लेख
09-Jul-2025
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गुरु बिन ज्ञान न उपजै गुरु बिन मिलै न मोक्ष, गुरु बिन लखै न सत्य को गुरु बिन मिटै न दोष। अर्थात गुरु के बिना ज्ञान नहीं आता और न ही मोक्ष मिल सकता है। गुरु के बिना सत्य की प्राप्ति नहीं होती और ना ही दोष मिट पाते हैं। यानी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को संवारने के लिए गुरू का होना बहुत ही आवश्यक है। भारतीय संस्कृति को धारण करने वाला व्यक्ति प्रेरणापुंज की तरह ही होता है। उनके प्रत्येक शब्द सकारात्मक दिशा का बोध कराने वाला होता है। हम प्राय: सुनते हैं कि हमारा देश विश्व गुरु रहा है, विश्व गुरु यानी सम्पूर्ण क्षेत्रों में विश्व का मार्ग दर्शन करने वाला, लेकिन क्या हमने सोचा है कि भारत का वह कौन सा गुण था, जिसके कारण विश्व के अंदर भारतीय प्रतिभा और क्षमता का बोलबाला था। इसका उत्तर आज भले ही कोई नहीं जानता हो, लेकिन यथार्थ यही है कि इसके पीछे मात्र भारतीय गुरुकुल ही थे। भारतीय संस्कृति में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें बालक के सम्पूर्ण विकास की अवधारणा और संरचना होती है। उस समय के हिसाब से गुरुकुलों में विश्व की सबसे श्रेष्ठ शिक्षा दी जाती थी। छात्रों का समग्र विकास किया जाता था। चाहे वह ज्ञान, विज्ञान का क्षेत्र हो या शारीरिक शिक्षा की बात हो या फिर नैतिक और व्यावहारिक संस्कारों की ही बात हो। गुरुकुल की शिक्षा बहुमुखी प्रतिभा का विकास करती थी। आज देश में कई गुरुकुल चल रहे हैं, उसमें बहुत आश्चर्यजनक प्रतिभा संपन्न बालकों का निर्माण भी हो रहा है। पिछले समय गूगल बॉय के रुप में चर्चित होने वाला बालक इन्हीं गुरुकुलों की देन है। गुजरात के कर्णावती में हेमचंद्राचार्य गुरुकुल में ऐसे नन्हे प्रतिभाशाली छात्रों को देखकर विदेशी भी चकित हैं। हमारे देश को वास्तव में गुरुकुल आधारित शिक्षा पद्धति की आवश्यकता है, क्योंकि यही भारत की वास्तविक शिक्षा है और इसी से छात्रों का समग्र विकास हो सकता है। गुरुकुल में जो अध्यापक होते थे, वह अपने आपको गुरु की भूमिका में लाने के लिए ज्ञान की साधना करते थे। एक ऐसा ज्ञान जो समाज को सार्थक दिशा का बोध करा सके। उस समय वर्तमान की तरह स्कूल नहीं होते थे। क्योंकि स्कूलों की प्रणाली विदेशी प्रणाली है। इससे गुरु और शिष्य के मध्य अपनत्व नहीं होता। गुरुकुल का अर्थ स्पष्ट है। वह गुरू का कुल यानी परिवार होता था। गुरु अपने शिष्य को अपने परिवार का सदस्य मानकर ही शिक्षा देता था। संस्कृत में गुरु शब्द का अर्थ ही अंधकार को समाप्त करने वाला होता है। आज के स्कूल एक प्रकार के व्यापार केन्द्र ही हैं। पैसे को आधार मानकर शिक्षा देने का चलन हो गया है। इससे गुरु और शिष्य के बीच गुरुकुल जैसे संबंध नहीं बनते, क्योंकि इन स्कूलों में नैतिक व्यवहार की सीख नहीं दी जाती। शिष्य को ज्ञान नहीं, केवल शब्द पढ़ाए जाते हैं। शिक्षा प्रणाली का किसी भी देश के निर्माण में बहुत बड़ा योगदान होता है। भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद जिस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए थी, उसका हमारे देश में नितांत अभाव महसूस किया जाता रहा है। शायद, स्वतंत्रता मिलने के बाद हमारे नीति निर्धारकों ने शिक्षा नीति बनाने के बारे में कम चिन्तन किया। इसी कारण आज की नई पीढ़ी को इतिहास की जानकारी देने से वंचित किया जा रहा है। यहां यह बताना आवश्यक है कि इतिहास कोई सौ या दो सौ सालों में नहीं बनते। जहां तक भारत के दो सौ सालों के इतिहास की बात है तो इस दौरान भारत परतंत्रता की जंजीरों में जकड़ा रहा था। इसलिए स्वाभाविक है कि उस कालखंड का इतिहास हमारा मूल इतिहास नहीं कहा जा सकता। अगर हमें भारत के इतिहास का अध्ययन करना है तो उस