लेख
19-Nov-2025
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समूचे विश्व में हमारा देश भारत ‘प्रजातंत्र’ का सबसे बड़ा प्रतीक और उसका पोषणकर्ता माना जाता है, यह हमारे लिए गर्व की बात है, किंतु आजादी के पचहत्तर साल बाद आज की शिक्षित नई पीढ़ी इस बात पर गंभीर चिंतन कर रही है कि क्या हम वास्तव में सही अर्थों में स्वतंत्र है? क्या सरकार के कथित जनहित के फैसले ‘प्रजा’ के अहम् हित से जुड़े होते है? क्या पांच साल में एक बार वोट की गरज खत्म हो जाने के बाद विजयी राजनेता पांच साल तक आम मतदाता की खोज खबर लेता है? क्या उसे मतों से विजयश्री दिलवाने वाले आम मतदाता को अपनी समस्याओं के निदान के लिए हाथ जोड़कर नेता के सामने खड़े होने को मजबूर नही होना पड़ता है? लेकिन इस स्थिति के लिए किसे दोषी ठहराया जाए, पिछले पचहत्तर सालों से देश में यही चल रहा है, प्रजातंत्र की दुहाई देने वाला नेता चुनाव जीतने के बाद ‘एकतंत्र’ का कट्टर समर्थक बन जाता है और सत्ता पर काबिज नेता ‘लोकतंत्र’ को भूलकर ‘तंत्रलोक’ का समर्थक बन जाता है और जनसेवा या जनहित के बजाए ‘स्वार्थहित’ को वरियता देता है। यद्यपि यह स्थिति इसलिए निर्मित हुई क्योंकि हमारे देश में आजादी के बाद से ही ‘लोकतंत्र’ की आड़ में ‘एकतंत्र’ का खेल खेला जा रहा है और यह स्थिति किसी राजनीतिक दल विशेष के साथ नही बल्कि सत्तारूढ़ होने वाले सभी राजनीतिक दल व उसके नेताओं के साथ समाहित है, यद्यपि आजादी के बाद के अब तक के पचहत्तर वर्षों में करीब आधी शताब्दी तक कांग्रेस ही सत्तारूढ़ रही, शेष समय प्रतिपक्षी दल भी सत्ता में रहे, किंतु शासन प्रणाली या सरकार चलाने के तौर-तरीकों में दोनो पक्षों में कोई अंतर नही देखा गया, प्रतिपक्ष में रहकर जो दल सत्ता पक्ष के जिन मुद्दों पर तीखी आलोचना करता है, सरकार को जिन आरापों के कटघरें में खड़ा करता है, वही तौर-तरीके वह भी सत्ता में आने के बाद अपनाता है और वह अपना विपक्षी काल बिसरा देता है, पिछले पचहत्तर वर्षों के अपने कटु अनुभवों को यही सीख मौजूदा यवा पीढ़ी को बुजुर्गों ने दी है, प्रधानमंत्री पद पर विराजमान होने वाला राजनेता ‘लोकतंत्री’ नही रहता और न कभी किसी गंभीर या देश से जुड़े मामले पर जनता का अभिमत प्राप्त करता है, वह करता वही है जो उसे या उसके दल को सुहाता है, क्या इस स्थिति को हम लोकतंत्र के दायरे में है, ऐसा कह सकते है? अब तक पं. जवाहर लाल नेहरू से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी तक, देश की बुद्धिजीवी जनता ने यही महसूस किया है, किंतु अब देश की सुशिक्षित युवा पीढ़ी ने इस स्थिति पर गंभीर चिंतन शुरू कर दिया है और ‘लोकतंत्र’ की आड़ में चल रहे ‘एकतंत्र’ को खत्म करने का संकल्प ले लिया है और देश की आम जनता भी इस मसले पर युवा पीढ़ी भी इस मसले पर युवा पीढ़ी के साथ है और देश के आम बुद्धिजीवी का इस मसले पर यही अभिमत है कि- ‘‘चलो देर आए-दुरूस्त आए’’ अब कुुछ ऐसे उपायों पर चिंतन-मनन चल रहा है, जिससे कि सत्ता के सर्वोच्च पद पर विराजित राजनेता लोकतंत्र की आड़ में ‘एकतंत्र’ का खेल न खेल सके और स्वार्थ सिद्धी का सपना साकार न कर सके? (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 19 नवम्बर/2025