लेख
29-Dec-2025
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शरीर में कण्ठ से हृदय पर्यन्त जो वायु कार्य करता है, उसे प्राण कहा जाता है । यह प्राण नासिका मार्ग, कण्ठ, स्वर तन्त्र, वाक् इन्द्रिय, अन्न नलिका, श्वसन तन्त्र, फेफड़ों एवं हृदय को क्रियाशीलता तथा शक्ति प्रदान करता है । हमारे शरीर में पुरयषटका है जिसे प्राण भी कहते ,कोई उसे जीवात्मा कहता , प्राण से नाड़ी और नाड़ी से श्रवास ऐसे चलती जैसे धोकनी ये सब क्रिया है यहां करता कोई नहीं है क्रिया जगत यानि संसार में हो रही सुरज निकल रहा हवा बह रही धरती घुम रही इसके चलाने वाला कोई करता नहीं ,जीव स्वयं के होने का अभिमान कर करता बन बैठा और फिर भोग फिर भोग से तृष्णा बेचैनी असंतोष अब वो ही मार्ग खोज रहा वो शरीर को सत्य जान रहा लेकिन ये नहीं समझ रहा क्रियाओ का कारण गुण है और भगवान श्रीकृषण ने कहा कि गुणा गुणैसु वर्त्तते कबीर दास जी भजन के माध्यम से कहते हैँ राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रे! अंजन माने प्रकृति; ये शरीर, हमारे विचार, हमारी मान्यताएँ, सुख-दुख, रिश्ते-नाते, कल्पनाएँ, आकांक्षाएँ—सब अंजन का ही विस्तार है, सब अंजन का ही पसार है। तो निरंजन क्या है? राम हैं निरंजन — वो जो इस पूरे विस्तार से न्यारे हैं, विशिष्ट हैं। क्या आपके जीवन में भी कुछ ऐसा है जो इस प्रकृति के फैलाव से अलग है? क्या आपके जीवन में कुछ ऐसा है जो आपको उस निरंजन राम से मिलवा सके? कबीर साहब के इस भजन का वेदान्तिक अर्थ कर रहे हैं और एक-एक शब्द के माध्यम से हमारे जीवन के अंजन की परतों को खोल रहे हैं। पूरी चर्चा में आचार्य जी बता रहे हैं कि कैसे अंजन से घिरे रहकर भी कोई उसी अंजन को माध्यम बना सकता है निरंजन तक पहुँचने का। आशा है इस भजन के माध्यम से आप भी अंजन से निरंजन की ओर बढ़ पाएँगे जागृत में सुषुप्ति हृदय और हृदय में श्रवास का अभाव न देश न काल उसे साक्षी आत्मा कहते हैं सीधी सरल भाषा मे ब्रह्म की परिभाषा देनी हो तो ऐसा कहा जा सकता है ब्रह्म यानी चैतन्य का महासागर । जिस चैतन्य में से चैतन्य प्राप्त करके चन्द्र समस्त विश्व के प्राणी , पदार्थ , वनस्पति को अमृतमय शीतलता प्रदान करता है । जिस चैतन्य में से चैतन्य प्राप्त करके तारे , ग्रह , नक्षत्र आकाश में बिना किसी आधार के लटक रहे हैं । जिस चैतन्य में से चैतन्य प्राप्त करके सूर्य , चन्द्र ,तारे , नक्षत्र , ग्रह , पृथ्वी आदि हजारों मील की गति से आकाश में भृमण कर रहे है । जिस चैतन्य में से चैतन्य प्राप्त करके पृथ्वी तमाम प्राणी पदार्थ , नदियाँ , पर्वत को धारण कर सकती है और वायु वहन कर रहा है । उसी चैतन्य का संग्रह , चैतन्य महासागर का नाम परब्रह्म परमेश्वर है । ब्रहम कि अनुभुति होती है जहां पर वाणी कि भी गति नहीं ,वहां पर शब्द यानि जगत और अर्थ यानि उसकी सत्यता का अभाव है उस स्थिती का नाम ब्रहम चैतन्य संवित आत्मा परमात्मा इतना शास्त्र और ऋषियों ने उपदेश के लिए कहा जब वो अनुभुति होती तब जीव जान लेता कि ये सब कल्पना नहीं है और तब वो समता करुणा अभय निश्चिंत मुदिता और प्रेम में डुबा रहता सिर्फ एक माया ही ऐसी है जो उसे गिरा सकती