कालखंड में जाना होगा, जब भारत पर किसी विदेशी का शासन नहीं था। क्या आज यह इतिहास कोई जानता है, ... बिलकुल नहीं। उसको कोई बताता भी नहीं, क्योंकि उसको बताने से भारत का वही रूप सामने आएगा, जो विश्वगुरू भारत का था। हम जानते हैं कि विश्व के प्राय: सभी देशों में जो शिक्षा प्रदान की जाती है, वह उस देश के मूल भाव को संवर्धित करती हुई दिखाई देती है। इसके अलावा शिक्षा का मूल भी यही होना चाहिए कि उसमें उस देश का मूल संस्कार परिलक्षित हो। हमें पहले यह भी समझना होगा कि शिक्षा किसलिए जरूरी है? क्या केवल साक्षर होने या नौकरी के लिए पढ़ाई की जानी चाहिए अथवा इसके और भी गहरे मायने हैं? विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय वह केंद्र होते हैं, जहां विद्यार्थी को वैचारिक स्तर पर गढ़ने का कार्य किया जाता है। विद्यार्थी को गढ़ने का कार्य केवल गुरू ही कर सकते हैं। भारत के मनीषियों ने गुरु के साथ विद्यार्थी के सानिध्य को समझा और गुरुकुल पद्धति पर बल दिया। पारिवारिक वातावरण से दूर रहने के कारण उसमें आत्मनिर्भरता विकसित होती थी तथा वह संसार की गतिविधियों से अधिक अच्छा ज्ञान प्राप्त करता था। उससे आत्मानुशासन की प्रवृत्ति का भी विकास होता था। महाभारत में गुरुकुल शिक्षा को गृह शिक्षा से अधिक प्रशंसनीय बताया गया है। प्राचीन भारत में शिक्षा पद्धति की सफलता का मुख्य आधार गुरुकुल ही थे जो किसी न किसी महान तपधारी ऋषि की तपोभूमि तथा विद्यार्जन के स्थल थे। गुरुकुल और समाज के मध्य पृथक्करण नहीं था। गुरु का कार्यक्षेत्र केवल गुरुकुल तक ही सीमित नहीं था अपितु उनके तेजोमय ज्ञान का प्रसार राष्ट्र के सभी क्षेत्रों में था। उनकी विद्वता और उत्तम चरित्र तथा व्यापक मानव सहानुभूति की भावना के कारण उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली होती थी। गुरु के आचार-विचार में भेद नहीं होता था। गुरुकुल में प्रवेश पाने वाले शिक्षार्थी के अन्तर्मन में झाँककर गुरु उसकी योग्यता, आवश्यकता एवं कठिनाइयों को भलीभांति समझते थे। गुरुकुल का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों में उत्तम मानस का निर्माण करना था। वस्तुत: स्वयं गुरु ही विद्यार्थियों के आदर्श थे जिनसे प्रेरित होकर वे उनका अनुसरण करते थे और संयमी, गम्भीर तथा अनुशासन युक्त जीवन का निर्माण करते थे। प्राचीन काल में धौम्य, च्यवन ऋषि, द्रोणाचार्य, सांदीपनि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, वाल्मीकि, गौतम, भारद्वाज आदि ऋषियों के आश्रम प्रसिद्ध रहे। बौद्धकाल में बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य की परंपरा से जुड़े गुरुकुल जग प्रसिद्ध थे, जहाँ विश्वभर से मुमुक्षु ज्ञान प्राप्त करने आते थे और जहाँ गणित, ज्योतिष, खगोल, विज्ञान, भौतिक आदि सभी तरह की शिक्षा दी जाती थी। प्रत्येक गुरुकुल अपनी विशेषता के लिए प्रसिद्ध था। कोई धनुर्विद्या सिखाने में कुशल था तो कोई वैदिक ज्ञान देने में, कोई अस्त्र-शस्त्र सिखाने में तो कोई ज्योतिष और खगोल विज्ञान की शिक्षा देने में दक्ष था। भारतीय संस्कृति में कहा गया है सा विद्या या विमुक्तयेÓ अर्थात् विद्या वही है जो हमें सब बंधनों से मुक्त कर दे। कहा जाता है कि जैसी शिक्षा दी जाएगी, देश का मानस उसी प्रकार का बनता जाएगा। इसलिए समाज को इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए, जिससे असली भारत का निर्माण हो सके। इसलिए इस ओर बहुत अच्छे प्रयास प्रारम्भ हो गए हैं। (लेखिका शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास भारतीय भाषा मंच की प्रान्त सह संयोजक एवं पार्वती बाई गोखले विज्ञान महाविद्यालय में विभागाध्यक्ष हैं) (यह ले‎खिका के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 09 जुलाई /2025