लेख
21-Nov-2025
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:: मिथिला ने बहुमत दिया, पर प्रतिनिधित्व नहीं मिला :: गांधी मैदान में शपथ ग्रहण का विशाल आयोजन, रंग-बिरंगी सजावट, और नीतीश कुमार का अभूतपूर्व दसवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेना - बिहार की राजनीति का ऐतिहासिक क्षण था। एनडीए ने इस चुनाव में 200 से अधिक सीटें जीतकर एक ऐसी बढ़त हासिल की है, जिसने विपक्ष को पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिया। लेकिन इस उत्सव के बीच जो आवाज़ सबसे तेज़ सुनाई दे रही है, वह है मिथिला की उपेक्षा की। :: मिथिला - जहाँ से एनडीए को मिला सबसे बड़ा जनादेश :: उत्तर बिहार का मिथिला क्षेत्र - मधुबनी, दरभंगा, सुपौल, समस्तीपुर, सहरसा और आसपास के जिले - इस चुनाव में एनडीए की सबसे मजबूत दीवार साबित हुए। लगभग 40–45 सीटों वाले इस क्षेत्र में एनडीए की जीत दर रही 90% से भी अधिक, जो बिहार के किसी भी अन्य क्षेत्र से ऊँची है। :: वोटरों ने जातिगत सीमाओं से ऊपर उठकर मतदान किया :: मैथिल ब्राह्मण, वैश्य समुदाय, और ईबीसी समूहों ने एनडीए को एकमुश्त समर्थन दिया। कारण थे - बाढ़ नियंत्रण की उम्मीद, क्षेत्रीय विकास, मिथिला की सांस्कृतिक पहचान, और नीतीश कुमार की सुशासन छवि का पुनरोदय। यही नहीं, युवा उम्मीदवारों का प्रदर्शन भी ऐतिहासिक रहा। 25 वर्षीय मैथिली ठाकुर का पहली बार चुनाव लड़कर 11,000 से अधिक मतों से जीतना मिथिला के राजनीतिक बदलाव का संकेत है। लेकिन कैबिनेट में मिथिला लगभग गायब 27 सदस्यीय नई कैबिनेट में मिथिला को मिले सिर्फ दो मंत्री: संजय सरावगी (भाजपा), दरभंगा एवं मदन सहनी (जदयू), दरभंगा दोनों एक ही जिले से, जबकि मिथिला बिहार के सबसे बड़े क्षेत्रीय सांस्कृतिक भूगोलों में से एक है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, इस योगदान के अनुपात में यहाँ से कम-से-कम 4–5 मंत्री बनना स्वाभाविक था। दूसरी ओर, मगध, पटना और मध्य बिहार से कई नेताओं को शामिल किया गया है। आलोचकों का आरोप है कि सत्ता का झुकाव “दक्षिण बिहार” की ओर है, जबकि उत्तर बिहार को “मूक दर्शक” बना दिया गया है। :: मैथिल ब्राह्मण समुदाय की उपेक्षा :: मिथिला के मैथिल ब्राह्मण इस फैसले से सबसे अधिक आहत हैं। सबसे विवादित निर्णय रहा नितीश मिश्रा को बाहर रखना। हार्वर्ड-शिक्षित, अनुभवी, और पूर्व उद्योग मंत्री। उद्योग, निवेश और युवा पलायन रोकने के मोर्चे पर उनके कार्यों को व्यापक सराहना मिली थी। फिर भी उन्हें कैबिनेट में स्थान नहीं मिला। पार्टी सूत्र बताते हैं कि “जातीय संतुलन” के नाम पर भाजपा ने पूरे राज्य में ब्राह्मण प्रतिनिधित्व को “एक सीट” तक सीमित कर दिया - वह भी गैर-मैथिल को। समर्थकों का मानना है कि यह योग्यता और क्षेत्रीय योगदान दोनों का अपमान है। :: सोशल मीडिया पर गुस्से की आग :: कैबिनेट सूची सार्वजनिक होते ही एक्स (पूर्व ट्विटर) पर विरोध की बाढ़ आ गई। “मिथिला ने बहुमत दिया, सरकार ने प्रतिनिधित्व नहीं दिया।” “नितीश मिश्रा को बाहर करना योग्यता की हत्या है।” “90% सीटें जीतकर भी आवाज़ न मिले तो लोकतंत्र का अर्थ क्या?” डायस्पोरा, शिक्षाविद, कारोबारी और स्थानीय नागरिक सभी ने इसे “राजनैतिक कृतघ्नता” कहा। :: क्या यह निर्णय बिहार में नया विभाजन पैदा करेगा? मिथिला पहले से ही जूझ रहा है - सालाना कोसी बाढ़ से, उद्योगों की कमी से, युवा पलायन से, और सांस्कृतिक उपेक्षा से। कैबिनेट में मजबूत क्षेत्रीय नेतृत्व न होने से आशंकाएँ बढ़ गई हैं कि - बाढ़ प्रबंधन फिर पिछड़ जाएगा, मखाना व मत्स्य उद्योग ठहर जाएगा, मिथिला भाषा व साहित्य को संस्थागत समर्थन नहीं मिलेगा, उच्च शिक्षा संस्थान उपेक्षित रहेंगे। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यह निर्णय बिहार के उत्तर–दक्षिण संतुलन को अस्थिर कर सकता है। नीतीश कुमार ने अपने दसवें कार्यकाल की शुरुआत तो ऐतिहासिक की है, पर मिथिला के लिए संदेश कड़वा है - “हमने सरकार बना दी, पर सरकार ने हमारी आवाज़ ही छीन ली।” यह असंतोष अगले चुनावों में किस रूप में बदलता है - यही बिहार की राजनीति तय करेगी। (लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनितिक विश्लेषक हैं। ) ईएमएस/21 नवम्बर 2025