लेख
14-Dec-2025
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- लोकतंत्र या एहसान की राजनीति? सौरभ जैन अंकित मध्यप्रदेश की राजनीति में एक बार फिर वही पुराना सवाल खड़ा हो गया है। क्या सरकारें जनता की सेवा के लिए होती हैं या जनता को एहसान जताने के लिए? रतलाम में जिला विकास सलाहकार समिति की बैठक के दौरान प्रभारी मंत्री डॉ. विजय शाह का लाड़ली बहना योजना को लेकर दिया गया बयान न सिर्फ असंवेदनशील है, बल्कि लोकतांत्रिक मर्यादाओं पर सीधा हमला भी है। दरसल प्रभारी मंत्री का यह कहना कि जो लाड़ली बहनें मुख्यमंत्री का सम्मान करने नहीं आएंगी, उनकी जांच पेंडिंग कर दी जाएगी। किसी जनप्रतिनिधि का वक्तव्य नहीं, बल्कि किसी जागीरदार का फरमान लगता है। यह बयान स्पष्ट करता है कि सत्ता के गलियारों में अब भी योजनाओं को अधिकार नहीं, दान समझा जाता है। लाड़ली बहना योजना सरकार की कृपा नहीं, बल्कि करदाताओं के पैसे से चलने वाली एक जनकल्याणकारी योजना है। महिलाओं को मिलने वाली 1500 रुपए की राशि कोई व्यक्तिगत उपहार नहीं, बल्कि सरकार का एक नीतिगत निर्णय है, जिसका उद्देश्य महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा देना है। ऐसे में “धन्यवाद” न कहने पर जांच लटकाने की धमकी देना सीधे-सीधे दबाव की राजनीति है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक मंत्री मंच से खुलेआम यह कहता है कि “जो नहीं आएंगी, फिर देखते हैं…”। यह “देखना” क्या है? लोकतांत्रिक जवाबदेही या प्रशासनिक प्रतिशोध? आधार लिंक न होने की आड़ में जांच पेंडिंग करने की बात कहना, योजनाओं के दुरुपयोग से ज्यादा सत्ता के दुरुपयोग की ओर इशारा करता है। मंत्री विजय शाह का यह बयान कोई अपवाद नहीं, बल्कि उनके लंबे विवादित बयानों वाले राजनीतिक इतिहास में जुड़ती एक और कड़ी है। याद करें, कभी सेना की अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी पर आपत्तिजनक टिप्पणी, कभी मुख्यमंत्री की पत्नी पर अभद्र बयान, कभी राहुल गांधी के निजी जीवन पर फब्ती, तो कभी विद्या बालन जैसी अभिनेत्री से जुड़े व्यवहार पर सवाल। इन सबने बार-बार यह साबित किया है कि समस्या जुबान की नहीं, सोच की है। राजनीति में शब्द सिर्फ शब्द नहीं होते, वे सत्ता की मानसिकता को उजागर करते हैं। जब एक मंत्री महिलाओं के सम्मान और सशक्तिकरण की योजना को भीड़ जुटाने का औजार बना दे, तो यह योजना की आत्मा का अपमान है। लाड़ली बहनों को मंच पर बुलाकर ताली बजवाना सशक्तिकरण नहीं, बल्कि उन्हें राजनीतिक भीड़ में बदलना है। और यह विडंबना ही है कि जिस योजना का नाम “लाड़ली” है, उसी योजना की लाभार्थियों को धमकी दी जा रही है। क्या यही वह “नारी सम्मान” है, जिसके नारे हर चुनाव में लगाए जाते हैं? क्या सम्मान की शर्त यह है कि महिलाएं सत्ता के सामने सिर झुकाएं? लोकतंत्र में सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होती है, न की जनता सरकार प्रति जवाबदेह हैं। योजनाओं का लाभ लेना किसी नेता का आशीर्वाद नहीं, बल्कि नागरिक का अधिकार है। अगर आज लाड़ली बहनों से “सम्मान समारोह” के नाम पर उपस्थिति की मांग की जा रही है, तो कल क्या वोट डालने के लिए भी “जांच” का डर दिखाया जाएगा? मंत्री विजय शाह का बयान न सिर्फ महिला विरोधी है, बल्कि लोकतंत्र विरोधी भी है। यह सोच बताती है कि सत्ता में बैठे कुछ लोग अब भी जनता को उपकार का पात्र मानते हैं, अधिकार का नहीं। जरूरत इस बात की है कि ऐसी मानसिकता पर सवाल उठें, विरोध हो और याद दिलाया जाए कि लोकतंत्र में सरकार सेवक होती है, मालिक नहीं। वरना “लाड़ली बहना” जैसी योजनाएं भी धीरे-धीरे “डर दिखाकर वफादारी” की मिसाल बन जाएंगी और यही किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। सौरभ जैन अंकित/ईएमएस