लेख
16-Nov-2025
...


मनुष्य का वर्तमान जीवन समस्याओं से संतप्त है। शायद ही कोई होगा जो समस्याओं से व्यथित न हो। समस्याएँ जीवन की पर्याय बन गई हैं। कभी बाहर की समस्या तो कभी भीतर की समस्या, कभी तन की तो कभी मन की, कभी रोग की तो कभी भोग की समस्या मानव को हर क्षण सताए हुए है यानी कभी कोई समस्या उसे परेशान किए हुए है तो कभी कोई उसे अपने में उलझाए हुए है। एक को वह सुलझा नहीं पाता कि दूसरी, तीसरी और इस तरह अनगिनत समस्याओं का उसके सामने एक ऊँचा अम्बार लग जाता है। एक प्रकार से समस्याओं ने उससे उसका सुख छीन लिया है और बदले में उसे चिन्ताएँ, कुण्ठाएँ, तनाव, उद्वेग व मानसिक द्वन्द्व आदि दे दिये हैं। उसके भीतर यदि छटपटाहट, बेचैनी व अशान्ति है तो बाहर चेहरे पर उदासी, निस्तेजता, भय, अविश्वास, अस्थिरता, निराशा आच्छादित है। इन सबसे वह मुक्त होने का पुरजोर प्रयत्न करता है पर, मुक्ति उसे मिल नहीं पाती। कोई भी चिकित्सा, उपाय उसे राहत नहीं दे पा रहे हैं, तब वह योग की शरण लेता है। योग स्वस्थ, सुखी, सक्रिय व विश्वसनीय जीवन जीने का मार्ग प्रस्तुत करता है। यह वह कल्पवृक्ष है जो बिना किसी भेदभाव के सबको सुख व शान्ति की छाया देता है। जिन विषयों के बारे में विज्ञान आज चुप्पी साधे हुए है उन सभी विषयों का सन्तोषप्रद समाधान योग के पास है। वास्तव में योग हर समस्या का समाधान है। यह व्यक्ति के तन और मन को स्वस्थ ही नहीं रखता है, अपितु व्यक्तित्त्व-विकास और रूपान्तरण दोनों का साधन भी है। योग अन्तरंग को अनन्त आनन्द से आप्लावित करने का एक सशक्त माध्यम है। यह मन का परिमार्जक है। किन्तु योग को समस्याओं का विसर्जक नहीं कहा जा सकता। जगत् और चैतन्य जब तकदोनों हैं तब तक समस्याएँ तो बनी रहेंगी। ये समस्याएँ हमारे चित्त को उद्वेलित न कर सकें, यह काम योग का है। जाड़े की शर्दी की इस सुहाने समय में लोग मन पसंद खाना पसंद करते है।सर्दियो में मनुष्य अक्सर भूख से ज्यादा खाना भी खा लेता है तो वह पच भी जाता है।इसके साथ ही योग क्रिया आवश्यक हो जाती है।इस ऋतु में योग क्रिया करने वाला अगले महीनों में ताजगी महसूस करता है।योग करने वाले लोगो पर असाध्य बीमारी नही आती है।योग एक सम्पूर्ण जीवन दर्शन है।इसको जीवन के साथ जोड़ने पर हर बीमारी से व्यक्ति दूर रह सकता है। योग के आलम्बन से जीवन की प्रत्येक समस्या सहज व सहर्ष सुलझायी जा सकती है। यदि कोई यह कहे कि शरीर शक्तियों का खजाना है तो योग उस खजाने की चाबी है। वास्तव में योग जीवन के रहस्यमयी तथ्यों का अन्वेषक है, अनुभूत सत्य का उद्घाटक है। जहाँ यह विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों का आधार है वहीं विज्ञान और पराविज्ञान के क्षेत्र में भी योग की अपनी एक पहचान है। विज्ञान मात्र बहिर्दृष्टि पर केन्द्रित है जबकि योग बहिर्दृष्टि के साथ-साथ अन्तर्दृष्टि की बात करता है। एक बार वैज्ञानिकों की गोष्ठी में यह प्रश्न उभरा कि सब कुछ पा लेने के बाद आदमी क्या करेगा ? तो टायनवी ने इस सन्दर्भ में कहा कि आदमी के पास यदि कोई समस्या नहीं होगी तो उसके सामने यही सबसे बड़ी समस्या होगी कि उसके पास कोई समस्या नहीं है। सब कुछ पा लेने के बाद भी उसे तब भी बहुत कुछ पाने और करने को शेष रहेगा और वह है आत्म-जगत् । आत्म-जगत् का क्षेत्र अभी भी अधूरा है। आत्म-जगत् के क्षेत्र में उसे बहुत कुछ अभी भी अनुसंधान करना है। आत्म-सम्पदा-वैभव जहाँ बिखरे पड़े हैं उन्हें बाहर निकालना होता है। वास्तव में समस्याओं और दुःखों का जो आधार है वह है अन्तर्दृष्टि का विलुप्त होना। इस अन्तर्दृष्टि को उसे आज खोजना-खोलना है। योग में अनन्त शक्ति है। इसकी उपयोगिता असीम है पर, मानव की क्षमता सीमित है। मानव ने अपनी इस सीमित क्षमता के माध्यम से योग की इस अनंत शक्ति को परखने और पहचानने का प्रयास किया है। विदेशी धरती पर यह योग बहुत पहले मात्र सौंदर्य प्रसाधन का एक निमित्त था। मानव में इसको और अधिक गहराई से जानने-समझने की क्षमता बढ़ी तो यह चिकित्सा के क्षेत्र में स्वास्थ्य का मूलभूत आधार बना।