसलुपर रिजर्व, उदयपुर में फुलवारी की नाल और सज्जनगढ़, कुंभलगढ़, सलूंबर जयसमंद, सिरोही में माउंटआबू वाइल्ड लाइफ सैंक्चुअरी अरावली पर्वत श्रृंखला का हिस्सा हैं। बदल सकती हैं भौगोलिक परिस्थियां पृथ्वी पर अरावली पर्वत शृंखला की आयु लगभग दो अरब साल पुरानी मानी जाती है, यह हिंद-गंगीय मैदानी क्षेत्रों को रेगिस्तानी रेत से बचाने के लिए एक अहम पारिस्थितिकी बैरियर की तरह काम करता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि अगर यह पर्वत शृंखला न होती तो, भारत का उत्तरी क्षेत्र रेगिस्तान में परिवर्तित होना शुरू हो गया होता। हालांकि, इस शृंखला के चलते ही थार रेगिस्तान अपने उत्तर की ओर हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक नहीं फैल पाया, साथ ही अरावली पर्वत श्रृंखला थार रेगिस्तान और बाकी क्षेत्र के बीच जलवायु को संतुलित करने में भी अहम भूमिका निभाता है। पूरे क्षेत्र में जैव विविधता और भू-जल के प्रबंधन में भी शृंखला बेहद अहम भूमिका निभाती हैं, जिसके चलते दिल्ली से गुजरात का लगभग 650 किलोमीटर का क्षेत्र प्राकृतिक तौर पर विभिन्नता बरकरार रखने के लिए महत्वपूर्ण है, यह रेंज चंबल, साबरमती और लूनी जैसी नदियों का स्रोत भी है, इसमें बालू के पत्थर, चूना पत्थर, संगरमरमर और ग्रेनाइट का भी भंडार है, यहां लेड, जिंक, कॉपर, सोना और टंगस्टन जैसे खनिज भी पाये जाते हैं। इतिहास भी समेटे हुए है अरावली पर्वत श्रृंखला अरावली पर्वत श्रृंखला राजस्थान के अलवर, जयपुर, अजमेर, राजसमंद, उदयपुर, सिरोही, पाली, चित्तौड़गढ़, बांसवाड़ा, टोंक, सीकर, झुंझुनू, नागौर, भीलवाड़ा और डूंगरपुर सहित 15 जनपदों से निकलती है। राजस्थान के 550 किलोमीटर का लगभग 80% क्षेत्र अरावली पर्वत श्रृंखला से प्रभावित है, जो विश्व की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से एक मानी जाती है। पर्यटन की दृष्टि से किले, महल और वन अभ्यारण आते हैं, वहीं कई विश्व प्रसिद्ध मंदिर और कई शहर भी अरावली पर्वत श्रृंखला की परिधि में बसे हुये हैं। राजस्थान पर्यटन विभाग, पुरातत्व सर्वेक्षण और शैक्षणिक अध्ययन के अनुसार अरावली पर्वत श्रृंखला मुख्य रूप से भू-वैज्ञानिक महत्व की है लेकिन, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी कम नहीं है, यहां कई प्राचीन मंदिर, तीर्थस्थल और पवित्र वन (सेक्रेड ग्रोव्स) हैं, जो हिंदू, जैन और आदिवासी परंपराओं से जुड़े हैं, इस श्रृंखला का पौराणिक साहित्य में भी उल्लेख मिलता है। वेद, महाभारत और रामायण में भी अरावली पर्वत श्रृंखला का उल्लेख किया गया है। माउंट आबू में दिलवाड़ा जैन मंदिर, चलेश्वर महादेव मंदिर और गुजरात में अंबाजी मंदिर के प्रति लोगों की अटूट आस्था-श्रृद्धा है। एनसीआर की ग्रीन शील्ड है अरावली पर्वत श्रृंखला अरावली पर्वत श्रृंखला दिल्ली-एनसीआर के लिए प्राकृतिक ग्रीन शील्ड का काम करती है, जो पीएम 2.5 कणों को अवशोषित करती है और धूल भरी आंधियों को रोकती है। अरावली पर्वत श्रृंखला का दिल्ली में उत्तरी विस्तार दिल्ली रिज के रूप में जाना जाता है, जिसे राजधानी के ग्रीन लंग्स भी कहा जाता है। दिल्ली में अरावली पर्वत श्रृंखला की शुरुआत दक्षिण दिल्ली के तुगलकाबाद क्षेत्र से मानी जाती है, जहां असोला-भट्टी वन्यजीव अभयारण्य और भट्टी माइन्स स्थित हैं, यहां से यह उत्तर-पश्चिम दिशा में फैलते हुए वसंत कुंज, वसंत विहार, जेएनयू और महरौली क्षेत्र से गुजरते हुए यह सेंट्रल रिज के रूप में धौला कुआं से सदर बाजार तक जाती है और अंत में नॉर्दर्न रिज के तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय क्षेत्र को पार