बिहार विधानसभा चुनाव 25 के प्रथम चरण से पहले ही मोकामा में हुई जन सुराज समर्थक नेता दुलार चंद यादव की हत्या ने राज्य की राजनीति में सनसनी मचा दी है।यह घटना न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों पर गहरी चोट है, बल्कि यह बिहार की उस पुरानी सियासी संस्कृति को भी उजागर करती है, जहाँ बाहुबल, जाति और सत्ता का संगम अक्सर खून-खराबे का सबब बनता है। हत्या से उपजा सियासी तूफ़ान मोकामा विधानसभा क्षेत्र में जन सुराज पार्टी के कार्यकर्ता और वरिष्ठ नेता दुलार चंद यादव की गोली मारकर हत्या कर दी गई। उनके समर्थकों ने आरोप लगाया कि जदयू प्रत्याशी और बाहुबली नेता अनंत सिंह के समर्थकों ने पहले लाठी-डंडों से हमला किया और फिर यादव को कार से कुचल दिया।वहीं अनंत सिंह ने पलटवार करते हुए कहा कि जन सुराज समर्थकों ने उनके काफिले पर पथराव किया, जिसमें उनके कई समर्थक घायल हुए और अफरातफरी में किसी ने गोली चला दी। इस घटना ने मोकामा की राजनीति को आग में झोंक दिया है। तेजस्वी यादव,पप्पू यादव और कई अन्य विपक्षी नेताओं ने प्रशासन की भूमिका पर सवाल उठाए हैं। पप्पू यादव ने कहा,“हर बड़ी घटना में अनंत सिंह का नाम क्यों आता है? ”यह बयान अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है। दुलारचंद यादव कभी लालू प्रसाद यादव के बेहद करीबी माने जाते थे। टाल क्षेत्र में उनका वर्चस्व रहा और वे 1990 के दशक में मोकामा से चुनाव भी लड़ चुके थे। उनका नाम राजनीति के साथ-साथ अपराध की दुनिया से भी जुड़ा रहा। हाल के वर्षों में वे जनसुराज पार्टी के प्रत्याशी पीयूष प्रियदर्शी उर्फ लल्लू मुखिया के समर्थक बने और खुलेआम अनंत सिंह के खिलाफ बयान देने लगे।यही विरोध अबउनके जीवन का अंत साबित हुआ। बिहार विधान सभा चुनाव में मोकामा : -सर्व विदित रहे कि बिहार में बाहुबल और राजनीति की प्रयोगशाला पटना से लगभग 85 किलोमीटर दूर स्थित मोकामा है। यहाँ की विधानसभा क्षेत्र बिहार की राजनीति का प्रतीक-क्षेत्र बन चुका है। यहाँ जाति, बाहुबल और जनाधार का अनोखा समीकरण है। 1951 में गठित यह विधानसभा क्षेत्र मुंगेर लोकसभा सीट के अंतर्गत आता है। यहाँ का इतिहास बताता है कि 1990 के दशक से बाहुबली नेताओं का बोलबाला रहा है। पहले “बड़े सरकार” दिलीप सिंह, फिर “छोटे सरकार”अनंत सिंह। अनंत सिंह ने 2005 से 2020 तक पाँच बार इस सीट पर विजय हासिल की-चाहे वे जदयू,राजद या निर्दलीय उम्मीदवार रहे हों। 2020 में जेल से चुनाव जीतने के बाद भी उनका प्रभाव अडिग रहा,और 2022 में पत्नी नीलम देवी को उपचुनाव में विजेता बनाकर उन्होंने अपना किला बचाए रखा। विधानसभा चुनाव जीत की कुंजी मोकामा की सामाजिक संरचना बिहार की सियासत का सूक्ष्म प्रतिबिंब है। भूमिहार समुदाय यहाँ निर्णायक भूमिका में है,परंतु यादव,कुर्मी,धानुक,पासवान और अति पिछड़ी जातियाँ भी परिणाम तय करती हैं। दुलारचंद यादव की हत्या से यादव और ओबीसी वर्ग में गुस्सा देखा जा रहा है,जो जनसुराज और राजद के पक्ष में लामबंदी की भूमिका निभा सकता है वहीं, भूमिहार मतदाता परंपरागत रूप से अनंत सिंह के साथ रहे हैं,लेकिन इस घटना ने उनके बीच भी असहजता पैदा की है।