लेख
03-Nov-2025
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मंगलवार विशेष-04/11/25) इस ग्रन्थ में अंगद की भूमिका आठवे अंक से प्रारम्भ होती है। श्रीराम ने समुद्र पार कर, पर्वत सुबेल के पास पहुँचकर सेना का पड़ाव डाल दिया। उन्होंने राक्षसकुल पर दया करके इन्द्र के पौत्र (बालि के पुत्र) अंगद को दूत बनाकर आदेश दिया। अज्ञानादथवाऽऽधिपत्यरभसादस्मसरोक्षे ह्वा। सीतेयं परिमुच्यता मिति वचो, गत्वा दशास्यं वद। नो चेल्लक्ष्मणमुक्तमाग्णिगणच्छेदोच्छलच्छोणित च्छत्रच्छन्नदिगन्तमन्तकपुरं पुत्रैर्वृतो यास्यसि हनुमान्नाटकम् ८-२ राम- हे महावीर अंगद! तुम जाकर रावण से (मेरी तरफ से) यह सन्देश कहना कि अनजान से या ऐश्वर्य के मद से हमारे परोक्ष में (आंखों से परे) हर कर लाई हुई इस सीता को छोड़ दो, अन्यथा लक्ष्मण के छोड़े हुए बाणों से छलकते हुए खून वाले कण्ठ रूपी लाल छातों से दिशाओं को आच्छादित करते हुए तुम अपने पुत्रों के साथ सीधे यमपुरी जाओगे। अंगद ने कहा- बहुत अच्छा जो आज्ञा महाराज की। (मन ही मन में) यदि इस समय मैं पिता के वध करने वाले का वध करता हूँ तो बड़ा अकाज होता है। यदि पिता के हननकर्ता (नाशक) का वध नहीं करता हूं तो पिता का सब काम पूरा हो जाएगा। (अन्तिम अभिलाषा पूरी हो जाएगी) बाद में समस्त कपिवीरों के साथ अकेला ही मैं इनके वध के लिए काफी हूँ। ऐसा विचार करके, वैर त्याग कर, आकाश में छलांग मार कर रावण के अनिष्ट करने के लिए धूमकेतु तारे के समान युवक अंगद लंकाधिपति रावण के बाहरी फाटक पर खड़े हो गए। तब ही हाथ जोड़े हुए प्रहस्त भीतर जाता है। वह कहता है कि देव! राम का दूत वानर द्वार पर है। रावण उसे आने का कहते हैं। तदनन्तर प्रहस्त के साथ अंगदजी आते हैं और आकाश की ओर टकटकी बोध कर कहते हैं। अरे राक्षसो! बताओ, वह रावण नामवाला कहाँ है? जो सूर्य कुल और चन्द्र (जनक) वंश के (सीतारूपी) रत्न को अपहरण कर भाग गया है? और जो त्रिभुवन को भस्म करने वाले कराल त्रेताग्रि रूपी राम नाम कृशानु में पतिंगा बनने वाला है। रावण क्रोध से बोला- तू तो वही है न, जिसकी पूंछ पहले जला दी गई थी और जिसे हमारे राजकुमार ने बाँध लिया था? अब तो यहाँ किसी को पहचानता ही नहीं। अंगद- अरे! वह तो हनुमानजी थे। बड़े दु:ख की बात है कि उसने हम लोगों से पहले झूठ क्यों कहा कि लंकापुरी फूंक दी गई और राजकुमार अक्षय को युद्ध में मार डाला। ऐसा कहने पर कोप और लज्जा के भार से गड़ कर रावण मौन हो गया। रावण- अरे! वानर तू कौन है? रामजी के राजमहल में चिट्ठी पत्री ले जाने वाला हनुमान कहाँ गया जो यहाँ पूर्व में आया था और जिसने लंकापुरी जला दी थी। अंगद- बड़े ही गर्व के साथ स्वामीभक्ति का परिचय देते हुए कहता है- वानर वंश तिलक बालि नामक जिस महाबली ने तुम्हें अपनी