करते हुए यमुना नदी के पश्चिमी किनारे वजीराबाद के पास समाप्त होती है। दिल्ली में दिल्ली रिज की कुल लंबाई करीब 35 किलोमीटर है, इसका क्षेत्रफल लगभग 8,000 हेक्टेयर में फैला हुआ है। क्वार्टजाइट चट्टानों से बनी यह पर्वत शृंखला दिल्ली की जैव विविधता का महत्वपूर्ण आधार है, इसे पर्यावरण मंत्रालय, दिल्ली सरकार और उच्चतम न्यायालय द्वारा इको-सेंसिटिव जोन के रूप में संरक्षित माना गया है। नई खनन लीज की अनुमति नहीं दी जायेगी: भूपेंद्र केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा है कि अरावली पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर जानबूझकर गलत जानकारी फैलाई जा रही है। उन्होंने स्पष्ट किया कि सरकार देश की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला के संरक्षण के लिए लगातार काम कर रही है और पर्यावरण तथा अर्थव्यवस्था दोनों को साथ लेकर चलने की नीति पर कायम है। भूपेंद्र यादव ने कहा कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को विस्तार से पढ़ा है। कोर्ट ने साफ कहा है कि दिल्ली, गुजरात और राजस्थान में फैली अरावली श्रृंखला का संरक्षण वैज्ञानिक आंकलन के आधार पर किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सरकार ने हमेशा ग्रीन अरावली को बढ़ावा दिया है और इस फैसले से सरकार की संरक्षण नीति को समर्थन मिला है। केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा कि यह पहली बार है जब सरकार के ग्रीन मूवमेंट को इस स्तर पर मान्यता मिली है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने केवल सीमित उद्देश्य के लिए एक तकनीकी समिति बनाई है, जिसका काम सिर्फ खनन से जुड़े पहलुओं की जांच करना है, इसका यह मतलब नहीं है कि अरावली में खनन को खुली छूट दी जा रही है। अरावली को लेकर सबसे ज्यादा भ्रम 100 मीटर नियम को लेकर है। भूपेंद्र यादव ने स्पष्ट किया कि यह माप किसी पहाड़ी की ऊंचाई को ऊपर से नीचे तक नापने से जुड़ा है। उन्होंने कहा कि एनसीआर क्षेत्र में किसी भी तरह का खनन पूरी तरह प्रतिबंधित है। नए खनन की अनुमति देने का सवाल ही नहीं उठता। भूपेंद्र यादव ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पैरा 38 में स्पष्ट है कि किसी भी नई खनन लीज की अनुमति नहीं दी जाएगी, सिवाय बेहद जरूरी परिस्थितियों के। उन्होंने बताया कि अरावली क्षेत्र में 20 वन्य-जीव अभयारण्य और चार टाइगर रिजर्व हैं, जो इसकी पर्यावरणीय अहमियत को दिखाते हैं। यही वजह है कि सरकार इसके संरक्षण को लेकर गंभीर है। राजेंद्र राठौड़ ने अशोक गहलोत को कठघरे में खड़ा किया पूर्व कैबिनेट मंत्री एवं भाजपा नेता राजेंद्र राठौड़ ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद देशभर में अरावली पर्वतमाला को बचाने की मुहिम शुरु हो गई है, इसलिए यह आवश्यक है कि अरावली की परिभाषा को केवल ऊंचाई के तकनीकी पैमाने तक सीमित न किया जाए। निचली पहाड़ियां, रिज संरचनाएं और जुड़े हुए भू-भाग भी पारिस्थितिक रूप से उतने ही महत्वपूर्ण हैं। यदि कानूनी मान्यता का दायरा बहुत संकीर्ण हो गया तो, संरक्षण के प्रयास कमजोर पड़ सकते हैं और पिछले तीन दशकों में बनी पर्यावरणीय सुरक्षा व्यवस्था प्रभावित हो सकती है। सरकार को पुनर्विचार याचिका डालनी चाहिए। हालांकि बाद में उन्होंने प्रेसवार्ता कर अशोक गहलोत को कठघरे में खड़ा किया। अशोक गहलोत के सेव अरावली कैंपेन के जवाब में रविवार को भाजपा के वरिष्ठ नेता राजेंद्र राठौड़ ने प्रेस कांफ्रेंस की। उन्होंने अरावली को लेकर अशोक गहलोत द्वारा किए जा रहे दावों को पूरी तरह असत्य और भ्रामक बताते हुए कहा कि 90 