लेख
10-Oct-2025
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भारत में सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून 2005 में इस उद्देश्य से लागू किया गया था, कि सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाई जा सके। कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित हो। सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार कम हो। सरकारी तंत्र अपनी जिम्मेदारी को समझे और नागरिकों को बेहतर सेवाएं प्रदान करे। यह कानून लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करने वाला माना गया था, लेकिन वर्तमान में यह कानून एक मजाक बनकर रह गया है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारें सूचना आयुक्तों की नियुक्ति नहीं कर रही है। पद खाली पड़े हुए हैं। सरकार और उसके अधिकारी अपनी जवाबदेही से बचने के लिए सूचना अधिकार कानून को लाल बस्ते में बंद करके रखना चाहते हैं। कुछ राज्यों में आरटीआई मामलों की सुनवाई के लिए 20 से 30 साल तक का इंतज़ार करना पड़ रहा है। तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है, क्या यह कानून अब नागरिकों के लिए मज़ाक बनकर रह गया है? हाल ही में सामने आई एक रिपोर्ट के अनुसार, राज्यों में सूचना अधिकार कानून के तहत जो मामले पंजीकृत हैं उनकी सुनवाई में कई दशकों तक इंतजार करना पड़ेगा। सूचना अधिकार कानून में जो जानकारी मांगी गई है। उसके लिए तेलंगाना में आरटीआई मामलों की सुनवाई के लिए 29 साल, त्रिपुरा में 23 साल, छत्तीसगढ़ में 11 साल और मध्य प्रदेश व पंजाब में 7 साल तक का इंतज़ार नागरिकों को करना पड़ सकता है। यह स्थिति लोकतांत्रिक व्यवस्था, संवैधानिक अधिकारों और नागरिक अधिकारों को बनाए रखने की दिशा में गहरी चिंता का विषय है। आरटीआई कानून का उद्देश्य पारदर्शिता बढ़ाना था। सूचना आयोगों की धीमी प्रक्रिया ने इस कानून को औपचारिक बना दिया है। यह नागरिक अधिकारों के संरक्षण के स्थान पर भ्रष्टाचार को और बढ़ावा देने का एक माध्यम बन गया है। जब एक नागरिक सूचना मांगता है, तो वह केवल एक सवाल नहीं करता, बल्कि शासन और उसके अधिकारियों की जवाबदेही तय करने का प्रयास करता है। यदि उसे सूचना पाने के लिए दशकों तक प्रतीक्षा करनी पड़े, तो यह नागरिक अधिकारों का खुला उल्लंघन होगा। ऐसी स्थिति में आरटीआई कानून का अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। देश में जून 2025 तक 4।13 लाख अपीलें और शिकायतें लंबित थीं। कई सूचना आयोगों ने तो कानून के तहत अनिवार्य वार्षिक रिपोर्ट तक प्रकाशित नहीं की। यह लापरवाही न केवल प्रशासनिक असफलता को दर्शाती है, बल्कि शासन की पारदर्शिता के प्रति उदासीनता उजागर करती है। जरूरी है, केंद्र और राज्य सरकारें इस स्थिति को गंभीरता से लें। सूचना आयोगों में पर्याप्त मानव संसाधन और तकनीकी सहायता उपलब्ध कराई जाए। समय सीमा पर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति की जाए जो स्वीकृत पद हैं उन्हें समय पर भरा जाए। कई राज्यों में तो सूचना आयुक्तों के पद कई वर्षों से खाली पड़े हुए हैं। लंबित मामलों की समय सीमा तय कर सख्ती के साथ निगरानी की जाए। डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से सुनवाई प्रक्रिया को तेज़ और पारदर्शी बनाया जा सकता है। सूचना अधिकार कानून में एक समय सीमा के अंदर सूचना उपलब्ध कराने का प्रावधान है। ऐसा नहीं करने पर दंड का प्रावधान है। यह नागरिकों का संवैधानिक अधिकार है। इसका पालन किसी भी स्तर पर यदि नहीं होता है तो इसको लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को भी संज्ञान लेने की जरूरत है। आरटीआई कानून नागरिकों के संवैधानिक एवं कानूनी अधिकारों की रीढ़ है। अगर इसमें देरी और उपेक्षा जारी रही, तो यह कानून अपने मूल उद्देश्य से भटक जाएगा। नागरिकों को जानकारी पाने का अधिकार तभी सार्थक है जब वह निश्चित समय पर मिले। वरना कई साल बाद की सुनवाई की जाती है तो इसमें नागरिक अधिकार बुरी तरह से प्रभावित होते हैं। जब कोई कानूनी सुविधा नागरिकों को प्राप्त नहीं होती है तो उससे व्यथित होकर व्यक्ति सूचना अधिकार कानून का उपयोग करता है। यदि उसे समय पर जानकारी नहीं मिलती है तो इससे बड़ा अपराध दूसरा कोई हो नहीं सकता है। क्योंकि जो अधिकार उसे संविधान और कानून ने दिए थे उन्हीं का उल्लंघन किया जा रहा है। वर्तमान स्थिति के लिए सरकार जवाबदेह है। समय पर जवाब नहीं दिया जाता तो इसे शासकीय और प्रशासकीय व्यवस्था में निश्चित रूप से बढ़ रहे भ्रष्टाचार और जवाब देही से बचने के रूप में देखा जा रहा है। नागरिकों का यह एक संवैधानिक अधिकार है इसे आसानी से खत्म नहीं किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को इस मामले में स्वतः संज्ञान लेते हुए कार्रवाई करनी चाहिए। सरकार ने बहुत सारे नियामक आयोग और बहुत सारे ट्रिब्यूनल बना रखे हैं, जिन्हें कानूनी अधिकार दिए गए हैं, लेकिन इनमें अधिकांश में जजों की या आयुक्तों की नियुक्ति नहीं की जा रही है। यह नागरिक अधिकारों का सीधा हनन है। लोगों के मौलिक अधिकार खत्म किए जा रहे हैं। ऐसे मामले में भी यदि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट चुप्पी साधे रखती है तो ऐसी स्थिति में यह कहने में संकोच नहीं होगा की न्यायपालिका भी सरकार के दबाव में काम करती हुई नजर आ रही है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी है कि वह नागरिकों के मौलिक एवं नागरिक अधिकारों को सुरक्षित रखे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो आने वाले समय में जनाक्रोष को रोक पाना शायद सरकारों के लिए संभव ना हो। ईएमएस / 10 अक्टूबर 25