काँख में दबा कर क्षण भर में सातों समुद्रों के किनारे फिरते हुए स्नान और सन्ध्या पूजन किया वही व्यक्ति जिन राम के एक ही बाण से घायल होकर वानरों की प्राकृतिक लज्जा से गिरा और अपने गर्व को छोड़कर सूर्य कुमार यम के लोक को चला गया। इसलिए हे लंकेश! तू भी अहंकार त्याग दे। हे राक्षसराज! जिनके सन्देशवाहक दूत हनुमान ने समुद्र को गौ की खुर की तरह चटपट लाँध लिया, अपने गृह के समान (नि:शंक) लंकापुरी में प्रवेश किया, सीताजी को देखा उसने वार्तालाप किया, अशेक वन को तोड़ फोड़ डाला। बहुत सी सेना का वध कर दिया एवं तेरी लंका जला दी तो फिर रामजीका वर्णन क्या? रावण क्रोधपूर्वक कहता है- घास का खाने वाला सोने का हिरण वन में मारा तो क्या हुआ? तथा एक पेड़ पर से दूसरे पेड़ पर कूद फांद करने में चतुर वानर बालि का वध किया तो क्या? अग्रि की शिखा के समान जटा वाले बाण चलाने में निपुण राम भी क्या है? इन्द्रविजयी युद्ध का उत्साही मैं तो आकाश में बैठा हूं अर्थात् देवताओं को भी मैंने जीत लिया है। यह सुनकर अंगद (अभिमानपूर्वक) बोला- हे दशानन। मेरे रामजी का दूत बनकर आने का यह परिणाम होगा कि यदि तूने सुलह (मेल) कर लिया तो अच्छे शरीर अर्थात् बिना घाव के ही तुझ को रामचन्द्रजी के सामने जाकर भूमि पर लोटना होगा और यदि युद्ध करेगा तो घायल होकर भूमि पर लोटेगा। रावण ने कहा- अरे नीच वानर! कटु भाषी! देख मृत्यु: पादान्तभृत्यस्तपति दिनकरो मन्दमन्दं ममाग्रेऽ तेऽप्यष्टो लोकपाला मम भयचकिता: पादरेणु ववन्दु:। दृष्ट्वातं चन्द्रहासं स्रवति सुखधूपन्नीगीनां च गर्भो निर्लज्जौ तापसौतौ कथमिह भवतो वानरान्मेलयित्वा।। हनुमान्नाटकम् अंक ८-१९ यमराज मेरा चरण दबाने वाला है सूर्य मेरे सामने धीमे-धीमे तपते हैं, वे आठों लोकपाल भय के कारण घबराकर मेरे चरणों की धुलि को प्रणाम करते हैं। मेरी चन्द्रहास तलवार को देखकर देवताओं की स्त्री और नागों की पत्नियों के गर्भ गिर जाते हैं तो फिर निर्लज्ज वह दोनों तपस्वी वानरों को मेरे सामने भेजकर सीता को कैसे पा सकते हैं? उसी समय अंगद क्रोध को प्रकट कर काँपते हुए अपनी हथेली से पृथ्वी पर थपकी दे दोनों भुजदण्डों को ठोकते हैं- रे राक्षसकुल के घातक! प्रतीत होता है कि श्रीरामचन्द्रजी के परमोत्तम धनुष बाण के तेज से परिपूर्ण युद्ध का आरम्भ होने पर बाणों से कटे हुए तेरे समस्त मस्तक पृथ्वी पर गिराए हुए लुड़केंगे, जिनको कि लेकर गीध आक्रोश को उड़ेंगे सियारिन ग्रास बना खाएंगी तथा कौए नोचेंगे। रावण यह सुनकर कहता है- अरे रे वानर! मैं धर्मपरायण होने के कारण तुझ कटुभाषी को नहीं मार रहा हूँ क्योंकि नीतिशास्त्र में कहा गया है कि- दूत यथार्थ भाषी होता है, इसलिए राजाओं को उचित है कि उसका वध ना करे। उनमें कोई क्रूरभाषी हो और उस परक्रोध