मोदी ने रही कसर पूरी कर गई।अंतराष्ट्रीय योग दिवस की शुरुआत विदेशी धरती से की गई।आज करीब करीब दुनिया के सभी देश योग कर अपने जीवन को स्वस्थ और सुखमय बना रहे है। कुछ डॉक्टरों ने अपना अभिमत दिया कि रोगों के होने का अधिकांश कारण मात्र शारीरिक नहीं है अपितु मानसिक अस्वास्थ्य प्राण असन्तुलन व रहन-सहन की अव्यवस्था है जिसे योग के द्वारा ठीक किया जा सकता है। प्राचीनकाल में समस्त बीमारियाँ योग से ही ठीक हुआ करती थीं। उस युग के लोगों का स्वास्थ्य योग मेरुदण्ड पर टिका रहता था। लोग योग क्रियाओं में पारंगत थे। पुरातत्त्व विभाग इस सत्य को स्वीकारता है कि हमारे पूर्वज योग में निष्णात थे। बीच में योग विलुप्त हुआ और एक सीमित क्षेत्र अर्थात् योग, विद्या में प्रशिक्षित वर्ग के लोगों में कैद होकर रह गया।आज योग पुनः जन-जन का प्रिय विषय बनता जा रहा है। डॉक्टर, प्रशासक, शिक्षक, विद्यार्थी, रोगी, वैज्ञानिक, सामाजिक, राजनीतिज्ञ तथा सामान्य गृहस्थ भी अर्थात् प्रत्येक वर्ग की यह जुबान पर है। गाँव से लेकर नगर-महानगरों तक के लोग इस योग के बारे में अधिक से अधिक जानने-समझने की जिज्ञासाएँ रख रहे हैं। वर्तमान युग में आम लोगों की धारणा बनती जा रही है कि तनाव और अशान्ति को रोकने या समाप्त करने का यदि कोई उत्तम उपाय या साधन है तो वह है योग। योग मानव-जीवन में आयी विकृतियों को, संस्कारों में बदल सकने की अभूतपूर्व क्षमता रखता है। समाज में बढ़ते हुए अपराधों पर नियन्त्रण भी योग के द्वारा ही सम्भव है। यह योग अनेक दूषणों-प्रदूषणों से व्यक्ति को बचाता है। अमेरिकन डॉक्टर तो यहाँ तक कहने लगे हैं कि रोगोपचार की जितनी भी पद्धतियाँ हैं वे सब योग के बिना अपूर्ण हैं। इसी आधार पर पाश्चात्य देशों में तो कार्यालयों, स्कूलादि प्रायः सभी क्षेत्रों में योग का प्रशिक्षण दिया जाने लगा है। वहाँ के लोगों में योग के प्रति रुझान बढ़ रहा है। विदेशियों के भारत आने का प्रमुख कारण एक यह भी है कि वे योग के बारे में अधिक से अधिक जानकारी चाहते हैं क्योंकि वे इस बात से भलीभाँति परिचित हैं कि भारत योग का मूल केन्द्र रहा है। भारत की यह एक अमूल्य निधि है किन्तु विडम्बना है कि जिस सम्पदा के विषय में जानने के लिए विदेशी लोग भारत आकर अपने को धन्य मानते हैं उसी सम्पदा के प्रति भारत के लोग जागरूक नहीं हैं। वे योग से हटकर भोग की दिशा में भटक रहे हैं। आज भारतवासी ही भारत को भूलते नजर आते हैं। पाश्चात्य संस्कृति के नशे में झूमते नजर आते हैं।पर भारतीय लोग विदेशी चौखट चूमते नजर आते हैं।। विदेशों में योग के बढ़ते हुए रुझान को देखते हुए यहाँ के अनेक योगी वहाँ पहुँचे। वहाँ उन्हें आशातीत सफलता भी मिली है। अनेक योग-केन्द्रों को खोलकर वहाँ के लोगों के अशान्त व तनावमय जीवन को शान्त व स्वस्थ रखने का इन सभी ने सुन्दर और अभिनव प्रयास किया है। बाबा रामदेव योग गुरु इस क्षेत्र में योग सिखाते है। विदशी लोग भौतिक संसाधनों से सुसम्पन्न हैं। उन्हें लालसाएँ तृष्णाएँ व्यथित किए हुए हैं। सुख-शांति की प्राप्ति के लिए उनमें बेचैनी, छटपटाहट उसी प्रकार है जिस प्रकार एक माँ का बेटा खो जाने