27 सितंबर 1925 को जब डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना की थी, तब शायद ही किसी ने ऐसा सोचा होगा कि आगामी सौ वर्षों में यह संगठन इतना विशाल और प्रभावशाली बन जाएगा। बीते दस दशकों में आरएसएस ने भारत की सामाजिक बुनियाद को मजबूत किया है, उसकी संप्रभुता की रक्षा की है, कमजोर वर्गों को सशक्त बनाया है और भारतीय सभ्यता के मूल्यों को संजोए रखा है। वर्तमान में आरएसएस निःस्वार्थ सेवा का जीवंत प्रतीक बन गया है। आरएसएस के शताब्दी उत्सव के अवसर पर, उसकी यात्रा को पुनः याद करना उचित भी है और आवश्यक भी। हाल ही में दिल्ली में हुए एक कार्यक्रम में सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने संघ के समावेशी विचारों पर चर्चा करते हुए कहा “धर्म व्यक्तिगत पसंद का विषय है; इसमें किसी तरह का प्रलोभन या जोर-जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए।” यह वक्तव्य संघ की मूल विचारधारा को प्रतिबिंबित करता है कि समाज में टकराव नहीं, सामंजस्य हो ; बिखराव नहीं, एकता हो और केवल भौतिक वस्तुओं की प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि जीवन की सार्थकता पर बल हो। आज भी संघ की दैनिक शाखाएँ और स्वयंसेवकों द्वारा चलाए गए कार्यक्रम; अनुशासन, आत्मबल और भारतीय संस्कृति पर गर्व करने की प्रेरणा देते हैं जिससे श्रेष्ठ भारत के निर्माण का मार्ग सुगम होता हैं। इसलिए यह अत्यंत स्वाभाविक बात है कि संघ के अनुकरणीय योगदान के लिए प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 79वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से संघ को “दुनिया का सबसे बड़ा गैर-सरकारी संगठन” बताया और देशवासियों को संघ की सौ साल की भव्य, प्रेरणादायक और समर्पित यात्रा के बारे में याद दिलाया। वर्ष 1947 में जब भारत स्वतंत्रता का उत्सव माना रहा था तब विभाजन की त्रासदी की वजह से बहुत जनहानि हुई थी और लाखों लोगों को अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा था। ऐसी भीषण परिस्थिति में आरएसएस के स्वयंसेवक एक अनुशासित, संगठित और निःस्वार्थ सेवकों के रूप में सामने आए। उन्होंने हिंसा से प्रभावित लोगों को सुरक्षा प्रदान करने और चिकित्सा उपलब्ध कराने के साथ विस्थापित लोगों के पुनर्वास में अनन्य योगदान दिया। विभाजन से पहले भी आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक श्री गुरुजी (एम.एस. गोलवलकर) और संघ के कई वरिष्ठ नेताओं ने पंजाब के विभिन्न हिंसाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया था और उन्होंने वहाँ के लोगों को आत्मरक्षा और राहत कार्यों के लिए संगठित किया था। इस दौरान संघ की भूमिका का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि तत्कालीन हालात से घबराये कांग्रेसी नेताओं को भी अपने परिवारों और समुदाय की रक्षा के लिए संघ की मदद लेनी पड़ी थी। स्वयंसेवकों की सेवा के कारण ही द ट्रिब्यून अख़बार ने अपनी एक रिपोर्ट में आरएसएस को “The sword arm of Punjab” कहा था। संघ द्वारा समाज-सेवा का कार्य विभाजन के बाद भी अनवरत जारी रहा । 