आ जाए तो वह विकलांग बनाए जाने का ही पात्र है। अंगद कहता है कि हे दशकंठ! परायी स्त्री को चुराने में जो तेरी धर्मभीरूता नहीं सुनी थी, वह तुम्हारे जैसे साधु व्यक्ति की धर्मपरायणता दूत के (प्राणदण्ड से) बचाने में देख ली। तदनन्तर रावण बड़े गर्वपूर्वक अंगद से कहते हैं- अरे! क्या तू नहीं देख रहा है कि मेरे राजमहल में इन्द्र माली (बागवानी) का कार्य कर रहा है, सूर्य मेरे द्वार पर ड्यौढ़ीवान है, चन्द्रमा छत्र धारण करवाता है वायु तथा वरुण मेरे भवनों में झाड़-बुहारी और छिड़काव का काम कर रहे हैं और अग्रि मेरे रसोईघर में भोजन बनाने के काम में नियुक्त किया गया है। इतने पर भी राक्षसों के भक्ष्य पदार्थ केवल मनुष्य शरीर वाले उस रघुवंशी का क्या प्रशंसा करता है। अंगद जोर से ठहाका मारकर कहता है- अरे भाग्यहीन। दुर्बल। विपरीत बुद्धिवाला रावण। क्या रामजी भी मनुष्य है? क्या गंगाजी सामान्य नदी है? क्या ऐरावत भी हाथी है? क्या उच्चैश्रवा भी साधारण अश्व है? क्या रम्भा बलहीना सामान्य अप्सरा है। सतयुग भी क्या साधारण युग है? क्या कामदेव भी सामान्य धनुषधारी है? और त्रिभुवन में प्रसिद्ध प्रताप एवं ऐश्वर्यमान् हनुमान भी क्या सामान्य वानर है? रावण तब क्रोधित होकर बोला- कस्त्वं कस्यापि पुत्र:? क पुनरिहगत? किं नु कृत्यं? चकस्मात् विस्पष्टं विष्टपानां विजयिनमपि, मां मन्यसे त्वं तृणाय। हनुमन्नाटकम् अंक ८-२५ अरे! तू कौन है? किसका बेटा है? यहाँ फिर क्यों आया है? तेरा क्या काम? साफ-साफ बतला, तू किस कारण से मुझ देवताओं को जीतने वाले मुझको तू जिसके बल पर तिनके के समान मानता है? अंगद ने रावण से कहा- हे पुलस्त्य के पौत्र! तेरे बल के घमण्ड को चूर्ण करने वाले बालि का पुत्र मैं अंगद गिरिसुबेल से रामजी का दूत बनकर तेरे पास यह कहने के लिए आया हूँ कि अरे जड़बुद्धि! जानकी जी को दे अन्यथा अपने मस्तक को देना पड़ेगा। रावण ने कहा- अरे अंगद! तुझे धिक्कार! तूझे धिक्कार है, जिस अभिमानी ने तेरे पिता का वध किया उसी का दूत बनकर आया है। तेरे सम्मानरहित वीरता को व्यवहार को धिक्कार है। अंगद बोला कि श्रीरामजी ने जो मेरे पिता का वध किया तो ठीक ही किया क्योंकि तीनों लोकों में दुष्टों को दण्ड देने के कार्य के निमित्त ही उन्होंने इस अवतार को धारण किया है। रावण- अच्छा, तू दूत बनकर आया है तो बता राम का क्या काम है? अंगद कुछ भी नहीं, रावण- तो फिर समुद्र पर सेतु क्यों बाँधा है? अंगद- वानरों के बच्चों ने खेल के लिये। रावण- रण में स्थिर रहने वाले मुझको क्या वह राम नहीं जातना है और क्या तुम देवताओं के बैरी के रहने की यह लंकापुरी है, इस बात को वह जानता है? अंगद- हाँ जानते हैं। रावण- क्या तुझको यह नहीं मालूम है कि लंका का राजा कौन है? अंगद- अरे समस्त भूमण्डल