भारत में न्याय मिलना अब उतना ही दुर्लभ हो गया है, जितना रेल यात्रा के बिना वेटिंग के टिकिट मिलना। लोग कहते हैं “न्याय अंधा होता है”, असलियत में न्याय केवल अंधा नहीं, थोड़ा बहिरा और सुस्त भी हो गया है। अदालतें तारीख पर तारीख देने में इतनी पारंगत हो गई हैं, अगर ‘तारीखें देने की ओलंपिक प्रतियोगिता’ होती, तो भारत अब तक कई गोल्ड जीत चुका होता। कहते हैं कि देश में क़ानून सबके लिए बराबर है, मगर फर्क बस इतना है, कुछ लोगों को फैसला जिंदा रहते मिल जाता है। कुछ को मरने के बाद न्याय मिलता है। न्यायालयों में फाइलों के पहाड़ देखकर लगता है, जैसे हिमालय ने अदालतों में अपनी शाखा खोल ली हो। 5.15 करोड़ से ज़्यादा मामले अदालतों में लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट में लगभग 82 हज़ार, हाई कोर्टों में 57 लाख 82 हज़ार, और जिला अदालतों में 4 करोड़ 56 लाख केस लंबित है। अब ज़रा सोचिए, अगर हर जज रोज़ 10 केस निपटाए तो भी इन सबको सुलझाने में दशकों लग जाएंगे, तब तक शायद अगली पीढ़ी भी रिटायर होकर न्याय पाने से वंचित हो जाएगी। अब बात जजों की करें, तो हालत और भी मजेदार है। देश में 5 करोड़ केसों के लिए कुल जज लगभग 25 हज़ार हैं । जैसे 100 बच्चों की क्लास को पढ़ाने के लिए एक ही टीचर रख दिया जाए, वैसे ही करोड़ों लोगों के न्याय के लिए मुट्ठीभर जज हैं। सुप्रीम कोर्ट में एक पद खाली, हाई कोर्टों में 368 रिक्तियां और जिला अदालतों में 5,262 कुर्सियां खाली है। लगता है न्याय की कुर्सियाँ भी न्याय की प्रतीक्षा में हैं। यह पद कई साल पहले निर्धारित किये गए थे। जब मुकदमों की संख्या कम थी। फिर आता है पुलिस का “90 दिन वाला खेल”। चार्जशीट दाखिल करनी है, लेकिन समय नहीं मिला, कागज़ नहीं मिला, अफसर छुट्टी पर हैं, या ‘नेटवर्क इश्यू’ है। नतीजा, आरोपी जेल में सड़ता रहता है, कभी-कभी जितनी सजा उसे किये गये अपराध में मिलनी ही नहीं थी। उससे ज्यादा समय तक उसे जेल में रखा जाता है। जेलों में कैदी कम, हवालाती ज़्यादा हैं, यह सब “प्रोसीजर” के नाम पर होता है। न्याय की रफ़्तार इतनी धीमी है कि घोंघा भी उसे देखकर बोले, “भाई, तू पहले जा, मैं बाद में आता हूँ।” गवाह समय पर नहीं आते, वकील तारीख बदलवा लेते हैं। जब जज छुट्टी पर जाते हैं, तो पूरा न्याय तंत्र सो जाता है। जनता के टैक्स से चलने वाला यह तंत्र अब जनता की उम्मीदों का न्यायतंत्र अब अन्यायतंत्र में तबदील हो गया है। अदालतें कभी-कभी तो खुद भूल जाती हैं, कि मामला शुरू किस बात पर हुआ था। अब सरकार कहती है कि “रिक्त पद जल्द भरेंगे।” पर न्याय के इस ऑफिस में “जल्द” का समय निर्धारित नहीं है। अगर फाइलें इतनी ही तेजी से चलतीं, जितनी प्रेस कॉन्फ्रेंस होती हैं, तो आज देश में कोई भी केस लंबित न होता। समाधान की बात करें तो विशेषज्ञ कहते हैं कि “प्रोसेस में सुधार चाहिए।” पर जनता कहती है, “भाई, पहले प्रोसेस को जगा तो लो।” अगर अदालतें तय कर लें कि तीन सुनवाइयों के भीतर फैसला देना है, एक अभियोजन की दलील, एक सफाई की दलील, एक बहस की दलील। तो शायद न्यायालयों में कुर्सियों में जो धूल जम गई है, वह साफ हो जायेगी। “न्याय देर से मिले तो वह न्याय नहीं।” यह वाक्य अब सिर्फ संविधान की किताब में अच्छा लगता है, अदालत के गलियारे में नहीं। आम आदमी के लिए अदालत अब मंदिर नहीं, न्याय के नाम पर नरक बन गया है। जहाँ अंदर जाने के बाद कोई नहीं जानता कि बाहर कब निकलेगा। हर पेशी में उत्पीड़न न्यायालयों और न्याय- व्यवस्था का सच है। शायद अब वक्त आ गया है कि न्यायालयों की दीवारों पर लिखा जाए- “यहाँ न्याय मिल सकता है, पर कब मिलेगा, यह बताने का अधिकार किसी के पास नहीं।” आपका भाग्य ही आपके साथ न्याय करेगा। (लेखक: सौरभ जैन अंकित/ईएमएस)