इसलिए उसे कभी भी सत्संग संतों का संग शास्त्र चर्चा का त्याग नहीं करना चाहिए हृदय = भक्ति साक्षी = ज्ञान श्वास = योग और तीनों से मिश्रित मार्ग भी है। कर्म मार्ग भी है। यह किसी संत ने स्वयं अपने मार्ग के विषय में बताया है श्वास यानी विपश्यना। सांसों पर ध्यान देकर अंतर्मुखी होने का प्रयास करना। साक्षी मतलब दृष्टा भाव को प्राप्त करना लेकिन यह प्राप्त कैसे होगा इतना सरल है क्या कभी-कभी संत लोग मैं तो यही कहूंगा कुछ ऐसी बातें बोलते हैं जो आम भक्तों के पल्ले नहीं पड़ती तो वह महान की श्रेणी में आ जाते हैं। बात वह करनी चाहिए जो धरातल पर हो और प्रैक्टिकल हो। अब आपने लिख दिया साक्षी यानी दृष्टा भाव अरे हमारे पिताजी की संपत्ति नहीं है जो उनके बाद हमको सीधे मिल जाएगी। इसी के लिए तो सारे कर्मकांड है लेकिन क्या हमारे अंदर यह आता है। फिर लिख दिया हृदय भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में बोला है कि मैं हृदय में स्थित गुह्य में निवास करता हूं। इसका एक यह भी अर्थ हो सकता है आप हृदय चक्र में ध्यान करें। भगवान राम के ध्यान से मन शांत होता है उसके बाद हमें शांत मन से कुछ भी बोलना है वह बड़ा सोच समझ कर ही सत्य संभव हो या ना हो उसका मार्ग हमें पता हो या ना हो हमें तो अपनी विद्वत्ता सिद्ध होता है। यह तरह मन शांत में सही और गलत का पहचान करता है जब ऊपरी मन से केवल नाम लेते हैँ तो वाक्य वास्तव में सही नहीं बैठता है क्योंकि श्वास आरंभ है और साक्षी बहुत मुश्किल काम है जो इसे धीरे-धीरे प्राप्त होता है इसलिए तीनों को एक साथ बैठना उचित नहीं सबसे पहले आप स्वस्थ लिखिए उसके बाद आप साक्षी लिखिए और फिर आपका हृदय में स्थित जो प्रमुख अंश है वह लिखिए। इन सभी का एक ही उत्तर है अपने इष्ट का सतत निरंतर निर्बाध मंत्र जाप या नाम जप और कुछ नहीं। इससे सस्ता सुंदर टिकाऊ और सहज मार्ग कोई हो नहीं सकता।राम के ध्यान से प्रेम उमड़ पड़ता है और प्रेम को समझने के लिए निम्न बातों पर विचार करें । 1.. प्रेम सदैव ही सहनशील एवं मधुर होता है। कठोरता, उद्दंडता, दृढ़ प्रेम के विरोधी लक्षण है। प्रेमी,उदार, अक्रोधी, तथा नम्र होता है। 2... प्रेम ईर्ष्या नहीं करता। प्रेमी को विश्वास होता है कि, उसके प्रभु का भंडार अखंड एवं अखूट है। अतः ईर्ष्या किस बात की। 3.. प्रेम में आत्म श्लाघा नहीं प्रेमी जानता है कि गुणों का भंडार केवल उसका प्रभु है। केवल वही प्रशंसनीय है। 4.. प्रेम में गर्व नहीं होता।।गर्व (अभिमान)से चित्त दूषित हो जाता है। दूषित चित्त को प्रभु कभी भी पसंद नहीं करते। 5.. प्रेम में दुष्ट आचरण नहीं है क्योंकि प्रेमी के प्रत्येक आचरण, व्यवहार एवं क्रिया अपने प्रियतम की प्रसन्नता के लिए ही होती है 6.. प्रेमी अपना मन, बुद्धि, हृदय, कामनाएं,शरीर,समय,धन, सम्पत्ति, घर परिवार सभी कुछ प्रभु को अर्पण करता जाता है।। प्रेम का अर्थ खुद और संसार की रक्षा करना है, लेकिन जल्दबाजी में और बिना पूरी सच्चाई जाने किसी गलत आदमी को की गई रक्षा स्वयं एक विनाशकारी रूप ले सकती है। श्री राम ने यही सिखाया कि प्रेम को विवेक और विश्वास के साथ संतुलित करना आवश्यक है। ईएमएस/29/12/2025