एक घटना पूरे परिदृश्य को बदल कर रख देती है। भारत सदियों पहले भी क्रिकेट खेलता था, परंतु भारत में क्रिकेट की क्रांति नहीं आई थी, इससे पहले भारतीय लोगो के लिए क्रिकेट इतना महत्वपूर्ण नहीं था। साल 1983 कपिलदेव की अगुवाई में जब भारतीय टीम ने विश्वकप जीता तो भारत के गांव -गांव, गली - गली क्रिकेट पहुंच गया। दशकों बीत जाने के बाद भी उस विश्वकप की चर्चाएं होती हैं, 1983 के बाद जब क्रिकेट लोकप्रिय हुआ तब भारत को सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़, सौरव गांगुली, अनिल कुंबले जैसे महान क्रिकेटर भारत को मिले। बीते कल रविवार को भारतीय महिला टीम ने क्रिकेट के ज़रिए विश्व फतेह कर ली है। भारत ने फाइनल मुकाबले में जिस तरह साउथ अफ्रीका को हराकर विश्व विजेता बनने का गौरव हासिल किया, उसे देख हर भारतवासी की आंखों में खुशी के आंसू हैं । सभी भारतीय क्रिकेट फैंस का सीना इस जीत के बाद गर्व से चौड़ा हो गया। भारतीय टीम ने इस जीत के साथ तिरंगा लहराया और इस जीत को देख पूरा हिंदुस्तान भावुक हो उठा। जिस वक्त हरमनप्रीत कौर, स्मृति मंधाना, ऋचा घोष के आंसू बहे रहे थे, उस वक्त उनके साथ पूरा हिंदुस्तान खुशी से भावुक रो रहा था । ये दशकों की मेहनत, संघर्ष एवं प्रतिभा की जीत है। जीत यूँ ही नहीं मिल जाती, भारत की लड़कियों ने क्रिकेट खेलते हुए न जाने कितनी गैर ज़रूरी आलोचना झेली है, जब लोग कहते थे, कि लड़कियों के बस की बात नहीं है विश्वकप जीतना, ये एक दौर को पीछे छोड़ देने की जीत है। ये एक विश्वास समर्पण की जीत है। अंजुम चोपड़ा, मिताली राज, झूलन गोस्वामी आदि क्रिकेटरों ने भारतीय टीम को तो चलाया ही साथ ही पीढ़ियो को भी प्रेरित किया, यही कारण है कि आज महिला ब्लूज में एक से बढ़कर एक सुपरस्टार क्रिकेटरों की फ़ौज है, जो भारत सहित पूरी दुनिया में जानी जाती हैं। अब जब बेटियां विश्व विजेता बनी हैं तो इस जीत की रात पूरे देश के माता-पिताओं ने अपनी बेटियों को क्रिकेटर बनाने का सपना पाल लिया होगा। वो भी अब अपनी बेटियों में हरमन-स्मृति, दीप्ति और शेफाली जैसे बनाना चाहेंगे। महिला क्रिकेटरों की ये जीत इस खिताब से कहीं बड़ी है, क्योंकि ये केवल क्रिकेट के लिहाज से ही नहीं बल्कि भारत के समाज को भी सकारात्मक रूप से बदल कर देने वाला होगा। उन्होंने देश की करोड़ों बेटियों के लिए लोगों का विश्वास जीता है। 1973 वो साल था, जब पहली बार महिला वनडे वर्ल्ड कप का आयोजन हुआ था। दशकों बीत गए थे लेकिन महिला ब्लूज खिताब से दूर रही, डायना एडुल्जी से लेकर मिताली राज तक, अंजुम से लेकर झूलन तक तमाम दिग्गज खिलाड़ियों ने विश्वविजेता बनने की अथक मेहनत की, लेकिन ट्रॉफी भारत से दूर ही रही। फिर आया साल 2005 जब पहली बार भारतीय महिला टीम विश्वकप के फाइनल में पहुंची लेकिन ऑस्ट्रेलिया ने भारत को 98 रनों से शिकस्त देकर भारत का सपना तोड़ दिया, फिर भारतीय टीम पर तानों की बरसात हुई. लेकिन लड़कियां लड़ीं। 2017 एक बार फिर भारतीय टीम ने वर्ल्ड कप फाइनल में जगह बनाई, सामने थी इंग्लैंड की टीम लेकिन फिर भारत की उम्मीदों को झटका लगा और इंग्लैंड ने 9 रनों से मैच जीत लिया। फिर सवाल भारतीय बेटियों पर उठे, परंतु महिला ब्लूज ने इतिहास लिख दिया है। यह सिर्फ एक जीत नहीं, बल्कि भारतीय महिला क्रिकेट के स्वर्ण युग की शुरुआत है। अब तक पुरुष टीम के मुकाबले महिला क्रिकेट को कम आंका जाता था, लेकिन इस जीत ने पूरी तस्वीर बदल दी है। अब बीसीसीआई और राज्य संघ महिला क्रिकेट में अधिक निवेश करेंगे, चूंकि अब महिला ब्लूज को देखने के लिए स्टेडियम खचाखच भर जाते हैं, और सबसे बड़ी ताकत भी यही है। बीसीसीआई के अनुबंध ढांचे में अभी भी बड़ा अंतर है, जहां पुरुष क्रिकेटरों को सालाना अनुबंध में अधिकतम 7 करोड़ रुपये मिलते हैं, वहीं महिला खिलाड़ियों की शीर्ष श्रेणी 50 लाख रुपए मिलते हैं, यह जीत उस असमानता को तोड़ने का पहला कदम बनेगी। यह जीत सिर्फ मैदान की नहीं, बल्कि मानसिकता की जीत है। अब गांव-शहर की लड़कियां क्रिकेट को करियर के रूप में देखेंगी। माता-पिता भी बेटियों को खेलों में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। लड़की होकर क्रिकेट जैसी पुरानी सोच को यह जीत हमेशा के लिए बदल देगी। शेफाली, दीप्ति और हरमनप्रीत जैसी खिलाड़ी अब हर लड़की की प्रेरणा बनेंगी। सचिन, धोनी, विराट रोहित की तरह लड़कियां भी नए हेयरस्टाइल, टैटू के साथ युवाओं के लिए नई सुपरस्टार और रोल मॉडल होंगी। भारत की यह जीत लैंगिक समानता की दिशा में बड़ा कदम है। इससे महिला खिलाड़ियों की ब्रांड वैल्यू बढ़ेगी, फिल्मों और मीडिया में उनकी ज्यादा कहानियां आएंगी और समाज महिलाओं के नेतृत्व को नए दृष्टिकोण से देखेगा। यहां से केवल क्रिकेट ही नहीं भारतीय समाज भी बदल जाएगा। (लेखक पत्रकार हैं) ईएमएस / 03 नवम्बर 25