- नेता अधिकारी और डॉक्टर लूट में शामिल हाल ही में मध्य प्रदेश में करीब एक दर्जन बच्चों की मौत कफ सिरप के कारण हुई है। ये मौतें एक दिन में हुई हों, ऐसा नहीं है। कई दिनों से बच्चों की मौतें हो रहीं थीं। सरकार और स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी चुप्पी साधकर बैठे रहे, जिसके कारण अकेले मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में 12 बच्चों की मौत हो गई। इनमें से 11 बच्चे तो एक ही तहसील के थे। कलेक्टर, एसडीएम सरकार का स्वास्थ्य विभाग चुपचाप बैठा रहा। जब मीडिया में यह मामला उभरकर सामने आया। उसके बाद भी सरकार और उसके अधिकारी कछुए की चाल से चलते हुए सफाई देने का काम कर रहे थे। मध्य प्रदेश सरकार को कफ सिरप को प्रतिबंधित करने में एक हफ्ते से ज्यादा का समय लग गया। यदि इतना बवाल मीडिया मे नहीं हुआ होता, विपक्ष सक्रिय नहीं हुआ होता, तो सरकार भी सक्रिय नहीं होती। केंद्र सरकार और राज्य सरकारें दवा के निर्माण, मूल्य निंयत्रण, गुणवत्ता के साथ ही दवा कारोबार पर नियंत्रण रखने को लेकर जिम्मेदार हैं। पिछले कुछ वर्षों से यह विभाग पूरी तरह से कोमा मे चला गया है। बात केंद्र सरकार से शुरू करते हैं। दवा कंपनियों द्वारा मूल्य नियंत्रण और दवा उत्पादन को लेकर सरकार के मंत्रियों और सत्तारुढ़ राजनीतिक दल को करोड़ों रुपए का चंदा देकर दवा के मूल्य निर्धारित कराती हैं। चुनावी चंदे के रूप में इलेक्टोरल बांड के माध्यम से दवा कंपनियों द्वारा करोड़ों रुपए का चंदा दिए जाने की बात पहले ही उजागर हो चुकी है। इसके अलावा राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग मे कार्यरत अधिकारी और कर्मचारी अपने-अपने राज्यों में दवाओं के कारोबार को नियंत्रित करने के लिए जिम्मेदार हैं। पिछले एक दशक से केंद्र एवं राज्य सरकारों के स्वास्थ्य विभागों की हालत बेहद खस्ता है। जनसंख्या बढ़ने, अस्पताल बढ़ने, केमिस्टों की संख्या बढ़ने के साथ ही दवा निर्माताओँ की संख्या कई गुना बढ़ गई है। केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा इस कारोबार को नियंत्रित करने के लिए तथा गुणवत्ता बनाए रखने, लोगों, के जीवन को सुरक्षित करने के लिए जो कार्य करना चाहिए था, वह नहीं किया जा रहा है। स्वास्थ्य विभाग में नई नियुक्तियां नहीं हो रही हैं। जो अधिकारी और कर्मचारी सेवानिवृत हो गए हैं, उनके पद रिक्त पड़े हुए हैं। दवाइयों की जांच का जिम्मा इंस्पेक्टर और ड्रग कंट्रोलर का है। जो काम स्वास्थ्य विभाग को करना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। ड्रग इंस्पेक्टर्स की संख्या लगातार घटती चली जा रही है। जब भी कोई घटना होती है उसके बाद केंद्र सरकार और राज्य सरकारें बड़े-बड़े दावे जरूर करती हैं, लेकिन दावों का हकीकत से कोई लेना-देना नहीं होता है। हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने प्रेस रिलीज करके अपना पल्ला, यह कहते हुए झाड़ लिया, मध्य प्रदेश सरकार ने समय पर जांच के लिए लैबोरेट्री सिरप नहीं भेजा। मध्य प्रदेश सरकार को 10 से 15 दिन का समय केवल सैंपल भेजने मे लग गया। तमिलनाडु में भी इसी तरह बच्चों के मौत की घटना हुई थी। 3 दिन के अंदर रिपोर्ट आ जाने के बाद भी तमिलनाडु सरकार और केंद्र सरकार द्वारा अन्य राज्यों को सजग नहीं किया गया। 1 महीने से सिरप के कारण बच्चों की मौतें हो रही थीं। यदि समय रहते यह सूचना सभी राज्यों को दे, दी जाती तो सभी राज्यों में कफ सिरप को प्रतिबंधित कर दिया जाता। कई बच्चों की जान बच जाती। प्रशासनिक लापरवाही से बच्चों की मौतें होती रहीं। 