1984 में जब सिख विरोधी दंगे भड़काए गए और हजारों सिखों की हत्या की गई, तब भी संघ स्वयंसेवक सिखों की रक्षा और राहत कार्यों के लिए सबसे आगे थे। लेखक खुशवंत सिंह ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि श्रीमति इंदिरा गांधी की हत्या के बाद में हिंदू-सिख एकता बनाए रखने में आरएसएस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संघ के कार्यों को देखकर यह बात आसानी से कही जा सकती है कि कुछ लोगों द्वारा आरएसएस पर बहुसंख्यकवादी संगठन होने का आरोप लगाना बिल्कुल निराधार और गलत है। स्वतंत्रता के समय भी संघ ने भारत के अल्पसंख्यकों और उनके पूजा स्थलों की रक्षा में मदद की थी। मार्च 1947 में, जब मुस्लिम लीग द्वारा उकसाई गई भीड़ श्री हरमंदिर साहिब की ओर बढ़ी, तो तलवारों और लाठियों से लैस आरएसएस के स्वयंसेवकों ने न केवल उसका सामना किया बल्कि उसे पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था। तीन दिन बाद, जब एक और सुनियोजित हमला श्री हरमंदिर साहिब पर करने का प्रयास किया गया था, तब आरएसएस के स्वयंसेवकों ने एक मानव घेरा बनाकर गुरुद्वारे की रक्षा की थी और हमलावरों को सफलतापूर्वक खदेड़ भगाया था। भारत के एकीकरण में संघ के योगदान से भी बहुत लोग अवगत नहीं हैं। कश्मीर से गोवा और दादरा नगर हवेली तक, संघ ने भारत की अखंडता को बनाए रखने में निर्णायक भूमिका निभाई है। जब पाकिस्तान समर्थित कबायली हमलावरों ने जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण किया, तो सरदार वल्लभभाई पटेल ने महाराजा हरि सिंह को विलय के लिए राजी करने हेतु श्री गुरुजी की मदद मांगी थी। इसके बाद श्री गुरुजी श्रीनगर गए और उन्होंने हरि सिंह को तत्काल विलय करने के लिए मनाने का प्रयास किया था। आरएसएस स्वयंसेवकों ने 1947-48 के युद्ध के दौरान सेना की सहायता भी की थी। साथ ही मीरपुर और मुजफ्फराबाद जैसे क्षेत्रों से भाग रहे शरणार्थियों के लिए राहत कार्यों की व्यवस्था भी संभाली थी। 1954 में स्वयंसेवकों ने दादरा और नगर हवेली को पुर्तगाली शासन से मुक्त कराने में अग्रणी भूमिका निभाई। के.आर. मलकानी की पुस्तक “दी आरएसएस स्टोरी” के अनुसार— “ 2 अगस्त 1954 को लगभग 200 आरएसएस स्वयंसेवकों ने, नाना काजरेकर और सुधीर फड़के के नेतृत्व में, दादरा और नगर हवेली को आज़ाद कराया। उन्होंने राइफ़ल, ब्रेन गन और स्टेन गन से लैस 175 पुर्तगाली सैनिकों को खदेड़ दिया।” इसी तरह, गोवा की आज़ादी के लिए आरएसएस ने भूमिगत स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लिया था। पुर्तगाली सैनिकों की गोलीबारी में कई स्वयंसेवकों ने अपने प्राण न्योछावर भी किए। उनका बलिदान गोवा के भारत-विलय में निर्णायक साबित हुआ। इस प्रकार, आरएसएस ने हमेशा भारत को मजबूत करने के लिए कार्य किया है। 1975 के दौरान, संघ ने आपातकाल का मज़बूती से विरोध किया था। इसके खिलाफ लाखों स्वयंसेवक संगठित होकर भारत के संविधान की रक्षा के लिए खड़े हो गए। जनवरी 1976 में द इकोनॉमिस्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा था —“इस आंदोलन की मुख्य ताक़त जनसंघ और उससे जुड़ा संगठन आरएसएस है।” यह वह समय था, जब लोगों और संस्थाओ को केवल झुकने को कहा जाता था तो वे रेंगने के लिए तैयार थे। इन परिस्थितियों में आरएसएस ने अपने दृढ़ संकल्प का परिचय दिया। उसके असंख्य कार्यकर्ता तानाशाही के ख़िलाफ़ बिना डरे खड़े हुए और लोगों को एक लोकतांत्रिक विकल्प प्रदान करने के लिए काम किया। यह संघ के लोकतंत्र के प्रति संकल्प का प्रमाण