लेख
09-Dec-2025
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प्रधानमंत्री आवास का नाम परिवर्तन और उसके बाद पीएमओ को सेवा तीर्थ के रूप में नए स्वरूप में प्रस्तुत करना केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं है, बल्कि यह भारत के बदलते मानसिक मानचित्र, सांस्कृतिक आत्मविश्वास और शासन के नए दर्शन का प्रतीक है। यह कदम उस व्यापक विमर्श का हिस्सा है, जिसमें देश अपने इतिहास, अपनी पहचान और अपने कार्यक्रमों को बाहरी प्रभावों से मुक्त कर, अपने मूल स्वरूप में पुनर्स्थापित करने का प्रयास कर रहा है। यह परिवर्तन केवल नामों का नहीं, बल्कि सोच, दृष्टिकोण और दिशा का परिवर्तन है। ऐसे समय में जब भारत वैश्विक मंच पर तेजी से उभरता हुआ राष्ट्र है, वहीं आंतरिक स्तर पर भी शासन व्यवस्था को अधिक संवेदनशील, पारदर्शी और संस्कारयुक्त बनाने का प्रयास हो रहा है। सेवा तीर्थ नाम इस नई कार्यशैली के मूल सिद्धांत, जनसेवा, समर्पण और राष्ट्रीय भाव को दर्शाता है। यह सिर्फ किसी भवन का नया नाम नहीं, बल्कि उस भावना का विस्तार है कि शासन जनता से ऊपर नहीं, बल्कि जनता की सेवा के लिए है। यह दृष्टिकोण भारतीय राजनीतिक संस्कृति का आधार रहा है, जिसे समय-समय पर विदेशी शासन और औपनिवेशिक मानसिकता ने दबाने का प्रयास किया। अब उसे पुनर्जीवित करने की प्रक्रिया गति पकड़ रही है। भारत की सांस्कृतिक बुनियाद सेवा, त्याग, लोकमंगल और राष्ट्रहित पर आधारित रही है। प्राचीन से लेकर आधुनिक भारत तक शासन को एक साधना की तरह माना गया।धर्मराज्य का अर्थ धार्मिकता से नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व, न्याय और लोककल्याण से है। लेकिन इतिहास के विभिन्न पड़ावों ने इस सोच को धूमिल किया। मुघल शासन ने प्रशासन को शक्ति प्रदर्शन और दरबारी संस्कृति के केंद्र में रखा, जबकि अंग्रेजी शासन ने इसे साम्राज्यवादी नियंत्रण का औजार बना दिया। जनता और शासन के बीच दूरी बढ़ती गई, और शासन का ढांचा संवेदनशीलता से अधिक दमन और नियंत्रण पर आधारित होता चला गया। स्वतंत्रता के बाद भी, कई औपनिवेशिक प्रतीक संस्थाओं और नामों से चिपके रहे। यह केवल नाम नहीं थे, बल्कि मानसिकता का भी हिस्सा थे। ऐसे नाम सत्ता को जनता से दूर, और शासन को एक ठंडे, औपचारिक ढाँचे की तरह प्रस्तुत करते थे। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में इन नामों को बदलने का अभियान तेज हुआ है। राजपथ का कर्तव्य पथ होना, कई शहरों और स्थानों से औपनिवेशिक प्रतीकों को हटाना, और अब प्रधानमंत्री आवास परिसर और पीएमओ का नया सांस्कृतिक नामकरण ये सब उसी श्रृंखला के अंग हैं। नामों के बदलने से प्रशासनिक कार्यों में तेजी आएगी।यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि नाम केवल एक औपचारिक पहचान नहीं, बल्कि संस्था की आत्मा का दर्पण होते हैं। जब किसी संस्था का नाम उसके कार्य, लक्ष्य और दर्शन से सीधे जुड़ता है, तो वहां काम करने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को उस उद्देश्य से भावनात्मक रूप से जोड़ता है। सेवा तीर्थ जैसे नाम अधिकारियों, कर्मचारियों और नेतृत्व को यह स्मरण कराता है कि वे किसी शक्ति केंद्र का हिस्सा नहीं, बल्कि राष्ट्रसेवा के एक तीर्थ का अंग हैं। यह सोच कामकाज में संवेदनशीलता, गति और जिम्मेदारी का भाव भरती है। भारत आज जिस सांस्कृतिक पुनर्जागरण के दौर से गुजर रहा है, उसकी बुनियाद इस विचार पर है कि विकास केवल आर्थिक या तकनीकी वृद्धि का नाम नहीं, बल्कि आत्मबोध और सभ्यतागत चेतना का भी हिस्सा है। विकास मॉडल तभी टिकाऊ और जीवंत बनता है, जब वह अपनी जड़ों से जुड़ा हो। भारत की संस्कृति संवाद, समन्वय, कर्तव्य और सेवा पर आधारित है। इसलिए शासन को भी वही स्वरूप देना समय की मांग है। विदेशी शासन