2017 में केंद्र सरकार ने नीति बनाई थी। लेबोरेटरी से कोई दवा मानक पर खरा नहीं उतरती है, तो उसे 72 घंटे के अंदर वापस लेने का प्रावधान किया गया था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। 2023 में डब्लूटीओ ने भी चेतावनी जारी की थी। भारत का सिरप साउथ अफ्रीका भेजा गया था, वहां पर बड़ी संख्या में मौतें हुई थीं। भारत में निर्मित दवाएं विदेश में निर्यात की जा रही हैं, ऐसी स्थिति में इनकी गुणवत्ता की तरफ विशेष ध्यान होना चाहिए। दवाओं में जिस तरीके के नशीले पदार्थों का उपयोग किया जा रहा है उसको लेकर केंद्र एवं राज्य सरकारों को ज्यादा सजगता बरतने की जरूरत थी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मध्य प्रदेश में पिछले 8 महीने में जांच के दौरान 27 कंपनियों की 76 दवाइयां अमानक पाई गई हैं। इसमें पेरासिटामोल कई तरह के इंजेक्शन, सिरप और कैल्शियम की गोलियां शामिल थीं। इसके बाद भी इन पर दवाई वापस बुलाने के अलावा कोई कार्रवाई नहीं की गई। केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन की रिपोर्ट भी बताती है, इंदौर, पीथमपुर, देवास, उज्जैन, भोपाल, रतलाम और ग्वालियर की कई दवा कंपनियों की दवाएं अमानक पाई गई हैं। मध्य प्रदेश सरकार के पास पर्याप्त संख्या में ड्रग इंस्पेक्टर ही नहीं हैं। जो हैं, वे जांच के नाम पर केमिस्ट और दवा निर्माताओँ से वसूली में लगे रहते हैं। अमानक दवाइयां पाए जाने के बाद भी केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा कोई दंडात्मक कार्यवाही निर्माताओं पर नहीं की जाती है। आर्थिक दंड और ब्लैक लिस्ट करके मामले को कुछ समय के लिए दबा दिया जाता है। जिसके कारण जहरीली और नशे की दवाइयों का कारोबार दिन-प्रतिदिन बढ़ता चला जा रहा है। वर्तमान समय मे दवा कंपनियों द्वारा डॉक्टर और अस्पतालों के अनुसार अलग-अलग ब्रांड की दवाइयां महंगे प्रिंट रेट पर बेची जा रही हैं। दवाओं के नाम पर आम आदमी को खुलेआम लूटा जा रहा है। जेनेरिक दवाइयां होते हुए भी ब्रांडेड दवाइयां के नाम पर लूट जारी है। पिछले 11 वर्षों से दवाइयों की कीमतें लगातार बढ़ती चली जा रही हैं। दवाइयों की गुणवत्ता घट रही है। केंद्र एवं राज्य सरकारों का निगरानी तंत्र पूरी तरह से विफल हो गया है। निगरानी रखने के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों द्वारा जो स्टाफ नियुक्त किया जाना था, वह आज तक नहीं किया गया है। एक-एक ड्रग इंस्पेक्टर के पास कई ड्रग इंस्पेक्टर्स का प्रभार है। ड्रग के इस कारोबार में बहुत पैसा, रिश्वत और चंदे के रूप में दवा निर्माताओँ द्वारा दिया जा रहा है। जिसके कारण मरीजों को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया है। बीमार होने पर मरीज डॉक्टरों के पास जाता है, वे अपने मरीज को महंगी- महंगी दवाइयां लिखते हैं। ठीक हो गए तो उसका भाग्य, नहीं हुए तो इलाज के बहाने डॉक्टर और दवा कंपनियों की कमाई तो बढ़ती ही जाती है। बड़ी संख्या में मौत होने के बाद हर बार जब मामला तूल पकड़ता है सरकार और उनके अधिकारी सक्रिय हो जाते हैं। मुआवजा देकर मामले को निपटाने और ठंडा करने का प्रयास किया जाता है। कुछ दिन बाद लोग भूल जाते हैं। भारत में दवा के कारोबार में राजनेताओं, स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों, डॉक्टर्स और दवा कंपनियों के निर्माताओँ का एक ऐसा सिंडिकेट बन गया है, जिसे तोड़ पाना संभव नहीं दिखता है। इस समय दवा और इलाज के नाम पर जो लूट हो रही है, उससे निपटने के लिए जनता को ही लड़ाई लड़ने के लिए सामने आना होगा। अन्यथा इसी तरीके से मासूमों की जानें जाती रहेंगी। ईएमएस / 05 अक्टूबर 25