है। आरएसएस संवैधानिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध है। वनवासी और हाशिए के समुदायों के उत्थान के लिए, आरएसएस के द्वारा किए जा रहे कार्यों से यह बात पूर्णतया सिद्ध होती है। वर्ष 1952 में स्थापित, अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम, आज देश का सबसे बड़ा आदिवासी कल्याण संगठन है। वर्तमान में यह संगठन देश के 323 ज़िलों की लगभग 52,000 बस्तियों और गाँवों में 20,000 से अधिक परियोजनाएँ चला रहा है। इन परियोजनाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, कौशल विकास और सांस्कृतिक पुनर्जागरण जैसी गतिविधियाँ शामिल हैं। आरएसएस का दृष्टिकोण हमेशा वनवासी समाज को उनकी पहचान के साथ राष्ट्रीय मुख्यधारा से जोड़ने और उनका आत्मगौरव बढ़ाने का रहा है। आरएसएस को महात्मा गांधी जी के नाम पर भी अक्सर निशाना बनाया जाता है। हालांकि महात्मा गांधी और आरएसएस के बीच कुछ वैचारिक मतभेद अवश्य रहे, लेकिन कभी मनभेद या वैमनस्य का भाव नहीं रहा।। महात्मा गॉंधी ने कई अवसरों पर संघ के अनुशासन और राष्ट्र सेवा की प्रशंसा की है। वर्ष 1934 में गांधीजी ने वर्धा में आरएसएस के एक शिविर का दौरा भी किया था जहां उन्होंने संघ के “अनुशासन, अस्पृश्यता के पूर्ण अभाव और उच्च सादगी” की सराहना की थी। विभाजन की त्रासदी के दौरान, 16 सितंबर 1947 को, गांधीजी ने दिल्ली में आरएसएस की एक सभा को संबोधित किया था। इस दौरान उन्होंने संघ की सेवा एवं बलिदान की भावना की प्रशंसा की थी। 30 जनवरी 1948 को गांधीजी की हत्या के बाद, आरएसएस ने श्रद्धांजलि स्वरूप अपनी सभी शाखाएँ 13 दिनों के लिए स्थगित कर दीं थी। ऐसा संघ के इतिहास में सिर्फ एक बार हुआ है। यह बातें दोनों की ओर से एक दूसरे के प्रति पारस्परिक सम्मान होने की गवाही देती हैं। इस प्रकार, आरएसएस ने विचारों की विविधता का हमेशा सम्मान किया है। यह बात संघ के देशव्यापी और खासकर पूर्वोत्तर भारत में किए जा रहे कार्यों से भी प्रदर्शित होती है। उपनिवेशवाद के दौरान हुए कुशासन और आजादी के बाद नीतिगत उपेक्षा के कारण पूर्वोत्तर भारत और वहाँ के लोग अलगाववाद और उग्रवाद से जूझते रहे। लेकिन आरएसएस ने 1946 में गुवाहाटी में पहली शाखा स्थापित की और तब से इस क्षेत्र को राष्ट्रीय धारा से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बहुत सी चुनौतियों के बीच, यहाँ संघ ने विद्यालयों, स्वास्थ्य शिविरों, आपदा राहत कार्यों और सामुदायिक निर्माण जैसे कार्यों के ज़रिए सामाजिक पूंजी को बढ़ाया है और लोगों के बीच विश्वास कायम किया है। आज जब आरएसएस एक सदी की सफल यात्रा पूर्ण कर रहा है, यह बात कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि राष्ट्र निर्माण में उसका योगदान अप्रतिम और अतुलनीय है। कोविड-19 महामारी के दौरान भी संघ और उसके स्वयंसेवकों ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उदाहरण के लिए मई 2021 में लगभग 300 स्वयंसेवकों ने कोलार में लंबे समय से बंद पड़े एक अस्पताल को मात्र दो सप्ताह में फिर से शुरू किया जिससे अनेकों लोगों को अत्यंत आवश्यक राहत मिली। ऐसे कार्य दर्शाते हैं कि एक सदी बाद भी आरएसएस उसी भाव और समर्पण के साथ मानवता और देश की सेवा कर रहा है, जिसके साथ इसकी नींव एक शताब्दी पहले रखी गई थी। ईएमएस / 01 अक्टूबर 25