पर माँ उसे खोजती फिरती है। चैन से तब तक नहीं बैठती जब तक वह अपने खोए हुए बेटे को छाती से नहीं लगा ले। ठीक उसी प्रकार इन वैभव-सम्पन्न लोगों के जीवन से सुख-शान्ति जब गुम हो जाती है तो वे भी उसे तलाशते रहते हैं। तलाशते-तलाशते जब उन्हें योग का आश्रय मिल जाता है तब वे प्रसन्नता से झूम उठते हैं। विदेशों में स्थापित ये योग-केन्द्र उनके लिए एक प्रकार से संजीवनी का कार्य कर रहे हैं। भारतीय योगशास्त्रों के अनुसार अब तक हजारो योग साधन प्रकाश में आए हैं। योग पर इतनी विपुल सामग्री का होना इस बात का प्रमाण है कि योग की आज कितनी माँग है। जीवन में इसकी उपयोगिता निश्चित ही असंदिग्ध है किन्तु इन समस्त योगों का उद्देश्य एवं कार्य तो एक ही है और वह है अनंत आनंद की सम्प्राप्ति।योग-साधनाएँ किसी को भी बलिष्ठ बना सकती हैं। बहुत पहले एक पत्रिका में पढ़ा था कि मास नाम का एक कोरियाई दुर्बल नाटा पहलवान अमेरिका गया। वहाँ उसने नामीगिरामी पहलवानों को कुश्ती में हराने की चुनौती दी। अमेरिका का तत्कालीन कुश्ती चैम्पियन डिकिरियल उससे लडा। डिकिरियल मास की तुलना में ज्यादा बलिष्ठ और बड़ा लम्बा था।यह जीवात्मा परमात्मा से सदा मिला हुआ है, कभी भी जुदा नहीं है। यहाँ तक कि जब वह भौतिक शरीर को त्यागकर बाहर निकल जाता है या गर्भमें निवास करता है या मोक्ष को प्राप्त होता है तब भी वह ईश्वर से जुड़ा ही होता है।कहने का तात्पर्य है कि जीवात्मा किसी भी देश, काल या अवस्था में हो, वह अपने ईश्वर से कभी भी विलग नहीं होता है तब किसी के भी मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि जीव और ईश्वर का जब वियोग ही नहीं होता तो फिर इस योग की आवश्यकता ही क्या है? इसका उत्तर देते हुए वैदिक आचार्य कहते हैं- यों तो आत्मा का ईश्वर से योग प्रत्येक देश, काल तथा अवस्था में उसी परम देव की परम दया से होता है, यही जीवन है। परन्तु यह स्वाभाविक योग जीव की ओर से नहीं होता और न उसको इस योग का ज्ञान होता है और न उसका अनुभव व आनन्द ही जीव को प्राप्त होता है। अस्तु जीव के ईश्वर के मेल का ज्ञान होना ही योग है और इस अनुभव द्वारा प्रयत्नशील योगीजनों को साक्षात्कार हो जाना ही परमानन्द है। परमानन्द हो जाने के पश्चात् शेष प्राप्त करने के लिए कुछ नहीं रहता। यही परम पद और मोक्ष दशा है। वैदिक दर्शन से सम्पृक्त अनेक धर्मग्रन्थों में योग के इसी स्वरूप को विभिन्न ढंग से प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया गया है। जैसे गीता में योग की परिभाषा इस प्रकार से अभिव्यक्त है- योगः कर्मसु कौशलम् । और समत्व योग उच्चते। पातञ्जलि का योग दर्शन चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहता है। यथा- योगाश्चित वृत्ति निरोधः । जिस प्रकार घोडे को एक स्थान पर बाँधकर उसकी चपलता नष्ट कर दी जाती है उसी प्रकार योग द्वारा चित्तवृत्तियों का शमन किया जाता है। मन आत्मा पर हावी न हो जाए, योग इसकी परहरेदारी करता है। यह एक सजग प्रहरी की भूमिका निभाता है। इस प्रकार वैदिक दर्शन में योग परम सत्ता से सम्पर्क स्थापित करने की एक विशिष्ट प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया को पूरा करने की क्षमता योग-शक्ति कहलाती है। योग शब्द का अर्थ-क्षेत्र बड़ा व्यापक है किन्तु उसका लक्ष्य एक ही है और वह है चिन्तन-चेतना को परिष्कृत कर विचार बुद्धि को सुस्थिर रखते हुए आत्मा को परमात्मा से एकाकार होना या तादात्म्य स्थापित करना है। (वरिष्ठ पत्रकार साहित्यकार, स्तम्भकार) (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 16 नवम्बर/2025