लोकतंत्र की नींव निष्पक्ष और विश्वसनीय चुनावी प्रक्रिया पर टिकी होती है। इस प्रक्रिया की पहली और सबसे महत्वपूर्ण कड़ी मतदाता सूची है, क्योंकि यदि मतदाता सूची ही विवादित हो जाए, तो चुनाव की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। पश्चिम बंगाल में चुनाव आयोग द्वारा कराए जा रहे विशेष गहन पुनरीक्षण (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन– एसआईआर) को लेकर चुनाव कार्य में लगे प्रशासनिक अधिकारियों की आपत्ति ने एक बार फिर चुनाव आयोग को लेकर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। पश्चिम बंगाल सिविल सर्विस ऑफिसर्स एसोसिएशन द्वारा राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को लिखा गया पत्र साधारण प्रशासनिक शिकायत नहीं है, बल्कि यह चुनावी व्यवस्था के भीतर बढ़ते केंद्रीकरण और तकनीक-आधारित प्रक्रिया एवं निष्पक्षता पर गंभीर चेतावनी है। अधिकारियों का कहना है कि मतदाता सूची में नाम जोड़ने या हटाने का अधिकार निर्वाचन कानूनों के अनुसार निर्वाचक रजिस्ट्रीकरण अधिकारी (ईआरओ) के पास होता है, लेकिन एसआईआर की मौजूदा प्रक्रिया में वैधानिक भूमिका को चुनाव आयोग ने अवैध रूप से सीमित कर दिया है। सबसे गंभीर आरोप यह है कि केंद्रीय चुनाव आयोग के एक केंद्रीकृत सॉफ्टवेयर सिस्टम के माध्यम से सीधे वोटर के नोटिस जनरेट किए जा रहे हैं। कई ईआरओ के लॉग-इन पर पहले से तैयार नोटिस दिखाई दे रहे हैं, जिससे यह तय करने की स्वतंत्रता ईआरओ की समाप्त हो गई है। किस मामले में नोटिस जारी किया जाए और किसमें सुनवाई आवश्यक है। इस प्रक्रिया को केन्द्रीय चुनाव ने हस्तगत कर लिया है। यह स्थिति केवल प्रशासनिक अधिकार तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके दूरगामी लोकतांत्रिक परिणाम हो सकते हैं। बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम केंद्रीय पोर्टल के माध्यम से हटाए जाते हैं, तो आम जनता का रोष सीधे बीएलओ और ईआरओ पर गिरेगा। जबकि वास्तविक निर्णय प्रक्रिया में उनकी भूमिका नाममात्र की तरह रह गई है। इससे स्थानीय अधिकारियों की निष्पक्षता पर सवाल उठने लगे है। चुनाव कार्य में लगे प्रशासन और जनता के बीच अविश्वास की खाई और गहरी हो गई है। एसोसिएशन ने अपने पत्र में ठीक ही कहा है कि एसआईआर जैसी संवेदनशील प्रक्रिया में केन्द्रीयकृत सॉफ्टवेयर आधारित निर्णय खतरनाक हो सकता है। तकनीक प्रक्रिया को सुगम बना सकती है, लेकिन वह मानवीय विवेक, सामाजिक संदर्भ मतदाता के अधिकार और जमीनी सच्चाई का विकल्प नहीं माना जाएगा। मतदाता सूची से किसी का नाम हटाना केवल एक तकनीकी कार्रवाई नहीं, बल्कि नागरिक के संवैधानिक अधिकार को प्रभावित करने वाला निर्णय है। ऐसे में पारदर्शी सुनवाई और स्थानीय स्तर पर जांच के बाद ही कार्यवाही होनी चाहिए। इस पत्र के सामने आने के बाद राजनीतिक हलकों में हलचल तेज हो गई है। विपक्षी दल इसे मतदाता सूची में संभावित हेरफेर से जोड़कर देख रहे हैं। विपक्षी दल चुनाव आयोग की मंशा पर सवाल उठा रहे हैं। दूसरी ओर, चुनाव आयोग की चुप्पी इस संदेह को और मजबूत बनाती है। चुनाव आयोग की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए निष्पक्ष होना और निष्पक्ष दिखाई देना भी उतना ही जरूरी है। केन्द्रीय चुनाव आयोग द्वारा चुनावी प्रक्रियाओं का विभिन्न साफ्टवेयर के माध्यम से केंद्रीकरण, संघीय ढांचे और स्थानीय प्रशासन की भूमिका को कमजोर कर रहा है? भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, जहां सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियां क्षेत्र-दर-क्षेत्र भिन्न हैं, वहां स्थानीय अधिकारियों की भूमिका को दरकिनार करना व्यावहारिक नहीं है। केन्द्रीय चुनाव आयोग गैरकानूनी काम कर रहा है। चुनाव आयोग को चाहिए कि वह एसोसियेशन द्वारा की गई आपत्ति को राजनीतिक शोर मानकर नजरअंदाज न करे। ईआरओ को उनकी वैधानिक शक्तियां लौटाना किसी भी मतदाता के नाम का डिलीशन से पहले अनिवार्य सुनवाई सुनिश्चित करना और सॉफ्टवेयर को सहायक उपकरण के रूप में मान्य करना ही निष्पक्ष चुनाव की गारंटी है। मतदाता सूची की शुद्धता, मताधिकार तथा चुनावों की निष्पक्षता किसी एक संस्था की नहीं, बल्कि संवैधानिक अधिकार और लोकतंत्र की जिम्मेदारी है। यदि प्रशासनिक अधिकारी ही प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल उठाने लगें, तो उसे चेतावनी की खतरे की घंटी समझा जाना चाहिए। एसआईआर का उद्देश्य वास्तव में लोकतंत्र को मजबूत करना है, तो उसे विश्वास, पारदर्शिता और संवैधानिक मर्यादाओं के साथ लागू करना ही होगा। पिछले कुछ वर्षों से चुनाव आयोग डिजिटल उपकरणों, सॉफ्टवेयर तथा हार्डवेयर का उपयोग बड़े पैमाने पर कर रहा है। मतदाता सूची बनाने, मतगणना के परिणाम एवं अन्य कार्य केन्द्रीय चुनाव आयोग कर रहा है। सॉफ्टवेयर एवं उपकरणों के बारे में चुनाव आयोग राजनैतिक दलों एवं मतदाताओं को विश्वास में नहीं ले रहा है। केन्द्रीय चुनाव आयोग हर मामले में चुप्पी साध लेता है। जिस कार्य के अधिकार जिले के अधिकारियों के पास है, उन्हें बाय-पास करके उनके अधिकार केन्द्रीय चुनाव आयोग के अधिकारी अवैधानिक रूप से उपयोग कर रहे हैं। यह एक अपराध है। प्रशासनिक अधिकारियों एवं राज्य सरकारों को भी सजग रहने की जरूरत है। वहीं मतदाता के संवैधानिक अधिकार खत्म हो रहे हैं। ऐसी दशा में मतदाता को अपने अधिकार के लिए सड़कों पर आना होगा। चुनाव आयोग की चुप्पी यह साबित करती है, वह अब निष्पक्ष नहीं, बल्कि पक्षपाती के रूप में कार्य कर रही है। चुनाव आयोग को गंभीरता से विचार करना होगा। ईएमएस/ 29 दिसम्बर 25