पर जिसका यश फैल रहा है, वह विभीषण नाम वाला ही लंका का राजा है। रावण- यदि वानरों ने समुद्र पर पुल बाँध लिया तो उससे क्या हुआ? क्या चीटियां पहाड़ों की तरह ऊँची-ऊंची बाँबी नहीं बना लेती? यदि उस वानर ने लंका जला दी, वह जलाना ही तो अग्रि का स्वभाव ही है। इस प्रकार उस रामनामधारी ने अपनी भुजाओं को विजय में कौन सी आश्चर्यजनक वीरता का कार्य किया। अंगद- वे ही रामजी हैं जिन्होंने तेरी बहिन शूर्पणखा की नाक की चर्बी के मैल से लथपथ हुए अपने खड्ग को खर, दूषण एवं त्रिशिरा के सिर के रक्त से धोया था। उनकी पत्नी के समीप अतीव निर्भीकता के साथ खड़ी होने वाली तेरी बहिन की नाक तेरे मूर्तिमान घमण्ड के समान जिन्होंने काट डाली थी जिसके कारण तुझे मूर्च्छा आ गई, भला उन राम को तूने कैसे भुला दिया। अरे हे रावण! न जाने कितने रावण हैं? इन बहुत से रावणों को हमने सुना है, कहते हैं कि पहिले एक तो सहस्रबाहु की भुजाओं से बांधा गया था। एक को राजा बलि की दासियों ने नाचने पर रोटी के ग्रास दिए थे और एक तीसरे का वर्णन करते हुए हमको लज्जा आती है (जो हमारे पिता की काँख में दबा पड़ा रहा) सो इनमें से कोई हो? या इनके अतिरिक्त और कोई रावण हो? रावण- अरे! सुन समस्त वैरियों के समूहों के लिए प्रलय स्वरूप मूर्तिवाला कुम्भकर्ण तो मेरा भाई है जिसने इन्द्र को बाँध लिया था, वह सदा प्रसन्नमुख रहने वाला मेघनाद मेरा पुत्र है, युद्ध में फूर्ति दिखाने वाली चन्द्रहास मेरी तलवार है और राक्षसगण मेरी सहायता करने वाले हैं। वहीं मैं नि:सन्देह देवताओं का शत्रु और तीनों लोकों को विजय प्राप्त करने वाला रावण नामक राजा हूँ। प्रहस्त- क्रोध में बोला- बालि और सहस्रबाहु ने उस रावण के अत्यन्त बल-पराक्रम का स्वयं अनुभव भले ही कभी किया हो, किन्तु इस समय दशकन्धर के कन्धों की सर्वश्रेष्ठता स्वीकार कर ली गई है, कारण तत्काल कटे हुए गले की हड्डियों के टुकड़ों से व्याप्त, रावण के कन्धों को अपने गजचर्म रूपी पल्लव द्वारा झटपट स्वयं शिवजी ने प्रस्फुटित करा (अर्थात् जोड़) दिया था। रे रे रावण! शम्भु शैलमथन प्रख्यातवीर्य: कथं रामं योद्धुमिहेच्छसीदमखिलं चैतन्न युक्तं तथा। रामस्तिष्ठतु, लक्ष्मणेन धनुषा रेखा कृताऽलङ्घिता तच्चारेण च लङ्घितो जलनिधिर्दग्धा हतोऽक्ष:पुरी।। हनुमन्नाटकम् अंक ८-३६ अंगद- अरे रे रावण! शिवजी के पर्वत कैलास को उठा लेने के कारण प्रसिद्ध यशवाले दशकण्ठ तू इस समय रामचन्द्रजी से युद्ध करने की इच्छा रखता है। ये सब तेरे विचार ठीक नहीं है, कारण रामजी की तो बात ही छोड़ो, लक्ष्मणजी से खींची हुई धनुष रेखा को तू न लाँघ सका, किन्तु उनका एक सामान्य दूत इतने भारी सागर को लाँघ आया, राजकुमार अक्षय को मारकर, लंकापुरी जलाकर फिर समुद्र लाँघ कर पार चला गया। रावण- यदि