ने जो ढांचा थोपा, वह भारत की आत्मा के अनुकूल नहीं था। उसमें औपचारिकता अधिक और मानवीयता कम थी। इसलिए आज जब सरकार नामों, नीतियों और संस्थाओं को भारतीय संदर्भ में ढालने का प्रयास कर रही है, यह केवल इतिहास का सुधार नहीं, बल्कि भविष्य का निर्माण भी है। यह उन मानसिक बंधनों को तोड़ने की प्रक्रिया है जो सदियों से समाज पर पड़े रहे कि शासन कोई दूरस्थ, उच्चस्तरीय शक्ति है और जनता उसका विषय। भारतीय परंपरा में शासन सेवा का माध्यम है, और जनता परिवार की तरह है। इसी भाव को सेवा तीर्थ से नाम जीवंत करते हैं। भारतीय संस्कृति की झलक दिखाने वाले ऐसे नाम देश की नई पीढ़ी को भी यह संदेश देते हैं कि आधुनिकता का अर्थ अपनी जड़ों को भूलना नहीं है। आज दुनिया में जो भी राष्ट्र फ़ल-फूल रहे हैं, वे अपनी सांस्कृतिक पहचान के आधार पर ही आगे बढ़ रहे हैं। जापान, दक्षिण कोरिया, चीन, इज़राइल आदि हर जगह विकास मॉडल उनकी अपनी सभ्यता के संकेतों और मूल्यों से जुड़ा है। भारत भी यदि विश्व नेतृत्व की दिशा में बढ़ रहा है, तो यह आवश्यक है कि उसका शासन तंत्र भी भारतीयता के भाव को प्रदर्शित करे। यह बदलाव केवल प्रतीकात्मक नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक स्तर पर गहरा असर डालते हैं। पिछले 75 वर्षों में, हमने अनेक बार विकास की अवधारणा को पश्चिमी चश्मे से देखा है।जहां शासन और जनता के बीच औपचारिक दूरी रहती है। लेकिन भारतीय मॉडल में यह दूरी नहीं है। हमारे यहां पंचायत से लेकर राज्य और केंद्र तक शासन को समुदाय का हिस्सा माना गया। नामों का भारतीयकरण इस जुड़ाव को और मजबूत करता है।फिर भी एक सवाल उठता है।यह कैसी संस्कृति है जिसकी ओर हम लौटना चाहते हैं? उत्तर सरल है।वह संस्कृति जो जीवन को समग्रता में देखती है। जहां कर्तव्य, परंपरा, नवाचार, आध्यात्मिकता और आधुनिकता साथ-साथ चलते हैं। जहां शासन एक नैतिक दायित्व माना जाता है। जहां सत्ता व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का नहीं, बल्कि लोककल्याण का साधन होती है। यह वही संस्कृति है जिसे भारतीय सभ्यता ने सदियों तक पोषित किया, और जिसे समय-समय पर बाहरी शासन ने धूमिल किया। अब वह संस्कृति पुनः स्थापित हो रही है। नाम परिवर्तन का यह दौर केवल अतीत की ओर लौटना नहीं, बल्कि भविष्य के लिए मजबूत आधार निर्माण करना है। यह संदेश है कि भारत अपनी पहचान को लेकर आत्मविश्वासी है। वह आधुनिक भी है और अपनी परंपरा में भी गर्व महसूस करता है। राजनीति में कभी-कभी नाम बदलने को केवल प्रतीकात्मक माना जाता है, लेकिन यदि वह सही दर्शन और दृष्टि के साथ किया जाए, तो उसके प्रभाव गहरे होते हैं। जब प्रधानमंत्री कार्यालय का नाम सेवा तीर्थ होता है, तो यह जनता को यह विश्वास दिलाता है कि शासन का केंद्र अब शक्ति नहीं, सेवा है। और यह संदेश देश के हर नागरिक के मन में राष्ट्रीय गर्व और भरोसा जगाता है। कुल मिलाकर, यह परिवर्तन केवल किसी भवन के नाम का नहीं, बल्कि राष्ट्र की मानसिकता के परिवर्तन का संकेत है। यह वह पल है जब भारत अपनी पहचान को पुनर्स्थापित कर, ऐसे शासन मॉडल की ओर बढ़ रहा है जो भारतीय मूल्यों पर आधारित है।जहां सेवा सर्वोच्च है, कर्तव्य देवता है और राष्ट्र हित सर्वोपरि। यदि इस दिशा में निरंतरता बनी रही, तो यह न केवल शासन व्यवस्था को तेज, प्रभावी और संवेदनशील बनाएगा, बल्कि भविष्य के भारत को एक सांस्कृतिक रूप से सशक्त, आत्मविश्वासी और वैचारिक रूप से स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में विकसित करेगा। यह परिवर्तन भारतीयता की उस परंपरा को पुनर्जीवित करता है जो सेवा को ही सर्वोच्च धर्म मानती है। सेवा तीर्थ इसी महान भावना का समकालीन प्रतीक है। (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) ईएमएस / 09 / 12 / 2025