प्रतिशत अरावली समाप्त हो जाएगी, जैसी बातें तथ्यहीन हैं और जनता को गुमराह करने का प्रयास मात्र हैं। उन्होंने कहा कि 18 दिसंबर 2025 को पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा सेव अरावली के नाम से सोशल मीडिया पर शुरू किए गए अभियान में स्वयं कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का समर्थन नजर नहीं आया। न कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा, न राहुल गांधी, न मल्लिकार्जुन खरगे और न ही सचिन पायलट ने अपनी प्रोफाइल पिक्चर बदली, इससे स्पष्ट है कि यह अभियान पर्यावरण संरक्षण से अधिक राजनीतिक दिखावा है। उन्होंने बताया कि वास्तविक स्थिति यह है कि अरावली क्षेत्र का लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा हिरसा अभ्यारण्य, राष्ट्रीय उद्यान और आरक्षित वनों में सम्मिलित है, जहां खनन पूरी तरह प्रतिबंधित है, इसके अलावा पूरे अरावली क्षेत्र में से केवल लगभग 2.56 प्रतिशत क्षेत्र ही सीमित, नियंत्रित और कड़े नियमों के अंतर्गत खनन के दायरे में आता है। राजेंद्र राठौड़ ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि जब तक इंडियन काउंसिल ऑफ फॉरेस्टरी रिसर्च एंड एजुकेशन द्वारा अरावली क्षेत्र की विस्तृत वैज्ञानिक मैपिंग और सस्टेनेबल माइनिंग मैनेजमेंट प्लान तैयार नहीं हो जाता तब तक कोई नया खनन पट्टा जारी नहीं किया जा सकता, ऐसे में अरावली के नष्ट होने की बात करना पूरी तरह निराधार है। उन्होंने कहा कि 100 मीटर के मानदंड को लेकर भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं। उन्होंने कहा कि यह मानदंड केवल ऊंचाई तक सीमित नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकृत परिभाषा के अनुसार 100 मीटर या, उससे ऊंची पहाड़ियों, उनकी ढलानों और दो पहाड़ियों के बीच 500 मीटर के क्षेत्र में आने वाली सभी भू-आकृतियां खनन पट्टे से पूरी तरह बाहर रखी गई हैं, चाहे उनकी ऊंचाई कुछ भी हो। उन्होंने इसे पहले से अधिक सख्त और वैज्ञानिक व्यवस्था बताया। उन्होंने सर्वे ऑफ इंडिया के विश्लेषण का हवाला देते हुए बताया कि कमेटी की परिभाषा लागू होने पर अरावली क्षेत्र में खनन बढ़ने के बजाय और अधिक सख्ती आएगी। राजस्थान के राजसमंद में 98.9 प्रतिशत, उदयपुर में 99.89 प्रतिशत, गुजरात के साबरकांठा में 89.4 प्रतिशत और हरियाणा के महेंद्रगढ़ में 75.07 प्रतिशत पहाड़ी क्षेत्र खनन से प्रतिबंधित रहेगा, इसके अलावा राष्ट्रीय उद्यान, इको-सेंसिटिव जोन, रिजर्व और प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट तथा वेटलैंड्स में खनन पूरी तरह बंद है। राजेंद्र राठौड़ ने बताया कि वर्तमान में अरावली क्षेत्र के 37 जिलों में कुल भौगोलिक क्षेत्र का केवल 0.19 प्रतिशत (277.89 वर्ग किलोमीटर) हिस्सा ही कानूनी खनन पट्टों के अंतर्गत है, जिसमें लगभग 90 प्रतिशत खनन राजस्थान, 9 प्रतिशत गुजरात और 1 प्रतिशत हरियाणा में सीमित है, इसलिए 90 प्रतिशत अरावली हिल्स के खत्म होने की बात कानूनी और भौगोलिक रूप से पूरी तरह असत्य है। उन्होंने केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव के बयान का भी उल्लेख किया, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से अरावली पर्वतमाला पर कोई आंच नहीं आएगी और केंद्र सरकार अरावली की सुरक्षा को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध है। राठौड़ ने कहा कि अरावली न पहले खतरे में थी, न आज है और न आगे होगी। न्यायालय के आदेश, सरकारी रिकॉर्ड और वैज्ञानिक तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि अरावली सुरक्षित है और रहेगी। अशोक गहलोत