लेख
09-Jul-2025
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भारतवर्ष में गुरु का स्थान सर्वोच्च माना गया है। गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः जैसी पंक्तियाँ यह दर्शाती हैं कि हमारे जीवन के हर पहलू को दिशा देने वाले गुरु केवल एक शिक्षक नहीं, बल्कि संपूर्ण जीवनदर्शन के निर्माता होते हैं। गुरु पूर्णिमा का यह पावन पर्व केवल गुरु के प्रति कृतज्ञता का नहीं, बल्कि ज्ञान और संस्कार की परंपरा के सम्मान का भी प्रतीक है। कला के क्षेत्र में, विशेष रूप से भारतीय शास्त्रीय नृत्य कथक में, गुरु-शिष्य परंपरा एक मजबूत नींव है। कथक केवल ताल, लय और भावों का नृत्य नहीं, अपितु यह एक जीवन-दर्शन है जो गुरु के आशीर्वाद से ही संपूर्ण होता है। भारत में लखनऊ, जयपुर और बनारस घराना कथक के तीन प्रमुख घराने हैं, जो अपने-अपने विशिष्ट रंग, शैली और परंपरा के लिए प्रसिद्ध हैं। इन घरानों को विश्व पटल पर स्थापित करने में अनेक गुरुओं का योगदान रहा है। लखनऊ घराने के पुरोधा पंडित लच्छू महाराज जी ने कथक को फिल्मों और मंचों पर एक नई पहचान दी। वहीं उनके भतीजे पंडित बिरजू महाराज जी, कथक के पर्याय बन चुके हैं। उन्होंने कथक को अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम बनाया जो न केवल शास्त्रीय मंचों पर बल्कि जनमानस के हृदय में भी स्थान बना सका। जयपुर घराने की तेज और जटिल पखावज आधारित बोलों की परंपरा को पंडित दुर्गालाल जी ने एक ऊंचाई प्रदान की। उनकी नृत्य शैली में शक्ति, ऊर्जा और गंभीरता का अद्वितीय संगम देखने को मिलता है। बनारस घराने की भावप्रधान और सौम्य शैली को विश्वस्तर पर पहचान दिलाने में इन गुरुओं का विशेष योगदान रहा है। सुनयना हज़ारीलाल जी ने कथक को स्त्री-अभिव्यक्ति और नारीत्व के संदर्भ में सशक्त बनाया। मैं स्वयं मेरे गुरूजनों श्री विश्वजीत चक्रवर्ती, प्रो. डॉ. मांडवी सिंह एवं प्रो. डॉ ज्योति बक्शी के सान्निध्य में कथक की बारीकियों को आत्मसात कर सका। उन्होंने केवल तकनीक नहीं, बल्कि नृत्य के भीतर छिपे अध्यात्म, दर्शन और संवेदना को समझाया। कथक, गुरु के बिना अधूरा है, उसमें आत्मा तब ही आती है जब शिष्य समर्पण और अनुशासन के साथ गुरु की शरण में रहकर साधना करता है। आज भी, जब हम गुरुपूर्णिमा पर अपने गुरुओं का स्मरण करते हैं, यह केवल एक अनुष्ठान नहीं बल्कि ज्ञान की लौ को और आगे जलाने का, कला को भावी पीढ़ी तक ले जाने का एक संकल्प है। आज के आधुनिक युग में जहां डिजिटल माध्यम ने नृत्य सीखने के नए रास्ते खोल दिए हैं, वहीं यह और भी आवश्यक हो गया है कि हम पारंपरिक गुरु-शिष्य परंपरा को बनाए रखें। क्योंकि कथक केवल वीडियो देखकर नहीं सीखा जा सकता, वह गुरु की आंखों के इशारे से, उनके स्पर्श से एवं उनकी मौन दृष्टि से सीखा जाता है। गुरु पूर्णिमा के इस पावन अवसर पर हम सभी कलाकारों को यह प्रण लेना चाहिए कि हम अपने गुरुओं की शिक्षाओं को आत्मसात करें, उनका यश आगे बढ़ाएं, और इस महान कला परंपरा को समर्पण, अनुशासन और प्रेम के साथ जीवित रखें। गुरु को कोटिशः नमन। ( लेखक क‍थक के सहायक प्राध्‍यापक हैं) (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 9 जुलाई /2025