यदि यह असंतोष जदयू के कोर वोट बैंक में सेंध लगाता है,तो मोकामा का “अभेद्य किला” दरक सकता है।इसका राजनीतिक प्रभाव और संभावित परिणाम -1.जनसुराज पार्टी के लिए सहानुभूति लहर-हत्या ने पीयूष प्रियदर्शी के लिए सहानुभूति की ज़मीन तैयार कर दी है। 2.अनंत सिंह की छवि पर आघात - बाहुबली की पहचान अब उनके लिए शक्ति नहीं,बोझ बन सकती है। 3.राजद और कांग्रेस के लिए अवसर -यादव और अति पिछड़े मतदाताओं के एकजुट होने से महागठबंधन को अप्रत्यक्ष लाभ मिल सकता है। 4.एनडीए की रणनीति पर दबाव — जदयू और बीजेपी के लिए यह सीट अब “सम्मानजनक हार” से बचाने की चुनौती बन गई है। बिहार विधान सभा चुनाव की यह रक्तरंजित राजनीति राजनीतिज्ञ पंडितो का मानना है कि यह घटना भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरें की घंटी है।बिहार के इस विधान सभा चुनाव ने एक बार फिर साबित कर रहा है कि यहाँ लोकतंत्र अब भी जातीय निष्ठा और हथियारों के साए में साँस लेता है। दुलारचंद यादव की हत्या सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस लोकतांत्रिक चेतना की हत्या है जो बिहार को बदलाव की राह पर ले जाने की कोशिश कर रही थी।मोकामा का ऐतिहासिक गौरव और आज का विरोधाभास-1908 में यहीं मोकामा घाट स्टेशन पर क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी ने ब्रिटिश मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड की हत्या के प्रयास के बाद आत्मबलिदान दिया था।आज वही भूमि राजनीतिक हिंसा और बाहुबलीकरण का प्रतीक बन चुकी है-यह बिहार की विडंबना है कि जहाँ कभी क्रांति के लिए गोली चली थी,अब सत्ता के लिए चलती है। दुलारचंद यादव हत्याकांड ने बिहार के पहले चरण के चुनाव को एक भावनात्मक मोड़ दे दिया है। यदि यह मामलाजनमानस में अनंत सिंह के खिलाफ लहर बनाता है,तो यह मोकामा ही नहीं,आस-पास की सीटों पर भी असर डाल सकता है। दूसरी ओर,यदि एनडीए इसे राजनीतिक षड्यंत्र के रूप में पेश कर पाने में सफल रहा,तो परिणाम अप्रत्याशित हो सकते हैं। लेकिन इतना तय है कि मोकामा की यह रक्तरंजित घटना 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव को जातीय और नैतिक दोनों ही दृष्टियों से निर्णायक मोड़ पर पहुँचा चुकी है।मूल प्रश्न यह नहीं कि किसने गोली चलाई बल्कि यह कि बिहार में लोकतंत्र कब तक बंदूक की नली से निकलेगा।जो आगामी वर्ष होने वाले पश्चिमी बंगाल,उत्तर प्रदेश व अन्य राज्यों में होने विधान सभा चुनावों व भारतीय राजनीति में जाति, धर्म, क्षेत्रवाद लिंग भेद भाव के पड़नें वाले प्रभाव भारत की राजनीति के लिए खतरें की घंटी है। ईएमएस / 03 नवम्बर 25