ने किया पलटवार पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव व राजेंद्र राठौड़ के बयानों पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि वे भाजपा सरकार की खनन माफिया से मिलीभगत और गलत नीतियों पर पर्दा डालने के लिए अनर्गल आरोप लगा रहे हैं, जबकि सच्चाई सरकारी दस्तावेजों में दर्ज है। अशोक गहलोत ने कहा कि यह सत्य है कि 2003 में तत्कालीन राज्य सरकार को विशेषज्ञ समिति (एक्सपर्ट कमेटी) ने आजीविका और रोजगार के दृष्टिकोण से 100 मीटर की परिभाषा की सिफारिश की थी, जिसे राज्य सरकार ने एफिडेविट के माध्यम से 16 फरवरी 2010 को सुप्रीम कोर्ट के सामने रखा लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने इसे महज तीन दिन बाद 19 फरवरी 2010 को ही खारिज कर दिया था। हमारी सरकार ने न्यायपालिका के आदेश का पूर्ण सम्मान करते हुए इसे स्वीकार किया और फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया से मैपिंग करवाई। हमारी कांग्रेस सरकार ने पहली बार अरावली में अवैध खनन पकड़ने के लिए गंभीर प्रयास करते हुए रिमोट सेंसिंग का उपयोग करने के निर्देश दिए। 15 जिलों में सर्वे के लिए 7 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया गया। राज्य सरकार ने अवैध खनन को रोकने की सीधी जिम्मेदारी एसपी और जिला कलेक्टर को सौंपी। खनन विभाग के साथ पुलिस को भी कार्रवाई के अधिकार दिए गए, जिससे अवैध खनन पर लगाम लगी। सवाल यह है कि जो परिभाषा सुप्रीम कोर्ट में 14 साल पहले 2010 में ही खारिज हो चुकी थी, उसी परिभाषा का 2024 में राजस्थान की मौजूदा भाजपा सरकार ने समर्थन करते हुए केन्द्र सरकार की समिति से सिफारिश क्यों की? क्या यह किसी का दबाव था या, इसके पीछे कोई बड़ा खेल है? अशोक गहलोत ने दावा किया कि कांग्रेस के राज में खनन माफियाओं पर सख्ती रखी गई। उन्होंने कहा कि हमारी कांग्रेस सरकार (2019-2024) ने अवैध खनन कर्ताओं से 464 करोड़ रुपये का जुर्माना वसूला, जो कि पिछली भाजपा सरकार (2013-2018) द्वारा वसूले गए 200 करोड़ रुपये से दोगुने से भी अधिक है। उन्होंने कहा कि हमारी कांग्रेस सरकार ने पिछले 5 वर्षों में 4,206 एफआईआर दर्ज कर माफियाओं की कमर तोड़ी थी, वहीं वर्तमान सरकार के पहले साल के आंकड़े बताते हैं कि कार्रवाई की गति धीमी पड़ गई है, जिससे माफियाओं के हौसले बुलंद हो रहे हैं। कांग्रेस सरकार ने पिछले 5 वर्षों में 4,206 एफआईआर दर्ज कर माफिया की कमर तोड़ी, जिनमें पहले तीन वर्षों में ही (2019-20 में 930, 2020-21 में 760 और 2021-22 में 1,305) एफआईआर दर्ज कर खनन माफियाओं को कानून के कठघरे में खड़ा किया, वहीं मौजूदा भाजपा सरकार (2024-25) पहले साल में केवल 508 एफआईआर दर्ज कर पाई है। एफआईआर की संख्याओं में यह गिरावट दिखाती है कि भाजपा सरकार खनन माफिया के प्रति नरम है, जिससे खनन माफिया के हौसले फिर से बुलंद हो रहे हैं। अशोक गहलोत ने कहा कि अरावली केवल पहाड़ नहीं बल्कि, राजस्थान की जीवनरेखा है, जो थार मरुस्थल को बढ़ने से रोकती है। केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव जी स्वयं इसी प्रदेश से आते हैं, उनसे अपेक्षा थी कि वे अरावली के संरक्षक बनेंगे, न कि विनाशक। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार खेजड़ली में हमारे पूर्वजों ने श्रीमती अमृता देवी के नेतृत्व में पेड़ों एवं प्रकृति के लिए बलिदान दिया था एवं उसी भावना के साथ हमें अरावली को बचाना होगा। (लेखक, दिल्ली से प्रकाशित हिंदी साप्ताहिक गौतम संदेश के संपादक हैं) (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) ईएमएस / 28 दिसम्बर 25