राम तेरे कथनानुसार शत्रुओं का नाश करने वाले हैं तो अपनी पत्नी के हरण हो जाने पर संधि करने के लिए क्यों प्रस्तुत है? अंगद- सरोवर के तुल्य सागर के सेतुबन्ध की योजना देख ले। तू मेरे पिता के भुजदण्ड का विजयस्वरूप प्रकाशमान यशस्तम्भ है, इसलिए मैं तो हित की बात कहता हूँ कि सूर्यवंश की कुलवधू सीताजी को छोड़ दे। रावण- तू कौन है? अंगद- बालि का बेटा और रघुनाथजी का दूत। रावण- बालि कौन है? अरे वानर! राम किसका नाम है? अंगद- बहुत ठीक है जो तू बालि को भूल गया। वे तुझे बाँधकर चारों समुद्रों में घूमकर एक मुहूर्त में सन्ध्यावन्दन करते थे। ऐसे मेरे पिता को अरे निर्लज्ज! तू कैसे भूल गया। रावण- राम ने जो गीली छाल वाले छोटे-छोटे ताड़ के पेड़ को बेंध दिया और जिसने पुराने शिवधनुष को तोड़ा- बस उसी बल का तू बखान करता है न? स्वर्गलोक निवासी देवताओं के लिए धूमकेतु स्वरूप हाथ से गेंद की तरह शिवजी के विहार स्थल कैलास पर्वत को उठाने वाले पुलस्त्यवंशीय, रावण का नाम क्या तेरे कर्णगोचर नहीं हुआ था। इसी मध्य में द्वारपाल भीतर जाकर कहता है- अरे! ब्रह्मा! यह वेद पढ़ने का समय नहीं है मौन होकर बाहर बैठो। रे मूढ़मते बृहस्पते! यह इन्द्र की सभा नहीं है, थोड़ा बोलो। अरे नारद! स्तोत्रों को घर दो। अरे तुम्बरु! कथा की बातों की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मस्तक पर की सिन्दूर की रेखा रूप भाले से बिंधा है हृदय जिसका ऐसा लंकेश इस समय खिन्न है। अंगद कुपित होने का अभिनय करते हैं- मैं अंगद अतीव कठोर रोष करके भी तुझे नहीं मार रहा हूँ क्योंकि एक तरफ हमारे पिता की काँख से तू ही बचा रह गया है। दूसरे नीचे ऊपर की ओर उछाल कर, लात से ठोंकर मारकर तेरे मस्तक रूपी गेंद से मैं बचपन में खेल चुका हूं और तीसरे कान्तिमान दिव्य अस्त्र धारण करने वाली भुजाओं के सम्पर्क से काटे हुए तेरे दसों मस्तकों से प्राणीमात्र को शिक्षा देने वाले महाराज श्रीरामचन्द्रजी स्वयं दस दिग्पालों को उचित बलिदान देंगे। अरे रावण! श्रीजानकीजी को छोड़ दे, राम के चरणों की शरण ले और चिरकाल तक राज्य को भोग, देवता यज्ञ में हबि का भक्षणकरने वाले हों तथा तुम्हारी लंका नगरी का तिरस्कार (अपमान) भी न हो नहीं तो हनुमान आदि वानर सेनापतियों के महा चपेटों के ऊपर उछलते हुए उन मुक्कों से घोर संग्राम भूमि में पहुँचा हुआ तू आज तक की हुई सकल करनी का फल चखेगा। क्या तूने पहले रघुनाथजी को देखा नहीं था? कि सुना नहीं था? तो पंचवटी के वन में क्यों न देर लगाई। फिर मार्ग में क्षणभर के लिऐ तू रुका क्यों नहीं? इसलिए हे लंकेश! बालि के वध का वृत्तान्त सुनकर अपने समस्त अभिमान को त्याग दे, सीताजी को लौटा दे राजवंश की रक्षा और रघुनाथजी की दास भाव (सेवकाई) को स्वीकार कर लें। रावण ने अंगद से कहा- धीरता और वीरता की कोटि में समान रूप से रुचि रखने वाला यह रावण केवल वाणियों का गम्य नहीं है, अर्थात् वाणी मात्र से कोई रावण को पार नहीं पा सकता है, महादेव के सम्मुख चन्द्रहास खड्ग से कटे उस रावण के मस्तकों को देखकर हवन करते समय भय के मारे अग्रि की लपट मन्दी पड़ गई फिर देखने की अभिलाषा करने वाले प्राणादि को करके वहाँ क्षणमात्र धीरे-धीरे श्वास की पवनों से वह अग्रि प्रदीप्त किया। अंगद- (परवाह न करते हुए) हे पौलस्त्य। विस्तार वाली, मस्तकों के होम करने में पुरुषार्थ बताने वाली कथा को रहने दे। (बहुत हो गया बस)। क्या वैधव्यजन्य क्लेश से पीड़ित होकर, नारियाँ अपने देह को आग में नहीं झोंक देती? कैलास पर्वत को उठाकर तूने प्रमाणित कर दिया कि बोझ उठाने की शक्ति तुझमें है। और भी जो पुरुषार्थ की दूसरी बात कहने से छूट गई हो तो उसे भी चटपट कर दे। दोर्दण्डाहितपौत्रभिक्षुरभवद्यस्मिन् पुलस्त्योमुनि- स्तद्धाह्वोर्वनमच्छिनत् परशुना यो राजवीजान्तक: शौर्यं शौर्यरसाम्बुधेर्भृगुपतेर्ग्रासिऽपि नासीज्जलं तत्तेजो बड़वानलस्य किमसौ लंकापति: पल्वलम्।। हनुमन्नाटकम् अंक ८-५७ अपने पोते के भुजदण्डों को बन्धन से छुड़ाने के लिऐ पुलस्त्य मुनि जिसके भिक्षुक हुए थे, उस सहस्रबाहु अर्जुन की भुजाओं के बल को राजाओं को जड़ से नाश करने वाले परशुरामजी ने फरसे से काट डाला, ऐसे वीररस के समुद्र पर परशुरामजी का शूरतारूपी जल, बड़वानल के तुल्य रामचन्द्रजी के तेज का एक ग्रास भी नहीं हो सका फिर छोटे से सरोवर के समान तू तो वस्तु (चीज) ही क्या है? अरे हे राक्षसराज! इस मिथिलेशकुमारी जानकीजी को तू शीघ्र छोड़ दे वृथा ही तू अपने पुरुषार्थ को प्रकट करने वाली आत्मश्लाघा के गीत गा रहे हो। किन्नर समूह द्वारा उच्चत्तर स्वर से गाये हुए बाहुबली- वानरराज सुग्रीव की विकट भुजा रूप मुख्य स्तम्भ से रक्षित अपने सामने खड़ी इस वानर सेना को देख रहे हो। इस प्रकार अंगद लंका के महान योद्धा रावण को दारुण वचनों से ललकार कर लंका नगरी में आतंक उत्पन्न करते हुए चले गए। प्राय: सभी श्रीरामकथाओं में यह प्रसंग वर्णित है किन्तु इतना विस्तृत रावण- अंगद संवाद इस हनुमन्नाटकम् की अपनी एक अनोखी विशिष्टता है। अत में इस महानाटकÓ का संक्षिप्त इतिहास बताना आवश्यक है कि राम विजय नामक अंतिम चौदहवें अंक के अंत में वर्णन है कि पहले पवनकुमार हनुमान्जी द्वारा प्रणीत (रक्षित) जिस महानाटक को अमर समझकर वाल्मीकिजी ने उसे सागर में स्थापित करवा दिया, नीतिज्ञ राजा भोज महाराज ने समुद्र में से नकलवाया और मित्र दामोदर ने उसका क्रमबद्ध संकलन किया, वह निखिल संसार की रक्षा करें तथा कल्याण करें। (मानसश्री, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर) .../ 3 नवम्बर/2025